सोमवार, 26 जनवरी 2009

कहानी: पहली सीढ़ी: हेम चन्द्र जोशी



पहली सीढ़ी


हम लोगों की गर्मियों की छुट्रटीयां चल रहीं थीं।विचार मेरे मन में आ रहा था। इसके अलावा सड़ी गर्मी में न जाने कितनी बार कस्बे की बिजली गुल हो जाएगी ? इसका कुछ अता पता ही नहीं था। पिछली बार जब हम नाना जी के घर गये थे तो गर्मी के प्रकोप को देखकर हम सबने यही कसम खाई थी कि अब दोबारा गर्मियों में नाना जी के घर नहीं आयेंगे। पर आज फिर नाना जी के घर जाने की तैयारी हो रही थी।

पिताजी एक दिन रूकने के बाद वापस चले गये। जाते समय उन्होंने मुझे आगाह किया - ”अनन्त, जब मैं वापस आऊं तो कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए अन्यथा सजा मिलेगी। मॆने मन ही मन सोचा, सजा तो मुझे पूरी गर्मियों की छुट्टियों की मिल ही चुकी है। अब और कितनी सजा मिलेगी ?

नाना जी के घर में सब कुछ व्यवस्थित था। यदि थोड़ी सी भी कहीं छेड़छाड़ की जाती तो तुरन्त नाना को पता चल जाता था। दिन भर मैं घर में इधर उधर घूमता था। सुबह शाम मैं नानाजी के आम के बगीचों में घूमने निकल जाता था। दोपहर में हम बच्चों को जबरदस्ती एक कमरे में सुला दिया जाता था। यदि बिजली चली जाती तो शरबती बुआ को आदेश था कि वह हाथ का पंखा बच्चों के ऊपर झलती रहे।

शरबती बुआ बेचारी अंधी थी। उनकी हालत पर तरस खाकर नानी जी उनको अपने घर ले आई थी। शरबती बुआ कुछ काम तो कर नहीं पाती थी पर फिर भी सब्जी काटना, बच्चों को नहलाना, कपड़े धोना आदि कार्यो में वह सदा नानी की सहायता करती रहती थीं। जब पंखा झलने का काम उनको मिला तो हम लोगों की बुआ से ज्यादा निकटता हो गई। मैं उनके अंधेपन के दर्द को कुछ हद तक समझने लगा। बुआ अक्सर हमको तरह-तरह के किस्से व कहानियां सुनाया करती थीं।

अभी तीन चार दिन ही बीते थे कि मेरी नाना जी के बागों की रखवाली करने वाले चैकीदार के बच्चों से दोस्ती हो गयी। मैंने उन बच्चों के पास घास फूस में छिपाकर रखा हुआ क्रिकेट का देशी बल्ला व कपडे. की बनी गेंद देख ली। पर मैं चैकीदार के बच्चों के साथ खेलता कैसे ? हमारे बीच में नाना जी का अनुशासन जो खड़ा था।

अन्ततः मैंने तरकीब निकाल ही ली। जून की भरी दोपहरी में जब सारी दुनिया आराम कर रही होती है उस समय मैंने खेलने का निर्णय लिया। पर शरबती बुआ तो पंखा करने के साथ चैकीदारी भी किया करती थी। बिस्तर से गायब होना थोड़ा मुश्किल था। मैंने अपने छोटे भाई के साथ पूरी योजना बना ली। बुआ से बातें करते करते हम सोने का बहाना कर लेते थे और फिर थोड़ी देर में चुपके से घर से बाहर निकल पड़ते थे। बेचारी बुआ पता ही नहीं चलता था कि कब हम भाग गये और वे खाली बिस्तर में यों ही पंखा झलते रह जाती थीं। बुआ के अंधेपन का फायदा उठाना मुझे दिल से कभी भी अच्छा नहीं लगता था। पर क्रिकेट खेलने की बेहिसाब इच्छा के सामने मैं मजबूर था।

कुछ दिन तो ठीक ठाक चलता रहा। एक दिन खेलते खेलते काफी देर हो गयी। हम भागते भागते घर पहुचे। पसीने से लथपथ हम बिस्तर में लेटे ही थे कि पता नहीं कहीं से नाना जी वहां आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि हम पसीने से लथपथ हैं। उन्होंने शरबती बुआ को जोर से डांट लगायी, ”शरबती, तुम अंधी होने के साथ साथ अब आलसी भी हो गयी हो। देखो, बच्चे पसीने से नहा रहे हैं और तुम पंखा भी नहीं झल सकती हो। तुमको शर्म आनी चाहिए। यदि दोबारा ऐसा हुआ तो मैं तुमको नौकरी से निकाल दूंॅगा।“

नाना जी लाल पीले होकर चले गये। मैंने देखा बुआ ने अपने हाथों से मेरे पैरों, हाथों व माथे को स्पर्श करके बहुत देर तक सोचती रही। उनको समझ में नहीं आ रहा था कि लगातार पंखा करने के बाद भी बच्चों को इतना पसीना आखिर कैसे आ गया था। मुझे बुआ की मनःस्थिति को देखकर मन ही मन बहुत अफसोस हुआ। मैंने निर्णय किया कि मैं अगले दिन क्रिकेट खेलने नहीं जाउगा।“
पर मेरा प्रण अगले दिन तक टिक नहीं पाया। अगले दिन बाग से सीटी की आवाज आई। यह संकेत था खेल शुरू होने का, हम दोनों भाई मौका देखकर फिर घर से भाग निकले। दो तीन दिन ही बीते थे कि नाना जी फिर हमारे कमरे में आये। हम दोनों भाई उस दिन भी पसीने से भीगे हुए थे। उस दिन भी हमको वापस पहुंचे बहुत थोड़ा समय बीता था। नाना जी ने हमारी हालत को देखा तो एक बार फिर शरबती बुआ पर बिगड़े - ”शरबती कल सुबह तुम अपने घर चली जाओ। यहां अब तुम्हारे लिए कोई काम नहीं बचा है। मैं तुम्हारे घरवालों को संदेशा भिजवा दूंगा।“
शरबती बुआ पंखा झलती रही और उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस बीच मुझको नींद आ गयी। फिर जब मैं उठा तो बिजली का पंखा चल रहा था। ग्लानिवश मैं उठा और बुआ को ढॅढने लगा। मैंने देखा कि बुआ की कोठरी से खटपट की आवाजें आ रही थीं। पर मेरे पास इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं बुआ की अंधी आंखों का भी सामना कर सकूं।

इधर उधर की बातों में मैं दिन की घटना को भूल गया। अगली सुबह जब मैं घर से बाहर निकला तो मैंने देखा कि शरबती बुआ नहा धोकर तैयार हैं। उन्होंने एक साफ सुथरी धोती पहन रखी है और साथ में उनका पुराना संदूक भी है। मैंने बुआ से पूछा, ”बुआ आज कहां जाने की तैयारी हो रही है ?“

बुआ ने मुझको पास बुलाया। मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा। मेरे चेहरे को चूमा और मेरे हाथ में पाच रूपये का एक करारा नोट रखकर कहा, ”बेटा मैं वापस अपने गांव जा रही हू। मैं अंधी तो थी ही पर अब आलसी भी हो गयी हूं। मैं ठीक से काम नहीं कर पाती हॅू। इसलिए वापस जा रही हूं। पर बेटा, तुम शैतानी मत करना। खूब मन लगाकर पढ़ना और कहना मानना। जब तुम पढ़ लिखकर बड़े हो जाओ तो मुझसे मिलने मेरे गांॅव जरूर आना।“ कहते कहते बुआ की आवाज भर्रा गयी। मैंने देखा कि बुआ की अंधी आंॅखों से आॅसू बह रहे थे।
मैं पश्चाताप की अग्नि में जल उठा। मेरी शैतानी के कारण बुआ को आलसी व कामचोर का खिताब मिला था। मैं एक अंधी लाचार, बूढ़ी औरत को धोखा देने वाला कुपात्रा बन चुका था। मेरा हृदय मुझे रह रह कर धिक्कार रहा था। मैंने कहा ”बुआ यह सब झूठ है। आप कामचोर व आलसी नहीं हो। यह सब मेरी शैतानी का फल है। मैं रोज भरी दोपहरी में क्रिकेट खेलकर वापस आता था। इसलिए मुझे पसीना तो आता ही। तुम तो खाली बिस्तर में हवा करती रहती थीं। बुआ आप कहीं नहीं जाओगी। मैं सब कुछ सच सच नाना जी को बता दूंगा। चाहे नाना जी मुझको 

