शनिवार, 14 अगस्त 2010

Hindi Story: एक नम्बर

एक नम्बर 
कहानी : अनीता जोशी

 

हाईस्कूल में जब मैं कालेज में प्रथम आया तो एकाएक मैं सब की नजर मे आ गया। मेरा आत्म विश्वास बढ.ने के साथ  एक और चीज में भी बढ़ोत्तरी हो गयी । वह था मेरा घमण्ड। अब मैं अपने को कुछ अलग सा समझने लगा था। यह एकाएक कैसे हो गया मुझे पता ही नहीं हुआ। ग्यारहवीं कक्षा में पहुँचने पर सब कुछ बदल सा गया था। कक्षा के बदलने के साथ ही हमारे टीचर भी बदल गये। उन्होंने हमको इससे पहले नहीं पढ़ाया था। किताबें भी काफी मोटी हो गयी थी और विय  काफी कठिन।

पहले ही दिन टीचरों ने कक्षा में हम लोगों के नाम पूछने के साथ-साथ हाईस्कूल में प्राप्त अंको के बारे में भी पूछा। मैंने सभी को बड़े ही गर्व से बताया। मेरे हाव भाव पर किसी ने गौर किया कि नहीं, मैं जान नहीं पाया। पर अंग्रेजी के टीचर राना सर ने शायद मेरी अदा को कुछ अन्यथा ही  लिया। वह बोल पड़े,- “बेटा बहुत ही खुशी  की बात है कि तुमने कालेज में टौप किया है पर कालेज में हाईस्कूल में बच्चे ही कितने थे ? मुश्किल से मात्र दो सौ । अब तुम्हारा मुकाबला उन लाखों बच्चों से होगा  जो मेडिकल एवं इन्जीनियरिंग की परीक्षाओं में बैठेगें। तब पता चलेगा कि ऊँट कितने पानी में है।


मुझे राना सर की बात कतई पसन्द नहीं आयी। मुझे लगा कि उनको मेरे अंको को देख कर शायद कुछ  जलन सी हो गयी । पर क्यों ? मैं समझ नहीं पाया । मैने पाया कि उनका व्यवहार अन्य छात्रों  के प्रति भी कुछ ऐसा ही था। वे बार बार आगाह कर रहे थे कि हाईस्कूल के अंको पर घमण्ड करने की कोई वजह नहीं है।

धीरे-धीरे ग्यारहवीं कक्षा को भी हम पास करे गये। पर राना सर के व्यवहार में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ । वे यदा कदा हम लोगों को धमकाते ही रहते थे। हम लोगों की भी अब उनसे डाँट खाने की आदत सी पड़ गयी।
12वीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते हम लोगों के कुछ पर से निकल आये। हम कुछ उद्दण्ड  भी हो चले । कभी-कभी मौका निकाल कर हम स्कूल की दीवार फ़ाँद कर स्कूल से भाग भी जाया करते थे।

उस दिन फिजिक्स का प्रैक्टिकल था । मैं घर से पढ़ कर  नहीं आया था। इसलिये मेरे लिये प्रैक्टिकल  को समझ कर करना संभव नहीं था। अतः मैंने स्कूल से दीवार फ़ाँद कर भागने की सोच रखी थी। जैसे ही छठे पीरियड के समाप्त होने की घण्टी बजी, मैं चट से दीवार फ़ाँद कर बाहर कूदने को दौड़ा। अभी मैं दीवार पर आधा ही चढ़ा था कि किसी ने पीछे से मुझे नीचे खींच लिया । मैं ने  मुड़ कर देखा तो पाया कि राना सर खडे़ थे। उन्होंने डाँटते हुये मुझसे पूछा  बेटा  कहाँ भाग रहे थे? ”

मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरे मुॅह से आवाज नहीं निकल रही थी कि क्या उत्तर दूँ। घबराहट में मैंं बोल पड़ा-कहीं भी तो नहीं। मैं तो खाली ऐसे ही प्रैक्टिस कर रहा था।


