शनिवार, 21 जून 2008

सुबह का भुला

सुबह का भूला

मैंने सालों पहले पंडित संपूर्णानन्द से गुस्से में कहा था - ”पण्डितजी, आपने मुझे बेकार में मारा। मैं आपको देख लूंगा आप बिरादरी वालों की तरफदारी करते हैं। आपके लिए यह शोभा नहीं देता।“
तब मेरे हिन्दी के शिक्षक संपूर्णानन्द बिफर कर बोले -”नालायक! मुझसे जुबान लड़ाता है। अरे मूर्ख, इसके साथ तू क्या मुकाबला करता है ? ये नहीं भी पढ़ेगंे तो भी इनका पिता इतनी दौलत छोड़ जाएगा कि ये आराम से जिंदगी बिता लेंगे। यदि तू नहीं पढ़ा तो तू किसी के खेत जोतेगा या फिर सड़क पर मारा-मारा फिरेगा।“ पण्डित जी ने कक्षा के अन्य लड़कों की ओर इशारा करते हुए कहा।
मैं अपमानित हो उठा। लड़के मुझे देखकर हंस रहे थे। मुझे समझ में नहीं आता था कि पण्डित जी मेरे पीछे क्यों पड़ गये थे।
गांव के स्कूल में सालों बाद हम तीन लड़के हाईस्कूल में प्रथम श्रेणी से पास हुए थे। मैंने स्कूल में सबसे ज्यादा अंक पाए थे। शायद इसीलिए पण्डित जी मुझसे नाराज थे। आखिर दूसरी जात का लड़का सबसे ऊँचा स्थान कैसे प्राप्त कर सकता है ? यही विचार शायद पण्डितजी को कचोटता था। उनको कितनी ईष्र्या थी मुझसे। मैं सदा यही सोचता रहता।
मैं पण्डितजी की मार से परेशान था। छोटी-छोटी बातों में वे मुझे मारा करते। कक्षा में सबसे पहले मेरा गृहकार्य देखा जाता। कभी-कभी तो हद ही हो जाती थी। पण्डित जी दूसरे विषयों में अंक कम आने पर भी मुझे मारते थे। बस उनको तो किसी बहाने की तलाश रहती थी।
एक दिन मैंने घर मेंे जिद ठान ली और अपने पिता से कहा- ”बापू, मैं भी आपके साथ काम पर जाऊँगा। मुझे स्कूल में अब नहीं पढ़ना है। पण्डित जी की मार खाते खाते मैं परेशान हो गया हूँ। हम दूसरी जाति के हैं न, इसीलिए पण्डितजी नहीं चाहते कि मैं पढूँ।“
बापू मेरी बात सुनकर अवाक रह गये। उनके अनुसार आखिर ऐसा हो ही कैसे सकता था ? पण्डित जी ने ही तो एक दिन कहा था - ”सुन भैया पालीराम, तुम्हारा बेटा बहुत बुद्विमान है। इसकी पढ़ाई का ध्यान रखना। यह तुम्हारा नाम रोशन करेगा।“
बापू ने कुछ देर सोचकर मुझसे कहा - ”बेटा, ऐसा सोचना ठीक नहीं है। वे बुरे आदमी नहीं है। तुमने जात-पांत की बात सोची कैसे? जाओ, पण्डितजी से माफी मांग कर आओ।“
मुझे क्या सोचना है ? सारी कक्षा यही बात कहती है बापू।“ मैंने मुंह फुलाकर कहा। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बापू का पण्डितजी के प्रति इतना लगाव क्यों है ? तब मैंने मन ही मन प्रण किया - ”ठीक है पण्डितजी जितना मार सकते हो मारो। पर स्कूल में प्रथम इस बार भी मैं ही आऊंगा ? फिर जिस दिन स्कूल छोड़ कर जाऊंगा उस दिन आपको सबसे सामने गालियां दूंगा। आपके सामने सिगरेट पियंूगा। जितनी बदतमीजी हो सकेगी करूंगा। आपको अपमानित कर अपने अपमान का बदला अवश्य लंूगा।“
अपनी पिटाई को मैंने नियति मान ली। पिटाई से बचने के लिए मैं समय से काम करता और ध्यान से पढ़ने लगा। दो साल का समय पलक झपकते ही बीत गया। परीक्षा फल आने में, अभी समय था।एक दिन बापू ने मुझे एक फार्म दिया और कहा - ”बेटा इसे भर के भेज दे। मैं चाहता हूँ तू इंजीनियरिंग में दाखिला ले।“
मैंने फार्म भर कर भेज दिया। कुछ दिन बाद इण्टर का परीक्षाफल आया। मैं प्रथम श्रेणी में पास हो गया। एक बार फिर मैंने कालेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। मैंने कालेज से अंक तालिका लेकर इंजीनियरिंग कालेज को भेज दी। इन्हीं नम्बरों के आधार पर प्रवेश की सूची बननी थी।
फिर एक दिन डाक से एक रजिस्ट्री आई। मुझे इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिल गया था। मैं खुशी से फूला हुआ स्कूल गया। मेरे मन में एक ही चाह थी। मैं पण्डितजी को नीचा दिखा सकूं। इंजीनियरिंग में दाखिला पाकर व स्कूल में प्रथम आकर आधा काम तो हो चुका था। अब मैं पण्डितजी का अपमान करने का एक मौका प्राप्त करना चाहता था। अतः मैं चार-पांच बार कालेज गया। पर मालूम चला पण्डितजी सख्त बीमार हैं। मैंने मन ही मन कहा - ”करनी का फल तो सभी को मिलता है। अभी तो तुमको कीड़े पडेंगे पण्डितजी।“
फिर एक सुबह मैं गांव छोड़ कर इंजीनियरिंग कालेज चला गया। मैंने कालेज में लगी प्रवेश सूची देखी। मेरा नाम सूची में सबसे नीचे था। सबसे नीचे! ओह ? मैं कितना भाग्यवान हूं। मेरे मन मंे विचार आया मात्रा एक अंक कम आने पर मेरा एडमीशन न हो पाता।
एक भय सा मेरे मन में बैठ गया। एक अंक का जीवन में कितना महत्व हो सकता है। यह मैं जान चुका था। चार साल की पढ़ाई के पूरे दौर में यह एक अंक का चक्कर मुझे हमेशा पढ़ाई और समय के महत्व का अनुभव करवाता रहा।
आखिर कालेज सये ”विदाई“ का दिन आ गया। हमारी डिग्रियां पूरी हो चुकी थीं। मैंने अपने पक्के दोस्त राजीव से पूछा कि उसका अब क्या इरादा है ? राजीव ने कहा - ”दोस्त, मैं सीधे अपनी दीदी के पास बड़ौदा जाऊंगा। यदि उन्होंने सख्त कदम न उठाए होते तो शायद मैं कुछ भी न बन पाता और किसी छोटी सी नौकरी में होता। उन्होंने मार व डांट कर मुझे वैसे ही तराशा है जैसे जौहरी हीरे को तराशता है।“
मैं सोच में पड़ गया। मुझे यहां तक पहुंचाने वाला कौन है ? किसने सोचा था कि मैं इंजीनियर बनने योग्य हूं ? मेरे अनपढ़ पिताजी कहां से लाए थे इंजीनियरिंग कालेज का फार्म ? यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं।
घर पहुंचने तक दो ही बातें मेरे मन में थीं। इंजीनियरिंग का फार्म व पण्डितजी से अपने अपमान का बदला। तांगे से उतरते ही मैंने अपने पिता जी से प्रश्न किया - ”बापू, मैं इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आया हूं। पर बापू मुझे यह बताइये कि मेरा दाखिले का फार्म आप कहां से लाए थे ? किसने कामना की थी मेरे इंजीनियर बनने की?“
”इसबात को तुम आज पूछ रहे हो?“ बापू ने आश्चर्य से कहा और बोले - ”और कौन लाता, पण्डित संपूर्णानन्द दे गये थे मुझे। उन्हीं ने कहा था कि तुमसे भरवा कर भेज दूं। तुम्हारी बहुत तारीफ की थी उन्होंने। सच, वे असली पारखी थे। तुम्हारी योग्यता को तो शायद उन्होंने बचपन में ही पहचान लिया था।“
मेरी आंखे डबडबा उठीं। सच यदि पण्डितजी ने मुझे बात बात में मारा नहीं होता तो क्या होता ? क्या मैं इतने अंक ला पाता कि मेरा प्रवेश हो पाता ? उनके करारे थप्पड़ों ने ही शायद मेरे भविष्य की नींव रखी थीं। मुझे माफ करना गुरूजी। फिर मैं बेतहाशा दौड़ता हुआ पण्डितजी के घर की ओर दौड़ पड़ा। मेरा दिल बार बार रो रहा था ”गुरूजी, आपका बहका हुआ शिष्य वापस आ रहा है। सच गुरूजी, आप ने ही तो सिखाया था कि सुबह का भूला यदि शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते।“