कितना ही डांटे व फटकारे। आप चलिये अंदर। मैंने बुआ का हाथ अंदर ले जाने के लिए पकड़ लिया।
तब बुआ ने हौले से कहा, ”अनन्त मुझे मालूम है कि तुम दिन में बाहर चले जाते हो। पहले दिन की घटना के बाद मैं चक्कर में पड़ गयी थी। पर उस दिन के बाद मैं हमेशा तुम्हारे बिस्तर को टटोल कर तुम्हारे जाने का पता लगाती रही। किन्तु मैं तुम्हारे नाना जी का स्वभाव जानती हूं। इसलिए मैंने यह बात तुम्हारे नाना जी से नहीं कही। पर तुम्हारी नानी यह अच्छी तरह जानती हैं। अब बहुत देर हो चुकी है। थोड़ी देर में मेरा तांगा आता ही होगा। मैं सदा के लिए चली जाऊॅंगी। वादा करो कि तुम एक बहुत नेक व अच्छे आदमी बनोगे।“

”बुआ, अच्छा और नेक आदमी बनने की पहली सीढ़ी आज ही तो है। मैं इस मौके को नहीं छोड़ना चाहता हूं। मैं नानाजी के सामने अपनी गलतियों को मानकर प्रायश्चित जरूर करूंॅगा । यदि आप चली गयी तो मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।“ मैंने डबडबाई आंॅखों के साथ कहा। बुआ को लेकर मैं ज्यों ही वापस मुड़ा तो मैंने देखा कि रोबीली मूंछों वाले कठोर नानाजी हमारी बातों को सुन रहे थे। उनकी आॅंखों के किनारे नम थे। वे बोले - ”आओ अनन्त मैं तुमसे बहुत खुश हूं। आखिर तुम जीवन के प्रथम सोपान में खरे उतरे हो। तुम्हारा सच बोलने का साहस देखकर मैं बहुत प्रसन्न हु। मैं झठ से बुआ के गले जा लगा।

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शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

कहानी:शिखर कि अंतरिक्ष यात्रा भाग-3 हेम चन्द्र जोशी





शिखर कि अंतरिक्ष यात्रा भाग-3
शिखर बहुत देर तक सोया रहा. अचानक उस के कानों में रजत  की आवाज आई. वह कह रहा था कि जागने का समय हो गया है ’शिखर ने उनींदी आंखों से देखा, तब भी घनघोर काली रात थी. खिडकी में से ढेर सारे तारे चमक रहे थें
पर एक खास बात थी. तारा की चमक  काफी अधिक थी. ये तारे धरती के मुकाबले  यहां से ज्यादा चमकदार क्यों दिखाई दे रहे हैं? ’शिखर के मन में विचार आया और वह उत्तर पाने के लिए एकटक तारों की ओर देखने लगा.

क्या उस की आंखें अंतरिक्ष में आ कर ज्यादा तेज हो गई है? घर से वह जब भी तारों को देखता था उसे वे उतने साफ नहीं दिखते थें.

 घर की याद आते ही उस ने सोचा कि वह तो धरती से सैकडों किलोमीटर ऊचाई से देख रहा था. ओह तारों  के पास पहुच जाने के कारण ही मुझे  सब कुछ साफ दिखाई  देने लगा है. उस के मन में विचार आया. फिर अपने प्रश्न का उत्तर  पा कर वह खुश हो उठा।.

तभी रजत भी कमरे में आ गया.
 उस को प्रसन्न  देख कर रजत ने पूछा "कहों कैसी नींद आई? तुम्हें मुसकराते हुए देख कर लग रहा है  कि तुम बहुत खुश हों."

"रजत मै, खिडकी से दिख रहे तारों के बारे में सोच रहा था. यहां से तारे कितने साफ दिखाई दे रहे है. हम तारों के बहुत पास पहुंच  गए है ने शायद इसीलिए हम को ये इतने साफ दिखाई दे रहे हैं" ’शिखर बोला.

रजत ने शिखर की बात को आश्चर्य से सुना और फिर वह खिडकी से तारों को देखने लगा. काफी देर तक तारों को देखने के बाद उस ने कहा शिखर हम तो सदा तारों को ऐसे ही देखते आ रहें हैं . मुझें तुम्हारी बात समझ में नहीं आ रही है. शिखर ने कहा क्या तूने कभी तारों  को पृथ्वी  से ध्यान से दे्खा है. यदि याद करों तो मालूम  होगा कि धरती से तारे इतने ज्यादा चमकदार नहीं  दिखई देते. 

रजत ने अपना सिर खुजलाते हुए कहा यार मै तो काफी समय से अंतरिक्ष नगर में ही रह राह हूं. इसलिए ऐसा कुछ नजर नही आ रहा है. तुम कल ही धरती से आए हो इसीलिए तुम्हें नयापन लग  रहा है.

तब तक मामाजी कमरे में आ  गए उन्होंन रजत और शिखर की बातें  सुनीं. फिर रजत से पूछा तुम लोगों के बीच क्या बातचीत हो रहीं है.

शिखर ने कहा -"मामाजी धरती के मुकाबले यहां से तारे ज्यादा चमकदार दिख रहे है दिख रहे हैं न."

मामाजी ने सहमति से सिर हिला दिया तब शिखर  ने खुश हो कर कहा-" ऐसा इसलिए हो रहा है न कि हम धरती से बहुत उंचाई पर आ गए है तथा अब हम तारों को बहुत पास से देख रहे है."

मामाजी धीरे से मुसकराए फिर बोले नहीं ऐसा नहीं है. ये तारे तो हमसे करोडों अरबों किलोमीटर की दूरी पर है कुछ तो इतनी दूरी पर है कि उन से आने वाले प्रकाश को पृथ्वी तक पहुचने में हजारों वर्ष  लग जाते है. इस हिसाब से पृथ्वी  व अंतरिक्ष नगर के बीच की दूरी बहुत की कम है अतः तारों के निकट पहंचने  के कारण उनके साफ दिखने का प्रश्न ही नहीं उठता 

तब ्शिखर ने बात काट कर पूछा -"किंतु तारे यहां से साफ दिख रहे है क्या अंतरिक्ष  में आ कर मेरी आंखें ज्यादा तेज हो गई हैं?"
मामाजी ठहाका मार कर हंस पडे और बोले -"पृथ्वी  पर हमारे चारो और हवा रहती है. यह हवा पृथ्वी की सतह से बहुत उंचाई तक पृथ्वी  के चारों और फैली  हुई है. इस हवा में पानी की भाप व धूल के कण भी होते हैं. इन्हीं के कारण तारों से आने वाली प्रकाश किरनो का एक हिस्सा हमारी आंखें में पहंुचने से पहले ही आसमान में बिखर जाता है.  पर अंतरिक्ष  में ऐसा कुछ नहीं होता. पूरे का पूरा प्रकाश हमारी आंखें में पडता है. इसीलिए अंतरिक्ष नगर से तारे ज्यादा तेज चमकते दिखाई देते हैं."

तुम जरा याद करो. वर्षा  के बाद आकाश साफ हो जाता है ऒर उस दिन हमें तारे ज्यादा साफ दिखाई देते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि धूल के कण वर्षा  के कारण हवा से धुल जाते है. इस प्रकार धूल के कण द्वारा तारों के प्रकाश में की जाने वाली रूकावट की मात्रा  कम हो जाती है. शिखर को तारों के अधिकर चमकदार होने का रहस्य समझ में आ गया था. उस ने खुशी से कहा -"मामाजी  मैं समझ गया कि यहां  हमारी आंखें और तारो के बीच से हवा की एक मोटी दीवार हट गई है.  इसीलिए तारे साफ दिख रहें है. 

तभी मामी ने किसी काम से मामाजी को आवाज लागाई तो वह चले एक और शिखर एक बार फिर तारों  को निहारने लगा.
 शिखर बहुत देर तक तारों को देखता रहा. न आकाश में बादल थे और न ही प्यारा प्यारा चंदामामा. किंतु तारों का एक अपना ही नजारा था. वह एक अद्भुत अनुभव  था. शिखर अपने विचारों में खोया हुआ था और उधर मामीजी उस को बारबार आवाजें लगा रही थीं.