तो फिर यह बस्ता तुम्हारे पीछे क्यों टॅगा है। क्या यह भी प्रैक्टिस कर रहा है तुम्हारे साथ । ” -राना सर ने घूर कर पूछा।

अब मैं निरुत्तर था। तब राना सर ने दोबारा पूछा- किस चीज की क्लास है अब तुम्हारी?“

जी, फिजिक्स का प्रैक्टिकल है। मैंने सिर झुका कर कहा।

पढ़ के नहीं आये थे प्रैक्टिकल इसीलिये भाग  रहे हो क्या ?“ राना सर ने कहा-आ जाओ, मेरे साथ चलो आफिस में।

 मैं समझ गया कि अब मेरी प्रिन्सिपल के सामने पेशी  होने वाली है। मैं सिर झुकाये उनके पीछे चल दिया और मन ही मन  सोचने लगा- इस राना के बच्चे को फिजिक्स की क्या समझ है जो नाहक मेरे पीछे पड़ा है।

 पर वह मुझे लेकर अपने आफिस पहुँच गये और बोले- कौन सा प्रैक्टिकल  था तुम्हारा आजमुझे किताब खोल कर दिखाओ ।” 
आप को क्या समझ मैं आयेगा प्रैक्टिकल?“ -मैंने खीझ कर उनसे कहा।


राना सर मुस्करा दिये। मैंने भी बड़ी बेरूखी से किताब खोल कर उनकी ओर बढ़ा दी ।

राना सर ने पता नहीं सरसरी निगाह से क्या देखा और फिर उस प्रयोग से संबन्धित चार प्रश्नॊ में निशान लगा कर मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा- अब तुम बैठकर इस पाठ को पढ़ो और निशान लगाये चार प्रश्नॊ का मुझे उत्तर दो। इसके बाद मैं तुम्हें छोड़ दुँगा अन्यथा मैं तुम्हें प्रिन्सिपल के पास ले जाऊँगा। जानते हो यह पाठ बहुत महत्वपूर्ण है।
 मैंने मन ही मन राना सर को कोसा और सोचा- अंग्रेजी का टीचर अब हमें फिजिक्स पढ़ायेगा। यही होना तो अब बाकी है।और फिर मन मसोस कर पाठ को पढ़ने लगा और बहुत देर तक पढ़ता रहा। जब तक सब समझ में नहीं आ गया। पढ़ने के बाद मैंने उनसे प्रश्न सुन लेने के लिये  कहा।

तब राना सर ने कहा- अब समय हो गया है किसी और दिन सुनुँगा। पर बताओ तुमको  सब याद हो गया कि नहीं ?“

मैंने सहमति से सिर हिलाया और मन ही मन कहा- बच्चू, तुम क्या समझोगे फिजिक्स के प्रश्न-उत्तर।

समय बीतता गया और राना सर यदा-कदा मुझे उस घटना की याद दिलाते हुये कहते रहते थे कि एक  दिन वे प्रन-उत्तर जरूर सुनेंगे। मैं सहमति से हामी भरते हुये मन ही मन कहता- सर, यह अंग्रेजी का पाठ थोड़ी है जो समझ लेंगे। यह तो फिजिक्स है फिजिक्स।

फिर इण्टरमीडियेट बोर्ड की परीक्षायें हुयीं और मैंने पाया कि उसमें तीन नम्बर का सवाल उसी पाठ से आया था जो राना सर ने मुझसे जबरदस्ती  पढ.वाया था। इससे ज्यादा आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मैंने पाया कि प्री-इन्जीनियरिंग की परीक्षा में भी एक छोटा सा सवाल उसी पाठ से आया था जिसे मैं आसानी से कर गया।