शनिवार, 14 जून 2008

चन्नी

चन्नी



जब भी रक्षा बन्धन का त्योहार आता है तो मुझे एकाएक चन्नी की याद आ जाती है।

बचपन की बात है एक दिन मैंने अपने कमरे की खिड़की से देखा । हमारी कोठी के नौकरों वाले क्वार्टर में एक नया नौकर आ गया था । मेरी हमउम्र उसकी एक बेटी थी । रूखे-सूखे बालों वाली । मुझे पहली नजर में ही वह बिल्कुल पसन्द नहीं आर्ई। उसके मां बाप उसे प्यार से चन्नी कहते थे। मैं उसे खिड़की से आवाज देकर चिढ़ाता था - ”चवन्नी“ । वह चिढ़कर रोती और मैं चुपके से खिड़की से हटकर उसके रोने की आवाज सुनकर खुश होता ।

चन्नी कभी कभी अपनी मां के साथ हमारे घर आ जाती थी । उसकी मां मेरी मां के कामांे में हाथ बंटाती थी । ऐसे मौकों पर चन्नी सहमी सी पर ललचाई आंखों से मेरे खिलौनों को एकटक देखा करती । पर उनको छूने का साहस उसको कतई न था । मैं शान दिखा-दिखा कर अपने खिलौनों से खेला करता । शायद इस प्रकार शान दिखाने मंे मुझे अपना बड़प्पन दिखाई देता था ।

मुझे कहानी पढ़ने का बहुत शौक था । इन्हीं कहानियों के बीच एक बार मुझे लोरेंस नाइटिंगेल की कथा पढ़ने को मिली । कथा पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा । मेरे मन में भी कुछ महान काम करने के विचार आने लगे। मैं हरदम यही सोचा करता कि दुखियों की सेवा, सहायता कैसे करूं । मैंने अपनी मां से इस विषय में विचार किया । मां ने मुझे समझाया कि तुम किसी गरीब की सहायता कर सकते हो । किसी जानवर की मलहम पट्टी कर सकते हो या फिर किसी अंधे को रास्ता दिखा सकते हो । किसी गरीब व अनपढ़ बच्चे को पढ़ाना भी तो सेवा ही है।

मैंने बहुत विचार किया कि मुझे अपने अभियान को कहां से शुरू करना चाहिए । ऐसे में मुझे चन्नी की याद आई । मुझे लगा, चन्नी इतनी बुरी नहीं है। वह ढेर सारा काम करती है, इसीलिए गंदी रहती है । उसके पास न अच्छे कपड़े हैं और न कोई उसकी ठीक से देखभाल करता है । यहां तक कि किसी को उसकी शिक्षा की भी परवाह नहीं है । बस, मैंने चन्नी को पढ़ाने का निर्णय ले डाला । मैंने उसकी परीक्षा ली । मुझे लगा कि वह अच्छी खासी बुद्धिमान है।

अब चन्नी रोजाना मेरे पास आने लगी । मैं उसको पढ़ना व लिखना सिखाता। कभी-कभी हम साथ खेल भी खेला करते । पर मेरे पिताजी को यह अच्छा न लगता। वे अक्सर मां के ऊपर नाराज होते। मेरा चन्नी के साथ खेलना उन्हें कतई पसन्द नहीं आया । क्योंकि वह नौकर की बेटी है । पर मेरे सेवा भाव के विचार को सुनकर उन्होंने मुझसे कहा, ”अमित, मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं । वास्तव मंे तुम्हारे विचार बहुत अच्छे हैं। मैं चाहता हूं कि तुम्हें सफलता मिले । पर एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा क्योंकि तुम्हारा अनुभव बहुत कम है। कुछ लोग दूसरों की गलतियों से सीखते हैं और संभल जाते हैं। पर कुछ लोग मात्रा अपनी गलतियों से ही सीखते हैं और जीवन में नुकसान उठाते रहते हैं।“

पिताजी तो कहकर चले गये । पर उन्होंने क्या बताया मैं समझ नहीं पाया। मैंने तो अपने अभियान में लगातार आगे बढ़ते रहने की ठान रखी थी । कुछ ही दिन में चन्नी ने मुझसे बहुत कुछ सीख लिया । वह साफ-सुथरी भी रहने लगी । वह हमेशा इस बात का ध्यान रखती कि मुझे डांटने का मौका न मिले । पढ़ने के प्रति उसके मन में असीम उत्साह था । हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा बन गया था । रक्षा बंधन के पर्व पर उससे राखी बंधवा कर मैंने उसे अपनी बहिन बना लिया था। पर इस सब रिश्तों के बीच अब भी एक लकीर थी । मालिक के लड़के और नौकर की लड़की की । चन्नी ने भी कभी किसी चीज के लिए बहिन जैसा अपना हक नहीं जताया ।