जब काफी देर तक शिखर ने उत्तर न दिया तो मामाजी एक बार फिर कमरे में आए. शिखर को तारों की नगरी में खोया देख कर वह मन ही मन मुसकराए. वह उस के पीछे आ खडे हुए. उन्होंने भी तारों को देखना शुरू कर दिया. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि शिखर किस चीज पर इतना ध्यानमग्न है. शिखर को भी यह  पता नही चला कि मामाजी उस के पीछे आ खडे हुए है और उस को बडे ध्यान से देख रहे है.

”क्यों भई, क्या तुम को नाश्ता नहीं करना है.? देखो,  मामी कितनी देर से तुम को आवाजें लगा रही हैं,“ मामाजी ने उस का ध्यान तोडते कहा.
”एक मिनट  मामाजी, मैं अभी नाश्ता करने जाता हू “ कह कर वह एक बार फिर तारों की दुनिया में खो गया.
शिखर की हालत देख कर मामाजी समझ गए कि वह किसी चक्कर में फंस गया है और अब कोई प्रश्न पूछने ही वाला हैं. तभी शिखर खिडकी से उठा और बोला, ”मामाजी, मुझे एक.....“

”पहले नाश्ता कर के आओ, फिर आराम से बातें करेंगे,“ मामाजी ने उस की बात बीच में काट कर कहा.

”ठीक है, मैं अभी नाश्ता कर के वापस आता हूं आप कहीं जाइएगा नहीं,“ कहते हुए शिखर मामी के पास दौड गया.

जब वह नाश्ता कर के लौटा, तब तक मामाजी शिखर के शयनकक्ष से जा चुके थे. शिखर उन को ढूंढता हुआ उन पास जा पहंुचा. उस को आता देख कर मामाजी ने पूछा. ”क्यों बेटे, पेट भर कर खा लिया है.?"
" पर आप तो यहां आ गए हैं. मेरे प्र’नों का उत्तर कैसे देंगे?“

मामाजी हंस कर बोले, ”क्यों तुम्हारे प्रश्नो का उत्तर मैं यहां नहीं दे सकता क्या?“

”नहीं पहले आप मेरे साथ शयनकक्ष तक चलिए.“ कहते हुए शिखर उन को अपने सोने वाले कमरे में ले आया. खिडकी से तारों को दिखाते हुए उस ने कहा, ”मामाजी, आसमान  में बहुत से तारे चलते हुए दिखाई दे रहे हैं. धरती से तो मैं ने तारों को चलते हुए कभी नहीं देखा.... यह क्या चक्कर है?“

मामाजी ने प्रसन्न हो कर कहा, ”बेटे, ये चलती हुई चीजें वास्तव में मनुष्यों द्वारा छोडे गए यान तथा उपग्रह हैं, जो सूरज की रोशनी के कारण तारों की तरह चमक रहे हैं... लेकिन ये तारे नहीं हैं,“

”पर ये चलने वाले तारे एकाएक आकाश में गायब कहां तो जा रहे हैं? यदि आप की बात सही तो उनको को सूर्य के प्रकाश से चमकते रहना चाहिए,“ उस ने शका जाहिर की.

वास्तव में शिखर की बात सत्य थी. वो काफी देर से देख रहा था कि आसमान में चलने वाले तारे आकाश में एक खास स्थान पर आकर गायब होते जा रहे हैं. किंतु गायब होने से पहले उन की चमक धीमी पड जाती थी.

अब मामाजी बहुत प्रसन्न हो उठे. कारण बिलकुल स्पष्ठ था. वह शिखर की होशियारी  को देख कर झूम उठे थे. उन्होंने उस को समझाने के लिए प्रश्न किया, ”अच्छा यह बताओ कि धरती से जब तुम चंद्रमा को देखते हो तो वह चमकता क्यों हैं?“
”मामाजी, यह तो सभी जानते हैं कि चंन्द्रमा का अपना काई प्रकाश नहीं होता. वह तो सूरज की किरणों से चमकता है, बिलकुल वैसे ही, जैसे कि अंधेरे में टार्च की रोशनी में चीजें चमकती हुई दिखई देती हैं, शिखर ने आत्मविश्वास के साथ कहा.

 ”तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो,“ मामाजी ने कहा, ” पर यदि टार्च के प्रकाश के मार्ग में कोई दूसरी वस्तु आ जाए तो क्या पुरानी वस्तु वैसे ही चमकती रहेगी?“

”नहीं, टार्च का प्रकाश रूक जाने की वजह से पुरानी वस्तु चमकना बंद कर देगी. “

मामाजी ने कहा, ”बेटे, यही कारण है, जिस की वजह से आसमान में चलने वाले तारे भी गायब हो रहे हैं मैं ने तुम्हें बताया था कि ये तारे नहीं बल्कि उपग्रह हैं, जो सूर्य के प्रकाश से चमक रहे हैं. जब ये उपग्रह हमारे अंतरिक्ष नगर के पीछे के हिस्से में आ जाते हैं तो ये चमकना छोड देते हैं, क्योंकि हमारा अंतरिक्ष नगर सूर्य के प्रकाश को मार्ग में ही रोक लेता है.“


गायब होने वाले तारों का रहस्य जान कर शिखर प्रसन्न हो उठा.

बाल उपन्यास
शिखर की अंतरिक्ष यात्रा

शिखर बहुत खुश था क्योंकि उसे अभी अभी अपने मामा जी का पत्र मिला था. उस के मामा अंतरिक्ष में स्थित भारत के विक्रम साराभाई नगर में वैज्ञानिक थे. पत्र इस प्रकार थाः

विक्रम साराभाई अंतरिक्ष नगर,
दिनांक 22 नवंबर, 2025

प्रिय शिखर ,
सदा खुश रहो तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है. मुझे एक विशेष वैज्ञानिक योजना में काम करना है. जिसमें मैं बार-बार अंतरिक्ष नगर व पृथ्वी के बीच भ्रमण करूंगा. इस बीच यदि तुम चाहो तो 4-5 दिन के लिए मेरे साथ अंतरिक्ष नगर आ सकते हो. अपने माता पिता से पूछ कर चलने कि योजना बना लेना. यहाँ रजत और कनी तुमको बहुत याद करते हैं .

बहुत बहुत प्यार. शेष मिलने पर.

तुम्हारा,
छोटा मामा


शिखर अक्सर मामा जी के पास जाने की कल्पना करता था. उसकी बहुत इच्छा थी कि वह चन्दा मामा व प्यारी धरती को एक साथ निहार सके. उसने पुस्तकों में धरती के अनेक चित्र देखे थे. विज्ञान की किताबो में पढ़ा था कि पृथ्वी भी चंद्रमा की तरह गोल है. वह सोचता था कि अंतरिक्ष से अपनी धुरी पर घूमती हुई धरती कैसी दिखाई देती होगी ? शायद आकाश में लटके एक बडे ग्लोब की भांति , किसी लट्टू की तरह चक्कर काटती दिखई देती होगी ? वह सोच सोच कर रोमांचित हो उठता था.

इसीलिए वह मामाजी से मिलने पर सदा एक ही प्रश्न करता था, ”अंतरिक्ष से धरती कितनी तेजी से घूमती हुई दिखलाई देती है?“

तब मामा हंस कर कहते, ”’शिखर तू तो बिलकुल बुद्वू है. पृथ्वी कोई घूमती हुई थोड़ी दिखती है.... वह तो बिलकुल ऐसे ही दिखती है, जैसे कि चंद्रमा “

शिखर यह सुन कर सोच में पड़ जाता. उसे कुछ समझ में न आता था. मामा की यह बात उसे बार बार चक्कर में डाल देती थी. उसे कक्षा में बताया गया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती है, जिस के कारण यहां रात और दिन होते हैं. पृथ्वी जरूर घूमती दिखाई देनी चाहिए. उस का विचार था कि मामा ने ध्यान से धरती को कभी देखा नहीं होगा. वह अचकचा कर पूछता, ”बिलकुल चन्द्रमा की तरह ? तो पहचान कैसे करूंगा?“

मामाजी हंस कर कहते, ”अब तुम को एक बार अंतरिक्ष में ले जाना ही पडे़गा. सच, धरती अंतरिक्ष से बहुत संुदर दिखती है. इस को तो अपने हरे रंग के कारण कोई भी पहचान सकाता है.“

अब मामाजी अपना वादा पूरा करने वाले थे. शिखर ने अंतरिक्ष नगर जाने की तैयारी जोर शोर से शुरू कर दी. एक अटैची में ढेर सारा सामान एकत्र करना शुरू कर दिया. शिखर के पिताजी ने उसे समझाया कि उसे कम से कम सामान ले कर जाना चाहिए. पर सामान कम रखते रखते भी उस की अटैची भारी हो गई, इतनी भारी कि उस के लिए उसे ले कर चलना मुश्किल हो गया. लेकिन उस के हिसाब से सभी सामान जरूरी था. उस ने घर में किसी की बात न सुनी.