इण्टरमीडियेट का रिजल्ट आया और मैं अच्छे नम्बरों से पास हो गया । प्री-इन्जीनियरिंग  की परीक्षा में भी मैं पास हो गया। जब मैं एडमिन हेतु इन्जीनियरिंग  की काउन्सिलिंग में गया तो मेरा  एडमिन कम्प्यूटर साइन्स में हो गया और वह भी एक अच्छे कालेज में। काउन्सिलिंग में बैठ एक प्रोफेसर ने मुझसे कहा- बेटे तुम बहुत भाग्यशाली हो। यदि तुम्हारा एक नम्बर भी फिजिक्स में कम होता  तो तुमको यह ब्रान्च नहीं मिलती । यह आखिरी सीट थी।

मैंने उनको धन्यवाद  कहा और एकाएक मुझे राना सर की याद आ गयी । काउन्सिलिंग से वापस लौटने के अगले दिन मैं सीधे अपने स्कूल पहुँचा और मैंनें राना सर के पैर छूते हुये सारी बातें बताई और कहा- सर आज मुझे आपके कारण अपनी मन पसन्द ब्रान्च मिल पायी है। पर सर आपको कैसे मालूम चला कि वह  पाठ इतना महत्वपूर्ण है?“

राना सर जोर से हॅस पडे.। फिर अपनी बचपन की बात को याद करते हुये कुछ रुसे हो कर बोले-बेटे, मैं ने भी इण्टरमीडियेट तक साइन्स पढ़ी  है। इन्जीनियरिंग परीक्षा में एक नम्बर कम आने से मेरा एडमिन नहीं हो पाया और मैं इन्जीनियर नहीं बन सका। जानते हो मेरी परीक्षा में इसी पाठ से पॉच नम्बर का सवाल आया था पर मैं ठीक से  पढा न होने के कारण गलती कर गया था।“  मैंने देखा कि उनकी आँखें कुछ नम हो गयी थीं। उन्हें आज भी अपने समय से पढाई न करने की वजह से हुयी चूक से हुयी अपूर्णीय क्षति के लिये दिल के किसी कौने में गहरी टीस थी।
Hindi Story : एक नंबर