शायद यह मेरे चैदहवें या पन्द्रहवें जन्मदिन की बात है। घर में एक जोरदार दावत हुई । ढेरों मेहमान हमारे घर आए । मुझे इतने सारे उपहार मिले कि मैं फूला न समाया । ढेर सारे रुपए भी लोगों ने मुझे दिये । रात देर तक मेहमानों का आना-जाना रहा । सुबह उठते ही मैंने अपने खिलौनों व उपहारों को समेटा । एक से बढ़कर एक रंग-बिरंगी पुस्तकें भी मुझे भेंट में मिली थीं । मैंने रुपयों को गिना। शायद सोलह सौ तीस रुपए थे। जब चन्नी आई तो मैं रुपयों की गड्डियां बना रहा था । एक, दो, पांच व दस के नोटों की अलग-अलग गड्डियां थीं । सौ के नोट मैंने एक पुस्तक में दबा कर रखे थे। चन्नी को बड़े उत्साह के साथ मैंने सभी चीजें दिखायी । दावत में वह मेरी बहिन की हैसियत से नहीं बुलवाई गई थी। हां, अपनी मां के साथ काम करने जरूर आई थी । इसलिए उसने सभी उपहारों को बड़ी उत्सुकता से देखा । रुपयों की गड्डियों को देखकर तो वह चैंक सी उठी । ‘इतने ढेर सारे रुपए और वे भी सब आपके ।’ वह आश्चर्य से बोली थी ।

कुछ देर बाद चन्नी चली गई। मैंने अपने खिलौनों को वापिस डिब्बों में रखा। पुस्तकों को ढंग से अलमारी में सजाया। फिर आई रुपयों को रखने की बारी। मैंने रुपयों को रखने से पहले गिना और फिर बार-बार गिना। मैं चैंक पड़ा। रुपयों में सौ-सौ के तीन नोट कम थे। मैंने पूरी कोशिश की कि मैं रुपयों को ढंूढ निकालॅूं। पर मेरी कोशिश नाकामयाब रही। कमरे में न कोई आया था और न कोई गया था। मात्रा मैं और चन्नी वहां थे। तो फिर क्या चन्नी रुपये चुरा कर ले गई ? मेरा दिल यह मानने को तैयार न था। पर मेरे मन में उठ रहे तर्क इस बात से सहमत न थे। मेरे मन का पूरा शक चन्नी पर था। आखिर एक गरीब और नौकर की बेटी से उम्मीद ही क्या की जा सकती थी। ऐसा ही कुछ विचार मेरे मन में जन्म ले रहा था। मैंने एक बार फिर अपनी जेबों को टटोला और रुपयों को गिना। सचमुच तीन सौ रुपये कम थे। चन्नी ने रुपये मांगे होते तो मैं उसको सहर्ष दे देता। पर उसकी चोरी ने मेरे सारे सपनों में पानी फेर दिया था। चन्नी ने ही आखिर चोरी की। मैं क्रोधित हो उठा। मैंने मां से शिकायत की और मां ने चन्नी की मां और पिता से।

चन्नी के घर से बहुत देर तक चीखने चिल्लाने की आवाजें आई। चन्नी के पिता ने बड़ी बेदर्दी से उसकी पिटाई की। पर चन्नी ने यह नहीं बताया कि उसने रुपए कहां छिपाए हैं। सीधी-सादी दिखने वाली चन्नी इतनी ढीठ हो सकती है, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं मुंह फुलाए बिना खाना खाए अपने कमरे में पड़ा रहा। मुझे किसी भी हालत में अपने रुपए वापस चाहिए थे।

दिन के समय चन्नी का पिता मेरी मम्मी के पास आया। उन दोनों के बीच न जाने क्या खुसर-फुसर हुई। मां ने आकर बताया कि मेरे रुपए वापिस मिल गये हैं। मैंने रोनी सूरत के साथ अपने तीन सौ रुपए ले लिये। मेरा मूड कुछ ठीक हो गया। पर उस दिन के बाद पता नहीं क्या हुआ कि घर से चन्नी की आवाजें आनी बंद हो गयी। शायद शर्म के मारे उसने घर से निकलना बंद कर दिया था। बेचारी घर से बाहर आती भी कैसे ? मैंने मन ही मन विचार किया। पर उसके मां-बाप उसको क्यों नहीं आवाज देते, यह मैं कई दिन तक सोचता रहा। मैं हर पल प्रतीक्षा करता कि चन्नी मेरे पास आ जाए। मैं जानना चाहता था कि उसने चोरी क्यों की थी ?