मामाजी के आते ही उस ने शिकायत की. तब उन्होंने कहा, ”कोई चिंता की बात नहीं है. मेरे पास अपना कोई सामान नहीं है, इसलिए मैं सब कुछ संभाल लूँगा .“शिखरप्रसन्न हो उठा। उस को ख़ुशी थी कि वह रजत व कनी के लिए खरीदे हुए उपहार, यानी चाकलेट व खिलौने आसानी से ले जा पाएगा जो उसे इनाम में मिली थीं. आखिर किताबें दिखा कर उस ने मामी से भी तो शाबाशी लेनी थी.

अन्तरिक्ष मे चोरी
आखिर एक दिन वह मामा के साथ अंतरिक्ष स्टेशन  में पहुंच गया. अंतिरक्ष शटल  में बैठने से पहले उन्हें विशेष  प्रकार के कपडे दिए गए, जिन का नाम अंतरिक्ष सूट था. आव’यक सुरक्षा जांच के बाद वे अपनी सीटों पर जा बैठे. अटैची उन से स्टेशन पर ही ले ली गई. अटैची में एक रंगबिरंगा स्टिकर लगाने के बाद उन को एक टोकन दे दिया गाया.
शिखर चिंतित हो गया कि कहीं कोई उस की अटैची से किसी प्रकार की छेडछाड न कर बैठे. उस ने सोचा था कि वह यात्रा में अटैची को उपने पास ही रखेगा. इसी वजह से उस ने उसे में ताला भी नहीं लगाया था. पूरी यात्रा में उस को यही  चिंता सताती रही कि कहीं उस के सामान की चोरी ने हो जाए. उस को अत्यधिक चिंतित देख कर मामा ने उस को बताया कि सब यात्रियों का सामान अंतरिक्ष शटल के सामान कक्ष में बंद है. वहां अब कोई नहीं जा सकता, पर  शिखर की चिंता कम न हुई.
अंत में वे अंतरिक्ष नगर पहंच गए. शटल से उतरने के बाद उन्होंने थोडी दे अंतरिक्ष स्टेशन में इंतजार किया. जल्दी ही यात्रियों का सामान आ गया. मामाजी ने टोकन दे कर अपनी अटैची ले ली. शिखर से रहा नही गया. उस ने उपनी अटैची देखने के लिए ज्यों ही उस को उठाया, चौंक गया. अटैची एकदम हलकी  की. घर  में उसे अटैची उठाने में बहुत परेशानी  हो रहीं थी. पर अब तो अटैची एकदम खाली थी.
वह जोर से चिल्लाते हुए मामाजी से बोला, ”मैं ने कहा था न... यह देखिए, मेरा सामान अंतरिक्ष यान में चोरी हो गया“ है कहतेकहते उसे की आंखों से आंसू टपकने लगे.
”क्या हुआ, बेटे?“ मामाजी ने घबरा कर पूछा. उन को समझ में नहीं आया कि शिखर को चोरी का पता कैसे चता है, क्योंकि अटैची तो अभी खोली नहीं गई.
उन्होंने पूछा, ”क्या खो गया है?“
”अभी बताता हूं?“ सुबकते हुऐ उस ने कहा. फिर अटैची खोली तो देखा कि सामान ठीक वैसे का वैसा ही रखा हुआ है. वह आ’चर्यचकित था. उस ने अटैची बंद की. फिर दोबारा उस को उठा कर देखा अटैची बहुत हलकी थी.
उस ने अटैची को ले कर चलने की कोशिश की तो पाया कि वह उस को आराम से ले कर चल सकता है. शिखर हैरानी से अटैची को देखने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इतनी हल्की कैसी हो गई है.
अंत में वे अंतरिक्ष नगर पहुँच गए. शटल से उतरने के बाद उन्होंने थोडी दे अंतरिक्ष स्टेशन में इंतजार किया. जल्दी ही यात्रियों का सामान आ गया. मामाजी ने टोकन दे कर अपनी अटैची ले ली. शिखर से रहा नही गया. उस ने उपनी अटैची देखने के लिए ज्यों ही उस को उठाया, चोंक गया. अटैची एकदम हलकी  की. घर  में उसे अटैची उठाने में बहुत परेशानी हो रहीं थी. पर अब तो अटैची एकदम खाली थी.  वह जोर से चिल्लाते हुए मामाजी से बोला, ”मैं ने कहा था न... यह देखिए, मेरा सामान अंतरिक्ष यान में चोरी हो गया“ है कहते कहते उसे की आंखों से आंसू टपकने लगे.  ”क्या हुआ, बेटे?“ मामाजी ने घबरा कर पूछा. उन को समझ में नहीं आया कि शिखर को चोरी का पता कैसे चता है, क्योंकि अटैची तो अभी खोली नहीं गई थी .             उन्होंने पूछा, ”क्या खो गया है?“ ”अभी बताता हूं?“ सुबकते हुऐ उस ने कहा. फिर अटैची खोली तो देखा कि सामान ठीक वैसे का वैसा ही रखा हुआ है. वह आ’चर्यचकित था. उस ने अटैची बंद की. फिर दोबारा उस को उठा कर देखा अटैची बहुत हलकी थी. उस ने अटैची को ले कर चलने की कोशिश की तो पाया कि वह उस को आराम से ले कर चल सकता है. शिखर हैरानी से अटैची को देखने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था  कि वह इतनी हल्की कैसी हो गई है. फिर उस ने मामा जी की ओर देख कर कहा , ”सामान तो सही सलामत है, पर मेरी अटैची बहुत हलकी  हो गई है. घर से चलते वक्त मैं अटैची को ठीक से उठा भी नहीं पा रहा था, पर अब मैं इसे आराम से ले कर चल सकता हूं. क्या मैं ज्यादा ताकतवर हो गया हूँ ?“ मामाजी खिलखिला कर हंस पडे, शिखर ने देखा कि कई यात्री व अंतरिक्ष स्टेशन के कर्मचारी भी उनके साथ हंस रहे हैं उसे समझ में न आया कि इस में हंसने की क्या बात हैं. मामाजी व शिखर अपने घर की ओर चल दिए. रास्तें में मामा ने समझाया, ”बेटे, चुंबक की तरह पृथ्वी हर चीज को अपनी ओर खींचती हैं, जिस के कारण हम को वस्तु का भार महसूस होता हैं पृथ्वी से दूरी बढने पर यह खिचाव कम होता जाता है और वस्तु हलकी होती जाती है. यह खिचाव यहां अंतरिक्ष स्टेशन में धरती के मुकाबले बहुत कम है... इसीलिए यहां हर चीज पृथ्वी के मुकाबले बिना भार की मालूम होती है. यही कारण है कि तुम्हें अपनी अटैची इतनी हलकी लग रहीं है.“ शिखर ने कुछ और चीजों को भी उठा कर देखा तो पाया कि हर चीज बिना भार की है. अदभुत  शांति
अंतरिक्ष स्टेशन  पर जगह जगह टीवी परदे लगे हुए थे, जिन में उड़ान से संबंधित विभिन्न सूचनाएं दी जा रही थीं. बीचबीच में में उद्घोषिका महत्वपूर्ण सूचनाओं को अलग से बाता रहीं थी. एकाएक स्टेशन में लगे टीवी परदों में आपातकालीन सूचना प्रसारित होने लगी. सूचना के अनुसार, एक कर्मचारी को दिल का दौरा पडा था, अतः ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर को तुरंत बुलाया जा रहा था सूचना लगातार प्रसारित हो रहीं थी. ऐसा लगता था कि ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर किसी उन्य मरीज को देखने में व्यस्त है, जिस के कारण उस को आने में देर हो रही है. तभी शिखर  की नजर एक बड़े से बोर्ड के ऊपर गई, जिस पर लिखा थाः ‘चेतावनी,  यात्रियों को चेतावनी दी जाती है कि वे अपने अंतरिक्ष सूट को ठीक प्रकार से पहन लें. सभी यात्री दरवाजे को पार करते ही खुले अंतरिक्ष में प्रवेश करने जा रहे है अतः अंतरिक्ष  स्टेशन  व अंतरिक्ष नगर को जोडने वाले पुल पर चलते समय वे कदापि अपने  अंतरिक्ष सूट को ने खेलें बिना अंतरिक्ष सूट के अंतरिक्ष पुल पर प्रवेश  करना मृत्यू को आमंत्रण देने के समान हैं.आज्ञा से, अन्तरिक्ष स्टेशन निदेशक. शिखर  ने देख कि सभी यात्री अपने अपने अंतरिक्ष सूट ठीक प्रकार से बांध रहे है. मामाजी ने उस का सूट भी ठीक कर दिया टीवी परदों पर अभी भी उद्घोषिका ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर को तुंरत  मरीज तक पहुंचने का निवेदन कर रही थी. मामाजी ने अंतरिक्ष सूट को बांधते हुए शिखर  को बताया कि अन्तरिक्ष नगर व  अन्तरिक्ष स्टेशन आपसे में एक पुल से जुडे हुए हैं. दरवाजे को पार करते ही वे अन्तरिक्ष में बने इस पुल पर प्रवेश  करेंगे. अतः वह पुल से एकसाथ अन्तरिक्ष नगर व स्टेशन को देख सकेगा. मामाजी का हाथ पकड कर शिखर  ने ज्यों ही पुल में खुलने वाले दरवाजे को पर किया कि उस को अजीब सा महसूस हुआ उसे समझ मे नहीं आया कि एकाएक यह क्या हो गया है? वहां कोई शोर  और आवाज न थी, बल्कि   अदभुत शांति  थी. ऐसी शांति,  जो उस ने कभी महसूस नहीं की थी. ‘अरे, मेरे कानों को क्या हो गया?, शिखर  मन नही मन बुदबुदाया उसने मामाजी से घबरा कर कहा मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है मुझे क्या हो रहा हैं?  