शनिवार, 15 मई 2010

Hindi Story: कुन्नू


कुन्नू



घर में मैं सबसे बड़ा हूं पर पिताजी सदा कुन्नू की ही तरफदारी करते हैं। यह कुन्नू की बच्ची घर में सबसे छोटी है पर है सबकी नानी। पिताजी को घर की एक-एक बात की खबर देती है। किसने पढ़ाई की और किसने नहीं। किसने मां का कहना नहीं माना। यह कुछ भी नहीं भूलती है। जासूसों की तरह हम सबकी टोह लेती है और फिर हमारी शिकायत करती है।
मुझे सिनेमा जाने का शौक लगा था। उस दिन मैं स्कूल से जल्दी घर चला गया। मां से मैंने झूठ बोल दिया कि स्कूल में खेल-कूद की वजह से छुट्टी हो गयी है। ठीक ढाई बजे मेरा दोस्त वीरेन्द्र साइकिल लेकर घर पर पहुंचा। वह टिकट खरीद लाया था। मैं जल्दी उससे बातंे करके मां के पास पहुंचा और फिर वीरेन्द्र के साथ निकल गया। पर इस कुन्नू की बच्ची ने पता नहीं कब मेरी व वीरेन्द्र की बातें सुन लीं। फिर शाम को पिताजी के घर आने पर मेरी पोल खोल दी। बस, पिताजी ने इतना डांटा कि मेरी आत्मा कांप उठी।
मुझे लगता था कि घर में सब लोग मुझे अभी बच्चा ही समझते हैं। उस दिन पिताजी बहुत देर तक मुझको समझाते रहे। वे दुःखी थे कि वे मेरे अन्य दोस्तों के माता-पिता की भांति मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते हैं। मैं उनसे पिछले कई दिन से स्कूल ड्रेस की नई पैण्ट सिलवाने के लिए आग्रह कर रहा था। पुरानी पैण्ट अब बहुत खराब हो चुकी थी। उन्होंनेे मुझसे पिछले महीने वादा किया था। वादे के अनुसार इस महीने मेरी नई पैण्ट सिलनी थी। पर अब पिताजी ने इरादा बदल दिया क्योंकि कुéू का जन्मदिन नजदीक था।
रात को मेरा मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगा। पढ़ते समय कुéू मेरे पास आई। उसने मुझे एक बढि़या सा पेन दिया जो उसको आज ही स्कूल में इनाम में मिला था। वह चाहती थी कि मैं उसके पेन से बोर्ड की परीक्षायें दूं। मैंने पिताजी पर आया गुस्सा कुन्नू पर निकाल दिया। उसे जोर से डांट कर भगा दिया। अब मैं सोच रहा था कि मैंने कुन्नू को क्यों डांटा ? वह तो अपना इनाम का पेन मुझे देने आई थी। क्या मेरा व्यवहार उचित था ? क्या मैं कुन्नू की सफलता को देखकर खीझ उठता हूँ ? उसे घर में पिताजी अच्छा मानते हैं और स्कूल में शिक्षक व विद्यार्थी। बेचारी कितने प्यार से अपना पेन देने मुझे आई थी। शायद मैं ऐसे पेन को किसी को न दे पाता। इतना सुन्दर पेन था वह। सोई हुई मासूम कुन्नू के चेहरे को देखकर मैं समझ नहीं पाता कि यह मेरी शिकायत क्यों करती है।
कुन्नू ने अपने जन्म दिन पर फ्राॅक न बनवाने का निश्चय किया। अतः पिताजी ने मेरी पैण्ट सिलने को दे दी। जन्म दिन पर कुन्नू ने अपनी सहेलियों को भी नहीं बुलाया। मुझे समझ में नहीं आता इस कुन्नू को हो क्या गया है। यह दिन पर दिन बदलती जा रही थी। ज्यादातर समय किताबों में ही खोयी रहती थी।
मैंने तब एक नया तरीका निकाला। जब पढ़ाई का मन न हो तो कहानी की किताब पढ़ ली जाए। कहानी की किताब एक बार पढ़ना शुरू करो तो छोड़ने का ही मन नहीं चाहता। काश, मेरा इतना मन कोर्स की किताबों में लग पाता। शायद मां की इच्छा पूरी हो जाती। मैं प्रथम श्रेणी से तो पास हो ही जाता और शायद किसी इंजीनियरिंग कालेज में भी दाखिला मिल जाता। पिताजी को जब पता लगा कि मैं आजकल कहानी की किताबें ज्यादा ही पढ़ने लगा हूं तो वे बहुत नाराज हुए। फिर उन्होंने घर में सभी से कहा कि कोई भी मुझे पढ़ने को न कहे। शायद उन्होंने हार मान ली है। अब मेरे भाग्य में जो बनना होगा वही मैं बनूंगा। मेरे पीछे प्रयत्न करना बेकार है। यही पिताजी का अन्तिम मत है। मैं बहुत दुःखी हुआ। मैंने जी लगाकर पढ़ने का निश्चय कर लिया।