पर मुझे यह मौका नहीं मिला। एक दिन पिताजी ने मां से पूछा कि कई दिन से चन्नी नहीं दिखाई दे रही है। क्या वह बीमार है ? तब मां ने बताया कि उसका पिता चन्नी को गांव छोड़ आया है। अब वह गांव में अपने चाचा के पास ही रहेगी। माॅं ने पूरी घटना की जानकारी पिताजी को दी। पिताजी कुछ नहीं बोले। पर उन्होंने एक ही बात कही कि चन्नी चोरी नहीं कर सकती। जरूर हम लोगों को गलतफहमी हुई है। मैं एक बार फिर पिताजी के विचार सुनकर हतप्रभ रह गया। पिताजी हमेशा मुझे चन्नी के साथ न खेलने की हिदायत देते थे। उसके साथ खेलने पर उन्हें मेरे बिगड़ने का भय था। अब उनका कहना बिल्कुल विपरीत था। उसके अनुसार चन्नी एक भोली भाली लड़की थी। जो चोरी कदापि नहीं कर सकती थी।

खैर, बात आई गई हो गई। मैं चन्नी को भूल सा गया। कभी-कभी मैं मम्मी के पास बैठी चन्नी की मां को अपनी मैली धोती के आंचल से आंसू पोंछते देखता था। चन्नी के चले जाने के बाद से वह क्यों रोती है, मैं अक्सर सोचा करता। पर जब भी मैं बातें सुनने की कोशिश करता तो चन्नी की मां चुप हो जाती।

कई महीने बीत गए। मैं कभी-कभी चन्नी की मां से पूछता कि अब चन्नी कब आएगी। पर वह मुझे ऐसे ही बहला-फुसला कर टाल देती। पर एक दिन चन्नी की मां ने मुझे बताया कि यह उसके वश में नहीं है। शायद अब चन्नी कभी वापस न आए। यह तो अब चन्नी के बापू की ही इच्छा पर निर्भर है। कहते कहते उसे रुलाई आ गई। चन्नी की मां रोई क्यों ? यह मेरी समझ में नहीं आया। पर मैंने चन्नी के बापू से बात करने का निर्णय लिया।

चन्नी की बात सुनकर उसका बाप दुखी हो उठा। चन्नी के व्यवहार से वह अत्यधिक शर्मिन्दा था। उसका मानना था कि इतने लाड़ प्यार के बाद भी चन्नी ने चोरी की। इसलिए वह कतई माफी के योग्य नहीं थी। पर चोरी के पैसे उसने कहां छिपाए थे वह उस दिन तक नहीं जान पाया था। इसके बाद इसने चन्नी को जी भर कर कोसा।

उसकी बात सुनकर मैं चैंक उठा। इसका मतलब जो रुपये मुझे मेरी मां ने लौटाए थे वे चन्नी से नहीं मिले थे। यानी कि चोरी के रुपये चन्नी से कभी मिले ही नहीं और मां ने अपने पास से रुपए मुझे दे दिए थे। शायद मुझे खुश करने के लिए।

परीक्षा के बाद मैंने अपनी किताबों की अलमारी ठीक की। फिर एक कहानी की किताब छांटकर पढ़ने के लिए बिस्तर में बैठ गया। मैंने किताब का पहला पृष्ठ खोला तो मालूम चला कि किताब किसी ने मुझे मेरे जन्म दिन पर दी थी। पुस्तक का नाम था - ”प्यार के रिश्ते“। पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने लिखा था - ”रिश्ते बनाने तो बहुत आसान होते हैं पर उनको निभाना बहुत मुश्किल काम है। मात्रा बीज बो देने से पौधे नहीं बन जाते वरन उनको सींचना भी पड़ता है।“ इन पंक्तियों को भेंट-कर्ता ने स्याही से रेखांकित किया था। आखिर किसकी भेंट थी यह? मैंने पुस्तक के पृष्ठ उलट-पुलट कर देखा। चन्नी का नाम देखकर मैं चैंक पड़ा। मुझे याद आया कि चोरी वाली घटना के दिन चन्नी इसी पुस्तक को लिए खड़ी थी। मैंने समझा था कि उसने मेरी पुस्तक उठा रखी है। पर शायद ढेर सारी रंग बिरंगी किताबों और उपहारों के बीच वह अपनी भेंट देने का साहस शायद नहीं कर पाई थी। इसलिए उसने चुपके से पुस्तक को अलमारी में सजा दिया था।