पर मामाजी पर उस की बात का कुछ  भी असर न हुआ वह सीधे चलते ही रहें. शिखर  ने उनसे चिल्ला कर फिर कहा. उस  को लगा कि वह चिल्ला तो  रहा है.  पर आवाज नहीं हो रही. ‘क्या कानों के साथ मेरी आवाज भी गायब हो गई?, उस ने सोचा  कि वह नाहक ही अंतरिक्ष नगर चला आया. उस की आवाज व सुनने की शक्ति,  दोनों ही समाप्त हो चुकी हैं उसने सामने की टीवी स्क्रीन पर देखा. उद्घोषिका की आवाज भी उस को सुनाई नहीं दे रही थी. पर स्क्रीन  पर लिख आ रहा थाः  ‘डाक्टर, आप तुरंत हार्ट अटैक के मरीज को देखने के लिए पहुंचें. मरीज की हालत बहुत चिंताजनक है.’ तभी शिखर  ने देखा, उनके अंतरिक्ष शटल का चालक उनकी ओर बड़ी तेजी से चला आ रहा है. चालक ने उनके आगे चलने वाले एक लंबे खूवसूरत व्यक्ति को जोर से झंझोडा. उस व्यक्ति ने जब पलट कर देखा तो चालक ने उस के हाथ में एक कागज थमा दिया. पुल के उपर का एकाएक यातायात थम गया. जगह कम होने के कारण लोग आगे नहीं बढ सकते थे. जब वह व्यक्ति कागज को पढ रहा था तो शिखर ने भी उचक कर देखा कागज पर लिखाथाः   ‘कर्नल कृपाल,   स्टेशन में ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर किसी अन्य मरीज को देखने में व्यस्त हैं. हमारे कंप्यूटर में उपलब्ध सूचना के आधार पर यह मालूम हुआ है कि पूरी अंतरिक्ष स्टेशन में आप ही एक मात्र डाक्टर हैं. यदि आप बुरा न मानें तो कृपया हार्ट अटैक के मरीज को प्राथमिक चिकित्या देने की कृपा करें. हमारा विश्वाश है कि सेना के अनुशासित  डाक्टर होने की वजह से आप हमें निराश  नहीं करेंगें.’ शिखर ने देखा कि कर्नल कृपाल ने सहमति से आपना सिर हिला दिया. एकाएक पुल पर लगी बेल्ट उलटी दिशा  में चलने लगी यात्री फिर अंतिरिक्ष स्टेशन पर वापस पहुच गए. दरवाजे को पर करते ही शिखर  चोंक उठा.  उस के कान व आवाज फिर ठीक हो गई थी उस को स्टेशन का कोलाहल और लोगों की बातचीत फिर सुनाई देने लगी. उस ने अपनी समस्या के बारे में मामा जी को बताया तो वह मुसकराए और बोले, ”मैं तो तुम को बताना भूल ही गया था. यह अनुभव तो अंतरिक्ष में सभी को होता है. आवाज को एक जगह से दूसरी जगह तक जाने के लिए किसी न किसी चीज की जरूरत होती है. यह चीज हवा, पानी या फिर कोई तार भी हो सकता है, जो कि दोंनों जगहों को आपस में आपस में जोडता हो. अंतरिक्ष के चारों ओर हवा या अन्य कोई चीज तो है नहीं. इसलिए न तो तुम कोई आवाज सुन सके और न ही कोई तुम्हारी बात सुन सका.  पृथ्वी पर चारों ओर हवा होती, जिस के कारण ही आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती है अंतरिक्ष में हम पृथ्वी की भांति बातचीत नहीं कर सकते.“ ”पर मामाजी हम इस समय भी तो अंतरिक्ष में ही स्टेशन के अंदर हम पृथ्वी की भांति ही कैसे बातचीत कर पा रहे है?“   ”क्योंकि अंतरिक्ष स्टेशन में भी पृथ्वी भांति ही हवा है, जिस के कारण आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा पा रही है इसी के कारण हम बातचीत कर पा रहे है.“  कर्नल कृपाल को अंतरिक्ष स्टेशन में छोडने के बाद सभी यात्री दोबारा अंतरिक्ष नगर जाने के लिए तैयार  हो गए.अंतरिक्ष नगर
पुल से शिखर ने देखा कि अंतरिक्ष यान स्टेशन, विक्रम साराभई अंतरिक्ष नगर के एक कोने में स्थित है. उस समय स्टेशन सूर्य के प्रकाश  से जगमगा रहा था. अंतरिक्ष पुल पर भी दोपहर जैसा प्रकाश   फैला हुआ था. एक छोटे से दरवाजे से गुजरते हुए उन्होंने अंतरिक्ष नगर में प्रवेश किया शिखर  को लगा कि बातावरण में एकाएक बदलाव आ गया है. मामाजी ने उसे अंतरिक्ष सूट उतारने को कहा. उन्होंने  बताया कि अंतरिक्ष नगर के अंदर पृथवी की भांति  ही बनावटी वातावरण बनाया गया है अतः अंतरिक्ष सूट की आवश्यकता  अब नहीं है. ”बनावटी वातावरण?“ शिखर  ने आश्चर्य  से पूछा, ”इसका क्या मतलब होता है?“ ”बेटे, धरती पर हमारे चारों ओर हवा होती है. इस हवा से हम आक्सीजन नाम की गैस लेते है. यह गैस हमारे जीवन के लिए जरूरी है अन्यथा हमारा दम घुट जाएगा और हम मर जाएंगे. इस के अलाबा हमारे चारों ओर का वातावरण न तो  बहुत ठंडा  होना चाहिए और न ही बहुत गरम... ”मामाजी ने कहा.  शिखर  ने बात काट कर कहा, ”इस का मतलब अंतरिक्ष नगर में इन सब बातों की व्यवस्था की गई है यहां हवा के साथ साथ हमारे शरीर  के हिसाब से ताप भी निश्चित  रखा जाता  है.“ ”बिलकुल ठीक. पर इस के साथ एक और बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है... वह है हवा का दबाव. धरती की सतह से काफी उंचाई तक हवा फैली रहती है. यह हवा हमें चारों  ओर से एक निश्चित  ताकत से दबाती है वैसा ही दबाव हमें अंतरिक्ष में भी बनाए रखना पड़ता है.“ ”पर मामाजी. आप ने यह तो बताया ही नहीं कि हम अंतरिक्ष सूट क्यों पहनते है?“ ”अंतरिक्ष सूट 2 प्रकार से हमारी सहायता करता है. इस के अंदर  आवश्यक  हवा का दबाव बनाए रखा जाता है ताकि हमें अंतरिक्ष में किसी प्रकार की परेशानी  न हों “  ”और यह दूसरी तरह से हमारी सहायता कैसे करता है?“ शिखर  ने पूछा.             ”बेटे, सूर्य की किरणें में पराबैगनी नामक किरणें भी होती है, जो हमारे “’शरीर के लिए नुकसानदायक हैं. अंतरिक्ष सूट उन से भी हमारे “शरीर की रक्षा करता है.“ बातचीत करते हुए शिखर और मामाजी काफी दूर चले गए. शिखर  ने पाया कि अंतरिक्ष नगर उपर की ओर से पूरी तरह से किसी पारदर्शी  प्रकार  जैसी वस्तु से ढका हुआ है. सूर्य की किरणें उस से छन कर  अन्दर आ रहीं थी. मामाजी ने बताया कि इन पारदर्शी से सूर्य का मात्र वही प्रकाश अंदर आ सकता है, जो जीवन के लिए हानि रहित है. ”इस का मतलब सूर्य का पराबैगनी प्रकाश अंतरिक्ष नगर के अन्दर नहीं आ पा रहा है“ शिखर ने पूछा. ”बिलकुल ठीक“ ”पर इन  शीशों बीच में  विशेष प्रकार के  शीशों की कतार क्यों हैं?“ मामाजी बोले, ”यह सूर्य के प्रकाश से बिजली पैदा करने वाले उपकरण है इन्हें सौर सेल कहते है. अंतरिक्ष में इन्हीं की सहायता से बिजली पैदा की जाती है“ शिखर को  बिजली बात सुन कर एक बात याद आई. उस ने पाया कि पूरे अंतरिक्ष नगर में कहीं पर भी प्रकाश  की कोई व्यवस्था  दिखाई नहीं दे रहीं. रास्ते में भी बल्ब व ट्यूबलाइटे कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं.  अभी वह इस बारे में प्रश्न  पूछने ही वाला था कि मामाजी ने कहा, ”शिखर  हमारा घर आ गया है. वह देखो, छत पर कौन बैठा है?“   शिखर  ने सिर उठा कर देखा सामने छत पर बैठे कनी और रजत मुस्करा रहे थे. दोंनो ने चिल्ला कर कहा, ”मां, शिखर आ गया है.