मैंने पिताजी को प्रथम श्रेणी में पास होकर दिखा दिया। इंजीनियरिंग कालेज में मेरा दाखिला भी हो गया। मां- पिताजी बहुत खुश हुए। पर उनको एक ही चिंता थी कि पढ़ाई का खर्चा कैसे चलेगा। घर में मेरे जाने की तैयारियां चल रही थीं। पिताजी इधर-उधर से रुपयो का इंतजाम कर रहे थे। आखिर इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाना कोई आसान काम तो था नहीं। आखिर पैसों का इंतजाम करके मुझे इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने भेज दिया गया।
मैं छुट्टी में घर आया। पिताजी और मां बहुत खुश थे। कुन्नू दौड़ कर मेरे पास आई। अतुल, राकेश व कविता भी आ गई। सभी कालेज के बारे में पूछने लगे। मैंने उनको कालेज की ट्रेनिंग के किस्से एक-एक करके सुनाए।
रात को मैंने पिताजी से बातचीत की। उनको बताया कि उनका दिया खर्चा कम पड़ रहा है। महीने के आखिर में तो खाना खाने के लाले पड़ सकते हैं। कापी, किताबें, हाॅस्टल का खर्चा, चाय-नाश्ता और खाना सभी कुछ महंगा है। मैंने पिताजी से कहा कि पिताजी क्या करूं? ऐसा न हो कि मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़े। पिताजी ने मुझे ढांढस बंधाया। चिंता न करने की सलाह दी। कहा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा।
अतुल ने मुझे बताया कि कुन्नू के पास घर में सबसे ज्यादा रुपए हैं। वह समय-समय पर मिले रुपए जोड़ती रहती है।
शाम को पिताजी घर आए। उन्होंने कुन्नू को बताया कि एक अच्छी साइकिल मिल रही है। यदि वह अपने पास से दौ सौ रुपए दे दे तो वे कल ही उसके लिए साइकिल ले आएंगे। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुन्नू ने पिताजी को रुपए देने के लिए मना कर दिया। जबकि वह पिछले चार महीने से साइकिल की जिद कर रही थी। उसने पिताजी से कहा कि वह अपने दो सौ दस रुपए की पूंजी से मात्रा एक सौ दस रुपए उनको दे सकती है। पिताजी ने उसको बहुत समझाया पर उसने एक न सुनी। मैं भी उसकी जिद को नहीं समझ पा रहा था। पिताजी व कुन्नू बहस कर रहे थे। मैं सोने चला गया। अगले दिन सुबह मुझे वापिस जाना था।
हाॅस्टल में एक दिन मैंने सुबह नाश्ता नहीं किया। सिर्फ खाना खाया। चाय भी एक बार ही पी। चार-पांच तारीख तक पिताजी का मनीआर्डर आएगा। पता नहीं तब तक कैसे काम चलेगा। कालेज में पढ़ाई जोर शोर से चल रही थी। पिताजी के दिए रुपये समाप्त होने जा रहे थे। घर से मनीआॅर्डर आने में भी कुछ दिन बाकी थे।
उस दिन मैंने जैसे ही अपनी किताब का एक पन्ना खोला मैं हक्का बक्का रह गया। किताब में एक सौ का नोट बड़े ही ढंग से चिपका हुआ था। कुन्नू ने नीचे लिखा था कि शायद मेरे रुपए समाप्त हो चुके होंगे। मुझे इन रुपयों की जरूरत होगी। मैं इस महीने इन रुपयों से चला लूं। अगले महीने जरूर कोई दूसरा इंतजाम हो जाएगा। उसकी लिखी बात पढ़कर मेरी आंखे नम हो गई। सच, कुन्नू तुम कितनी समझदार हो। यह बात तो मैं कभी समझ ही नहीं पाया।
अब मुझे समझ में आ गया कि उसने पिताजी को साइकिल खरीदने के लिए रुपए क्यों नहीं दिए थे। कुन्नू ने मेरी आने वाली परेशानी को सोचकर अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग कर दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह कि उसने मेरे और पिताजी के बीच हुई अंतरंग बात को कितनी सफाई से सुनकर किसी को जाहिर नहीं होने दिया और मेरी समस्या का समाधान कितनी सफाई से कर डाला। मैं बहुत शर्मिन्दा हो गया। मैंने सदा उसे बहुत छोटा समझा। उसकी शिकायतों से सदा नाराज रहा। मैं कभी यह समझ ही नहीं पाया कि वह भी बड़ों की तरह मुझे इतना प्यार करती है। मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं उसके सामने बहुत अदना हूं।