एकाएक मेरे मस्तिष्क में उस दिन की घटना एक बिजली की भांति कौंध पड़ी। मैंने पुस्तकों को एक-एक करके पलटना शुरू किया। आश्चर्य! आशा के अनुरूप एक पुस्तक से सौ-सौ के तीन करारे नोट हवा में लहरा कर जमीन पर बिखर गये। मुझे लगा ये नोट नहीं बल्कि मेरा झूठा अभिमान टूट कर जमीन पर बिखरा था। ये बिल्कुल नए नोट थे जो मैंने घटना के दिन छांटकर उस पुस्तक में रख दिए थे। चन्नी के साथ बातचीत में मशगूल होकर मैं उनके बारे में बिल्कुल भूल गया।

अपनी लापरवाही, झूठे लांछन और मिथ्या बड़प्पन को बचाए रखने के लिए मैंने अपनी इस गलती को आजतक कभी भी जग जाहिर नहीं होने दिया। चन्नी कलंकित ही रह गई और कभी वापस नहीं आ सकी। मेरी गलती के कारण न जाने उसको कितना अपमान, मानसिक क्लेश व प्रताड़ना मिली थी।

इस झूठ को छिपाए वर्षों बीत गए हैं। राखी के धागों की याद ने बार-बार इस झूठ के घाव को छेड़कर नासूर बना दिया है। मुझे नहीं लगता है कि मैं इसे अब और बर्दाश्त कर सकता हूं। अपने अपराध को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास अब कोई चारा नहीं है। अनुभव से पता हो गया है कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था। मुझे यह भी मालूम चल गया है कि चन्नी की मां मैली धोती के आंचल से यदा-कदा चन्नी की याद में क्यों आंसू पोंछा करती थी। काश! मैं तब ही चन्नी के पिता, मां से सारी बात सच-सच कहकर चन्नी को वापिस बुलवाने को कहता। चन्नी से माफी मांग लेता तो आज तक मन में मलाल तो नहीं रहता। भगवान तू हम सब को इतनी ‘ाक्ती जरूर दे कि हम सच का सामना कर सकें।