शिखर कि अंतरिक्ष यात्रा भाग-2
कब रात होगी
उन की आवाज सुन कर मामी भी घर से बाहर आ गई.शिखर ने उनके पैर छुए ही थे कि रजत ने आवाज लगाई, ”शिखर, छत पर आ जाओ. “ ”पर कहां से ? मुझे तो सीढियां दिखाई नहीं दे रहीं . ”उछल कर छत पर आ जाओ. तुम आराम से यहां पहुंच जाओगे , “ कनी ने मुसकरा कर कहा. ”उछल कर ?“ शिखर ने आश्चर्य से पूछा पृथ्वी के मुकाबले मकान की छत की ऊंचाई काफी कम थी पर इतनी कम भी न थी कि वह उस ऊंचाई तक उछल सकता. रजत समझ गया कि शिखर आ’चर्यचकित है. इस लिए वह बोला कि वह कूद कर नीचे आ रहा है. तभी शिखर घबरा कर बोला ”देखिए मामाजी, रजत छत से नीचे कूद रहा है.“ अभी वह बात पूरी भी न कर पाया था कि रजत कूद कर उस के पास आ गया और फिर एकाएक दोबारा उछल कर छत पर जा पहुंचा. तब रजत बोला, ”शिखर. तुम यहा काफी ऊची छलांग लगा सकते हो आओ, तुम भी आराम से छत पर पहुंच जाओगे“ शिखर समझ गया. उस का भार अंतरिक्ष में कम हों गया था, जब कि उसकी ताकत उतनी ही थी. पृथ्वी में वह छोटे पत्थर को बडे पत्थर के मुकाबले ज्यादा दूर फेंक सकता था. वह यहां पृथ्वी के मुकाबले में ज्यादा ऊचाई या दूरी तक कूद सकता है. अंतरिक्ष नगर में खाना खाने के बाद शिखर बहुत देर तक मामा - मामी, रजत व कनी से बातें करता रहा. फिर रजत और कनी सोने चले गए. शिखर को लगा कि वह भी थक गया है. धूप तब भी पूरी तेजी से पड. रही थी. उस ने मामा से पूछा, ”रात कब होगी? मैं तो बहुत थक गया हूँ “ मामाजी खिलखिला कर हंस पडे वह घडी  को देखते हुए बोले ”इस समय रात के 12 बज रहे है़,“ फिर वह उसे मकान के तहखाने में बने कमरों में ले गए. शिखर ने पाया कि वहां ठीक रात जैसा वातावरण हो रहा है. और तो और फ़र्श में लगी खिड.की  से दूर आसमान में तारे चमकते दिख रहे थे. आश्चर्य, ऊपर तेज धूप थी और नीचे घनघोर अंधेरे में चमकते हुए तारे. उसे आश्चर्यचकित देख कर मामाजी बोले, ”अंतरिक्ष नगर के ऊपरी हिस्से का मुंह सदा सूरज की ओर रहता है. इसीलिए वहां पर सदा दोपहर रहती है. यह अंतरिक्ष नगर का पिछवाड.ा है. इस ओर सूरज का प्रकाश न पहुँचने से यहां हरदम अंधेरा रहता है. इसलिए अंतरिक्ष नगर में हर पल रात है और हर पल दिन है. “ मामाजी की बात सुन कर शिखर हैरान रह गया उसे समझ में आ गया कि अंतरिक्ष नगर की सड.कों में प्रकाश व्यवस्था क्यों नहीं है जब पूरे अंतरिक्ष नगर में कभी रात होती ही नहीं है तो फिर सड.कों पर ट्यूब लाइट या बल्ब लगाने की जरूरत ही कहां है? शिखर मन ही मन मुसकरा उठा,


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सोमवार, 12 जनवरी 2009

कहानी : हेम चन्द्र जोशी :अगली सुबह




अगली सुबह

मेरे घर की चहारदीवारी कुछ नीची है। इसीलिए सड़क में आने-जाने वालों को मैं आसानी से देख लेता हूँ । इस चलती सड़क पर न जाने कितने अपरिचित होते हुए भी जाने पहचाने से हो जाते है।

उन्ही में से एक वह लड़का भी था। मैला कुचैला सा। अपनी पीठ पर एक बड़ा झोला लिए वह अक्सर मुझे कुडे़ के ढेर में से चींजे बटोरते हुए दिखाई देता था। उसके चेहरे के पीछे कभी भी असंतोष नहीं दिखाई देता था । उसकी तेज चमकदार आंखें बड़ी सर्तकता के साथ सड़क पर पड़े कूडे. का निरीक्षण करते हुई बढ. जाती थी। एक यंत्र की भांति कार्य करते हुए लोहा, प्लास्टिक आदि के टुकडों को वह फुर्ती से समेटता पल भर में आगे बढ. जाता था। जाड़ों की ठिठुरन भरी सुबह को जब वह नंगे पांवों सड़क पर चलता हुआ मुझे दिखाई देता था तो पता नहीं क्यों सर्दी की सिरहन का ऐहसास मेरे मन में हो जाता था। उम्र में वह मुझसे चार-पांच वर्ष छोटा होगा। शायद दस-ग्यारह साल का ।

उस साल दीपावली से पहले ठंडक कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी। मेरी जिद के कारण पिता जी ने दीपावली से पहले ही मेरे लिए दीपावली के पटाखें खरीदवा दिए। एक दिन तो मैं पटाखों की रंगबिरंगी पन्नीयों को देख कर खुश होता रहा। कल्पना में ही बम, फुलझड़ी व अनार चलाता रहा। पर दिल कब तक मानता ? आखिरकार मै जमींन पर पटक कर बजाने वाले कुछ ’ आलू बम’ लेकर बाहर आंगन मे आ ही निकला।

मै अभी दो-चार बम ही जमीन पर पटके थे कि उनके धमाकों की आवाज को सुनकर मेरे मकान की चहार दीवारी के निकट दो मैले कुचैले बच्चे आ खडे हुए। उनमें से छोटा वाला वही लड़का था जिसको मै अक्सर कचरा बीनते हुए देखता था। दोनों बड़ी ही हसरतों के साथ मेरे बमों को एक टक देखने लगे। जमीन में पटकने पर मेरे एक दो बम बिना आवाज करे ही एक ओर लुढ़क गऐ शायद वे खराब बम थें। जब मैं घर के अन्दर जाने लगा तो उनमें से छोटा वाला लड़का धीमी आवाज में बोला ’ बाबू जी, क्या मै गिरे हुए बम बीन लूँ ?’ मै ने लापरवाही से कहा कोई भी अच्छा बम गिरा हुआ नहीं है। पर वह नहीं माना। हार कर मैने उसको आज्ञा देदी। क्षण भर में वह हिरन की भांति कुलाचें मारता हुआ चहार दीवारी को फांद कर हमारे आंगन में आ पहुंचा और उसने उन बमों कों उठा लिया जो धामाका नहीं कर पाए थे। पता नहीं कितनी देर से वह टकटकी लगाए उन बमों पर निगाह गड.ाऐ हुए था। मैने हँस कर उससे कहा कि वह सब बेकार बम है। पर वह नहीं माना। उसने मेरे सामने ही एक बम को दीवार पर मारा जो एक धमाके के साथ गूंज उठा। उसकी आंखों में संतुष्टि से भरी एक अद्वितीय चमक बिखर उठी। बचे दो बमों को लेकर वह अगले ही पल दीवार कूद कर दूसरी ओर चला गया। शायद उसे शंका थी कि मै उन्हें वापस न ले लूं। मैने देखा कि उसने वह बम अपने साथी के हाथों में थमा दिये। अब उसके साथी के चेहरे पर भी चमक थीं। तीन बमों को पाकर कोई इतना खुश हो सकता है। यह मैं सोच भी नहीं सकता था। मै तो ढेर सारे पटाखों को पाकर भी संतुष्ट न था। मेरे पूछने पर पता चला कि वह उसका बड़ा भाई है। कुछ ही पलों में दोनों अपने थैलो को लिए मेरी आंखों से ओझल हो गए।

दीपावली आने को थी, पर घर की सफाई वाला पिछले कुछ दिनों से नहीं आ रहा था। सारा आंगन काफी गंदा हो गया था। एक सुबह पिता जी ने माँ से कहा ’ दिन में किसी से आंगन साफ करवाने की कोशिश करना। आँगन बहुत गंदा हो रहा है। ’ 

उसी दिन जब मै बम चला रहा था कि एक लड़का हमारी दीवार पर आ खडा हुआ। मेरे दिमाग में एक बात आई। मैने लडके से पूछा ’ क्या आंगन में से बम बीनने हैं ? ’
 उसने खुशी से हामी भरी। मैंने उससे कहा कि वह सारे आंगन की झाडू. लगा कर सारा कूड़ा घरसे बाहर इकटठा कर ले और बमों को बीन ले। वह मेरी बातों से सहमत हो गया। मैने अन्दर से लाकर उसके हाथ में एक झाडू. थमा दी। वह काफी देर तक आंगन को साफ करता रहा और ढेर सारा कूड़ा घर के बाहर ले गया। फिर कुछ देर तक कूडे. में बमों को ढूढने के बाद उसने रूआंसी आंखों के साथ अपने सिर को उपर किया। उसके हाथ में एक भी बम नहीं था। उसने धीमीं आवाज में कहा ’ बाबू जी आज तो एक भी बम नहीं मिला। ’ उसके चेहरे को देखकर मुझे तरस आ गया। मैंने चार बम उसके हाथ मैं रख दिऐ। वह प्रसन्न हो उठा। मैने उससे कहा कि यदि वह दीपावली की रात को आयेगा तो मैं उसे कुछ और बम दूंगा । अगले ही पल वह कूदता फांदता चल पडा।

शाम को पिता जी आये । उन्होंने आंगन को साफ सुथरा देखकर घर में पूछ-ताछ की। मां को इस विषय में कुछ भी पता नहीं था। अतः मैने डरते-डरते सारी घटना पिता जी को बताई। मुझे डर था कि पिता जी इस बात से नाराज होगे कि मैने उस बच्चे को चार बम दे डाले है। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

पिता जी ने कहा ’ बेटा, हमको कम से कम दस रूपये इस काम के लिए देने पड़ते। तुमने तो मात्र दो रूपये के बमों में यह सब काम इतनी सफाई से करवा डाला है। अगर वह लड़का तुम्हे फिर दिखे तो तुम उसे कम से कम पांच रूपये के बम खरीद कर दे देना। वह बहुत खुश होगा।
 ’
अगले दिन मै उसका इन्तजार करता रहा। फिर दीपावली की शाम भी आ गई पर वह लड़का मुझे नहीं दिखाई दिया।

मैने पिता जी से मांगकर दस रूपये के पटाखें खरीद कर उसके लिए रखे हुए थे। दीपावली की रात पटाखों के धमाके होते रहे, फुलझड़ी व अनारों की रोशनी होती रही। पर वह नहीं दिखायी दिया। मैने मन ही मन यह सोच लिया कि वह भी अपने घर दीपावली मना रहा होगा।

दीपावली की अगली सुबह मैं अपनी आदत के अनुसार सूरज उगने से पहले घुमने के लिए घर से बाहर निकला। मैंने देखा कि सुबह के अंधेरे में दूर से कोई चला आ रहा है। 


पास पहुचने पर मैंने पाया कि वही लड़का कंधे में थैला लटकाये कूड़ा बीन रहा है। मैं सोच भी नही सकता था कि वह इतनी सुबह मुझे इस प्रकार मिल सकता है। अपने उन्हीं फटे पुराने कपडों में। जैसे कि दीपावली के त्यौहार का उसके लिए कोई महत्व ही नहीं रहा हो। हजारों रूपये की आतिंशबाजी व पटाखों का मलवा सड़क पर बिखरा हुआ था। पर उसके जीवन में कोई फर्क नहीं था। मैने उससे पूछा ’ कल दिन भर तुम कहाँ रहे ?मै देर रात तक तुम्हारा इंतजार करता रहा। कैसी रही तुम्हारी दीपावली ? कल रात को तुमने आतिशबाजी का खूब मजा लूटा होगा। ’ 

वह झिझक कर बोला ’ बाबू जी कल रात आप के दिये चार पटाखों से दीपावली मना ली थी। फिर मां ने जल्दी सुला दिया। मुझे आज सुबह काम पर जल्दी जो निकलना था। मालूम है मां हमको दीपावली की रात को सदा जल्दी सुला देती है ताकि हम सबसे पहले उठ कर ढेर सारा लोहा बीन सकें । आप बडे. लोग दीपावली की रात को ढेर सारी फुलझडिया जलाते हैं और मै अगले दिन उन सब फुलझडियों के तारों को इकट्रठा कर लेता हूँ । सच हमारा त्योहार तो आज होगा क्योंकि आज मैं और दिनों के मुकाबले ज्यादा सामान इकटठा कर पाउंगा। 


मै उससे और अधिक बातें करना चाहता था। मैने उससे कहा कि वह मेरे साथ चलकर अपने पटाखे ले ले। पर वह तैयार नहीं हुआ। उसने शाम को आने का वायदा किया। जाते-जाते उसने कहा ’ बाबू जी दीपावली की सुबह साल में एक बार आती है। आज का समय बहुत कीमती है। देरी हो जाने पर कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।’ कहता हुआ वह आगे निकल गया।

मै ठगा सा सड़क पर खडा रह गया। सब लोग दीपावली की रात का इंतजार करते हैं। पर यहाँ मेरी आंखों से ओझल होता हुआ वह लड़का भी था जिसने दीपावली की अगली सुबह का इंतजार किया था।


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शनिवार, 10 जनवरी 2009

पापा क्यों रोये ? A hindi story by Hem Chandra joshi


पापा क्यों रोये ? 


पिछले कई महीने से मैं व विक्की, पापा से एक ही मांग किये जा रहे थे । उधर पापा थे कि सदा हामी भर देते थे और आश्वासन दे देते थे कि अगले महीने वेतन मिलते ही हमारी मांगों को जरूर पूरा करे देंगे। हमारी मांग भी छोटी-मोटी थीं । मुझे अपनी मित्रों की भांति स्केटिंग के लिए रौलर स्केट और विक्की को गाना सुनने केलिए एक सस्ता सा वाकमैन चाहिए था। हमारे विचार से 1000- रूपये में दोनों काम हो जाने थे। तो फिर पापा क्या हमको 500- 500 रूपये नहीं दे सकते थे ? यही बाते अक्सर हम दोनों भाईयों के बीच हुआ करती थी।
 मई के महीने में हम दोनों का रिजल्ट निकला। मैं और विक्की दोनों अपनी-अपनी कक्षाओं में प्रथम आऐ थे । हमारा विचार था कि पापा प्रथम आने की खुशी में हम दोनों को लम्बे समय से अपेक्षित उपहार देगें। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पापा ने बाजार ले जाकर हमको एक छोटी सी दावत दी और हम वापस आ गए। रात को खाने के बाद मै और विक्की अपने कमरे में सोने के लिए पहुंचे । बिस्तर में लेटे-लेटे हम दोनों के बीच लम्बी बातचीत हुई। विक्की का विचार था कि पापा झूठे आश्वासन दे रहे हैं और वे वाक्मैन व रौलर स्केट खरीदने वाले नहीं हैं। पर मेरा विचार था कि पापा अपने काम की अधिकता के कारण अपना वायदा भूल गये है। फिर क्या किया जाये ? यही प्रश्न हम दोनों एक दूसरे से कर रहे थे। पर समाधान किसे के पास नहीं था। काफी विचार-विमर्श के बाद हम दोनों ने निणर्य लिया कि जून के महीने की पहली तारीख को हम पापा के सामने अपनी बात एक बार फिर रखेगें। हम दोनों का मानना था कि यदि जून में हमारी मांगें पूरी नही हो सकी तो फिर जुलाई में मांगों का पूरा होना सम्भव नहीं होगा। जुलाई में तो हमारी किताबें, फीस आदि का ढेर सारा खर्चा होने वाला था। 
प्रोग्राम के अनुसार जून की की पहली तारीख को जब पापा आफिस से वापस लौटे तो हम दोनों ने उन्हें घेर लिया। नाश्ता पानी के बाद मम्मी की अनुपस्थिति को मौका देखकर हमने पापा के सामने हमने अपनी फरियादें दोहरा दी। पापा अपनी कोई बात कह पाते इससे पहले विक्की ने कहा पापा अब कोई बहाना मत बनाइएगा। यदि नहीं खरीदना है तो मना कर दीजिएगा। इन्तजार करते-करते हम बोर हो गए है। उधर हमारे दोस्त हमको झूठा समझकर रोज चिढ़ाते है।
 पापा कुछ नहीं बोले और मुस्कुरा दिए। फिर बोले- ’तुम ठीक कह रहे हो। यदि इस महीने भी मैने तुम्हारा सामान नही खरीदा तो शायद मै अगले महीनों में भी तुम्हारा रोलर स्केट व वाक्मैन नही खरीद पाउँगा। जो होगा देखा जाऐगा। ये लो पांच-पांच सौ रूपये।’ पापा ने बटुए से नोट गिनते हुए कहा। 
हम दोनो की सर्तक निगाहे पापा की अगुलियों के बीच फिसलते हुए नोटों पर थी। रूपया मिलते ही हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और आँखों ही आँखों में अपनी सफलता के लिए एक-दूसरे के लिए बधाई दीं। योजना के अनुसार मम्मी के आने से पहले ही हमारा काम हो चुका था। पापा से रूपए लेकर हम दोनों अपने कामों में व्यस्त हो गए। होमवर्क करने के बाद हम सोने चले गए। बिस्तर में लेटे-लेटे मिक्की ने मुझसे प्रश्न किया भैया, पापा ने जो होगा देखा जाएगा क्यों कहा होगा ? मै उनकी बात समझ नही पाया। ’
 अरे, यो ही कुछ सोच रहे होगें। चल अब सो जा।’ मैंने ऑंखें बन्द करते हुए उत्तर दिया। ’
भय्या, जरा बाथरूम तक मेरे साथ चलिए, मुझे अकेले डर लग रहा है।’ मिक्की ने मुझसे अग्रह किया। 
हम दोनों कमरे से बाहर निकले। पापा के कमरे में हल्की रोशनी जली हुई थी। पापा, मम्मी से कह रहे थे। ’स्कूटर के दोनों टायर व ट्यूब खराब हो चुके है। कभी भी फट सकते हैं । सोचा था इस महीने बदलवा डालूँगा पर बच्चों की बात टाल नहीं सका। अब इस महीने बस से ओफिस चला जाऊंगा क्योंकि यदि चलते-चलते टायर फट गया तो एक्सीडेन्ट भी हो सकता है। अब ज्यादा रिस्क लेना ठीक नहीं है।’
 हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और जानबूझ कर एक-दूसरे को अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मानों हमने कुछ सुना ही नहीं हो पता नहीं हम दोनों के मन में न जाने क्या अन्देशा था ? 
दूसरे दिन मिक्की वाक्मैन लेने चला गया और मै रौलर स्केट। पता नहीं कौन कब घर लौटा। हम दोनों को माना एक-दूसरे के घर वापस आने का पता ही नहीं चला। हम दोनों मिले पर मैने जानबूझ कर मिक्की से वाक्मैन के बारे में नहीं पूछा। पर मिक्की ने भी रौलर स्अेक देखने के लिए उतावलापन नहीं दिखाया। न जाने क्यूं ? यह प्रश्न मेरे मन में तब तक कौंधता रहा जब तक पापा नहीं आ गए और वह महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी। 
बस से आने के कारण पापा आज देर से व थके हुए घर लौटें पर वे बहुत प्रफुल्लित थे। चाय पीते-पीते उन्होंने हम दोनों से अपनी-अपनी चीजें दिखाने के लिए कहा। एक बार हम दोनों की आँखें आपस में चार हुई। पर एक-दूसरे की आँखों में क्या था, हम समझ नहीं सके। अपने कमरे में जाने की बजाय मिक्की सीढि़यों के नीचे से कुछ लेकर आया और मैंने भी आलमारी के पीछे से अपना अखाबार में लपेटा पैकेट निकाला। 
हमारे पैकिटों को पापा बोले-’मिक्की का वाक्मैन और तुम्हारे रौलर-स्केट के पैकेट इतने बडे़-बडे़ ? उन्होंने आश्चर्य से पूछा। हम दोनों ने कोई उत्तर नहीं दिया। मै भी मिक्की के पैकेट को देखकर कुछ समझ नहीं पाया।
 ’ तुम दोनों इतने गुमसुम क्यों हो ?’ पापा ने मिक्की का पैकेट अपने हाथ में लेते हुए कहा। पापा ने मिक्की का पैकेट खोला तो मैं चोंक पड़ा . मिक्की के पैकेट के अन्दर और कुछ नहीं बल्कि पापा के स्कूटर का एक टायर व एक ट्यूब था।
 मैंने नम आंखों से भर्रायी आवाज से मिक्की से कहा-’ मिक्की तुमने बताया क्यों नहीं ? तुमने तो टायर खरीदा है।’ मिक्की बस मुस्कुरा भर दिया। पापा ने जब मेरे पैकेट को खोला तो उसमें भी एक टायर व एक ट्यूब ही था।
 ’तुमने भी तो शायद मिक्की को कुछ नहीं बताया, मेरे बेटें।’ पापा ने भर्रायी आवाज में मुझे देखते हुए कहा। ’पापा, मिक्की छोटा है न ! मैं नहीं चाहता था कि उसका दिल टूटे। मेरी इच्छा थी कि मिक्की अपना वाक्मैन जरूर खरीद ले।’ मैंने सुबकते हुए कहा। 
’ आखिर भाई तो मैं आपका ही हूँ न भय्या।’ मिक्की ने मुस्कुराते हुए कहा- ’ मैं भी चाहता था कि आप रौलर-स्केट जरूर खरीद लें ।’
 हम दोनों ने पापा व मम्मी की ओर देखा। दोनों की ऑंखें नम थी। दोनों अंगुलियों से अपने आंसू पोंछ रहें थे ।
 ’ आप क्यों रो रहे है पापा ?’ हम दोनों ने एक साथ प्रश्न किया। 
पापा ने कोई उत्तर न देकर हम दोनों को अपनी बांहों में जकड़ लिया। ’पापा रो नहीं रहे है, बेटे। ये तो खुशी के आंसू है। पापा तो तुमको छोटा-सा बच्चा समझते हैं। वे कभी सोच भी नहीं पाए कि उनके नन्हे बेटे इतने समझदार व लायक है।’ मम्मी ने भी रूंधे गले से कहा।
 हम दोनों भाइयों ने खुशी से हाथ हवा में उठाकर एक-दूसरे से टकराए। फिर दोनों टायरों को जमीन में लुढ़काते हुए स्कूटर के उपर रख आए।


कैंचियों से मत डराओ तुम हमें
हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं
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