रविवार, 8 जून 2008

कटघरा

कटघरा


मेरे जीवन की यह एक अविस्मरणीय घटना है । अपनी प्रथम नियुक्ति पर मैंने कांकेर हायर सेकेण्डरी स्कूल में गणित के प्राध्यापक का कार्यभार संभाला था । छात्रा जीवन की एनसीसी की उपलब्धियों को देखकर प्रधानाचार्य जी ने मुझे गर्मियों में लगने वाले एनसीसी कैम्प का प्रभारी बना दिया ।
गर्मियों की छुट्टियां शुरू हुई । कैम्प को लगे हुए आठ-दस दिन बीत चुके थे। एक सुबह ढेर सारे कैडेट मेरे टैण्ट के सामने आ खड़े हुए । उनकी शिकायत थी कि कैम्प से उनकी चीजें लगातार चोरी हो रही हैं । मैंने उनको समझाकर वापस भेज दिया । किन्तु मैं सोच में पड़ गया ।
मैंने अन्य विद्यालयों से आए शिक्षकों से इस विषय पर विचार-विमर्श किया । सभी इस बात से एकमत थे कि कैडेटों में से ही कोई एक चोर हो सकता है । पर एक बड.ी समस्या थी कि चोर का पता कैसे चले ? अतः मैंने कुछ खास बच्चों को अलग-अलग बुलाया । उनको विशेष निर्देश दिए । पर हमारी सारी सतकर्ता के बावजूद अगले दिन सुबह की दौड़ के समय एक कैडेट की घड़ी चोरी चली गई । अब हम सभी परेशान हो उठे । उस समय एनसीसी के कैडेट सुबह की दौड़ के बाद नाश्ता कर रहे थे । मैं अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श करने में व्यस्त था । तभी मुझे कुछ लड़कों की जोर-जोर से बोलने की आवाजें सुनाई दी । मैंने आवाज की दिशा में देखा । चार-पांच कैडेट अपने एक साथी को पकड़े चले आ रहे थे।
‘क्या बात है रिपु दमन ?’ मैंने कैडेटों के साजेंन्ट से पूछा ।
‘सर, चोर पकड़ा गया ।’ उसने बड़े ही आत्म-विश्वास के साथ कहा ।
‘मैं चोर नहीं हूं सर । ये सब झूठ बोल रहे हैं । मैंने आज तक कभी चोरी नहीं की है ।’ वह दुबला व सांवला लड़का बोला । उसके स्वर में पूर्ण आत्मविश्वास था ।
‘सर, यही लड़का चोर है । हमने इसे रंगे हाथों पकड़ा है ।’ सार्जेन्ट ने कहा।
रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी इतनी हिम्मत ? मैंने मन ही मन सोचा और फिर साजेंन्ट से पूछा- ‘घड़ी कहां है रिपुदमन ?’
कैडेट एक स्वर में बोले- ‘सर, इसने घड़ी अपने बक्से में ताला लगाकर छिपा दी है । हमने बहुत कोशिश की पर इसने ताले की चाभी हमें नहीं दी ।’
मैंने देखा कि उनमें से एक लड़का पुराना सा जंग लगा बक्सा अपने सिर पर उठाए खड़ा था । मैंने चोर से कड़क कर पूछा- ‘क्या नाम है तुम्हारा ?’
’जी, कालीचरन ।’ लड़के ने सहम कर कहा ।
‘चोरी क्यों की ?’ मेरा अगला सवाल था ।
लड़के की आंखों में आंसू भर आए । वह कुछ नहीं बोला । पर वह घबरा गया था । उसकी घबराहट मुझे बता रही थी कि वह चोर है ।
मैं चीख कर बोला- ‘मैं पूछ रहा हूं कि तुमने चोरी क्यों की ? तुम्हारे घर का माल है क्या ? चलो, बक्से को खोलो जल्दी से।’
‘नहीं-नहीं, सर । मेरा बक्सा मत खुलवाइए । विश्वास करिये । मैंने चोरी नहीं की । मैं चोर नहीं हूं सर ।’ उसने आग्रह किया ।
‘पहले चोरी करता है फिर रोता है । तेरे आंसुओं से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । जल्दी अपना बक्सा खोल ।’ लड़कों में से कोई बोला ।
‘सर, मैं बक्सा नहीं खोलूंगा । मैंने कोई चोरी नहीं की है । मेरी इज्जत का सवाल है ।’ लड़के ने प्रतिकार किया ।
‘चोर की भी कोई इज्जत होती है क्या ? बक्सा तो तुमको खोलना ही पड़ेगा।’ मैंने गुस्से में कहा ।
‘सर, अगर आपको मेरे ऊपर विश्वास नहीं है तो अपने टैन्ट में ले जाकर मेरा बक्सा खोल कर देख लीजिए । पर मैं अपना बक्सा सबके सामने नहीं खोलूंगा।’ कालीचरन ने जोर देकर कहा ।
चोर इतना ढीठ भी हो सकता है ? मैंने मन ही मन सोचा । इसकी इतनी हिम्मत कि मेरे साथ बहस करे । तुम्हारी इज्जत का सवाल है मास्टर ब्रजबिहारी ! मेरे अन्दर का अहम जाग उठा । मैंने गुस्से में कहा ‘रिपुदमन, चाबी छीन कर बक्सा खोल दो ।’
‘नहीं...। आप ऐसा नहीं कर सकते सर । आप मेरी इज्जत से नहीं खेल सकते । मैं चोर नहीं हूं सर.. । सर रोक लीजिए इनको । सर मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा ।’ वह चीखता रहा । उसकी हर चीख शायद मुझको आत्म संतुष्टि की ओर ले जा रही थी । आखिर मेरे बिछाए जाल में चोर फंस कर छटपटा रहा था । मैं मन ही मन अपनी प्रशासनिक योग्यता पर निछावर था । आखिर कालीचरन की चीख पुकार के बीच लड़कों ने चाबी उससे छीन ही ली ।
‘ये लीजिए सर चाबी ।’ रिपुदमन ने चाबी मेरी और बढ़ायी ।
एकाएक कालीचरन ने धमकी दी कि यदि सबके सामने उसका बक्सा खोला गया तो वह सिर पटक कर अपना माथा फोड़ लेगा । अतः मुझे उसकी बात माननी पड़ी। कालीचरन स्वयं बक्सा उठाकर मेरे टेन्ट में चला आया । वह अब एकदम खामोश था । उसके चेहरे में मायूसी थी । मैंने बक्से की तलाशी शुरू करी।
बक्से में सबसे ऊपर लाल कपड़े में लपेट कर कोई पुस्तक रखी हुई थी । जिज्ञासावश मैंने कपड़ा हटाया । गीता का स्वाध्याय और चोरी ? मैं असमंजस में पड़ गया । मैंने गीता बिना लपेटे एक ओर रख दी । कालीचरन ने मुझे गुस्से से देखा । फिर उसने गीता लपेट कर करीने से रख दी ।
फिर मैंने एक-एक करके उसकी डेªस की कमीज, पैन्ट, कैप आदि झाड़े । मुझे कुछ नहीं मिला । तभी मेरी आंखों में चमक आ गई । बक्से के तले में एक थैला रखा हुआ था । मैं समझ गया कि उसी में चोरियों का माल रखा गया है । मेरे हाथ में थैला आया देखकर कालीचरन ने बहुत आग्रह किया कि मैं उस थैले को न खोलूं । पर यह संभव कब था ? मैंने एक झटके में थैले का मुंह खोल कर सामान जमीन में उलट दिया । दृश्य देखकर मैं आवाक् रह गया । जमीन में आधी खाई मक्खन की टिक्कियां, डबल रोटी, केक व मिठाई के टुकड़े बिखरे पड़े थे । यह सब कैडेटों को नाश्ते में दिया गया सामान था । पर चोरी के समान का दूर-दूर तक कहीं, पता नहीं था । मैंने कालीचरन की ओर देखा और चीखा- ‘यह सब क्या है कालीचरन ? चोरी का समान कहां है ? यह सब बचा हुआ सामान तुमने क्यों इकट्ठा कर रखा है ?’
कालीचरन कुछ न बोला । उसने बिखरा हुआ सामान बीनना शुरू करा । मैं सकते की हालात में अपलक उसको देखने लगा । तभी उसने आधा खाया मोतीचूर का लड्डू उठाया । तब मेरा माथा चकरा गया । मोतीचूर के लड्डू तो आज पहली बार सुबह के नाश्ते में बांटे गए थे । फिर मोतीचूर का लड्डू इसके बक्से केअन्दर कैसे ? ओह ! इसका मतलब नाश्ते की मेज से कालीचरन खाने का समान जेब में रख कर लाया था । पर क्यों ? यह मेरे लिए एक पहेली था । पर यह सत्य था कि वह चोर नहीं था । मैं शर्मिन्दा हो कर बोला- ‘कालीचरन बेटे, मुझे माफ कर देना । पर यह सब क्या है मेरे बेटे ? कालीचरन ने उदास आंखों से मेरी ओर देखा । मेरे स्नेह वचन सुनकर वह भावुक हो उठा । फिर कुछ रूक कर बोला- ‘सर, आपने मेरी इज्जत बचा ली । यदि सबके सामने आप तलाशी लेते तो मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रहता ।
‘पर यह सब क्या है? मैंने फिर पूछा ।
कालीचरन बोला- ‘सर, यह गरीबी हैं। मैंने यह सामान अपने छोटे भाई-बहनों के लिए इकट्ठा करा है । सर, मैं कैम्प में पेट भर कैसे खा सकता हूं? पता नहीं मेरे भाई-बहन घर में आधा पेट भोजन भी कर पाते होंगे कि नहीं? आधा पेट खाने की आदत है न हमको। फिर मिठाई, बिस्कुट व मक्खन तो हमारे लिए दुर्लभ खाना है, सर ।’ वह रूआंसा हो उठा।
मैं ठगा सा खड़ा देखता रहा । ‘मुझे माफ करना बेटे। मैं सिर्फ यही बुदबुदा सका । कालीचरन बक्सा उठाए अपनी टैन्ट की ओर चला गया ।
वर्षों बीत गए हैं। तब से आज तक, मुझे कई मौकों में ऐसा लगता है कि मैं आज भी कालीचरन के कटघरे में खड़ा हूंॅॅॅ । पता नहीं कालीचरन अब कहां होगा ? क्या वास्तव में उसने मुझे माफ कर दिया है ?

रविवार, 1 जून 2008

बैसाखियाँ Hindi story by Hem Chandra Joshi

बैसाखियाँ

हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।

कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।

मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।

फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“

मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।

मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।

छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।

मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हूूं। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“

पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“

पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“

मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूॅंगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।

फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मंे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।

एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कत्र्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।

मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती हॅबैसाखियाँ
हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।

कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।

मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।

फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“

मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।

मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।

छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।

मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हूूं। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“

पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“

पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“

मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूॅंगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।

फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मंे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।

एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कत्र्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।

मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती बैसाखियाँ
हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।

कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।

मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।

फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“

मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।

मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।

छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।

मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हूूं। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“

पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“

पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“

मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूॅंगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।

फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मंे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।

एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कत्र्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।

मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती हॅबैसाखियाँ
हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।

कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।

मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।

फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“

मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।

मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।

छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।

मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हूूं। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“

पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“

पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“

मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूॅंगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।

फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मंे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।

एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कत्र्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।

मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती बैसाखियाँ
हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।

कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।

मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।

फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“

मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।

मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।

छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।

मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हूूं। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“

पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“

पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“

मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूॅंगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।

फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मंे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।

एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कत्र्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।

मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती हॅूं कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं। कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं।ं कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं। कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं। कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं।