अप्पू की नाराजगी
अप्पू एक बहुत ही प्यारा बच्चा है। मोहल्ले के नुक्कड़ पर उसके पिताजी की किराना की दुकान है. मैं सालो पहले जब इस मोहल्ले में आयी तो अप्पू छोटा सा बच्चा था। तब वह ठीक से बोल भी नहीं पाता था। उसके पिताजी अक्सर उसको दुकान पर ले आते थे। मैं सुबह शाम जब भी स्कूल से पढ़ाकर लौटती तो मेरी आंखे बरबस दुकान की ओर चली जाती थी। शायद इसका कारण अप्पू का आकर्षण था। मुझे देखकर वह शर्माकर अपनी आंॅखे नीची कर लेता था मैं जब कभी दुकान पर जाती तो अप्पू से बातचीत की कोशिश जरूर करती।
धीरे-धीरे हमारे बीच एक मधुर संबध स्थापित हो गया। वह कुछ बड.ा भी हो गया। वह अब मुझे देखते ही नमस्ते करने लगा। दुकान के कार्यो में वह अपने पिताजी का हाथ भी बंटाने लगा। दुकान से चीजें वह फटाफट ढूॅंढ कर लाता और थैलियों में भरकर तौलने की भी कोशिश करता। शिक्षक होने के नाते मुझे यह सदैव लगता था कि वह कुशाग्र बुद्वि बालक है। एकदिन मैंने उसके पिताजी से कहा कि वह अप्पू का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करवा दे। अप्पू बड़े ध्यान से मेरी बातें सुनता रहा फिर बाल सुलभता से बोला-”आंटी, मैं आपके ही स्कूल में पढॅ़ूंगा. मुझे आप पढ़ायेंगी न? बड़े होकर मैं भी आपकी तरह बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाऊॅंगा“। मैंने धीमे से हामी भर ली पर मैं जानती थी कि अप्पू को मेरी क्लास में आने में अभी कई वर्ष लगेंगे। फिर एकदिन उसके पिताजी ने अप्पू का दाखिला सचमुच हमारे स्कूल में करा दिया। साल पर साल बीतते गये। अप्पू सदा मुझसे पूछता कि मैं उसको कब पढ़ाऊंगी? मैं उसकेे भोलेपन पर मुस्करा देती।
फिर एकदिन वह वक्त भी आ गया जिसकी अप्पू सालों सक प्रतीक्षा कर रहा था। अब वह मेरी ही कक्षा मंे था। वह बहुत खुश था। उसकी वर्षो की मनोकामना पूरी हो गयी थी। मुझे भी मन ही मन अप्पू की इच्छा पूरी होने की खुशी थी। आखिर उसने इस बात का वर्षो तक इंतजार किया था। अप्पू क्लास के सभी बच्चों और अपने दोस्तों के बीच मेरी बहुत की तारीफ किया करता था। मेरी थोड़ी सी भी बुराई सुनने को वह तैयार न था। कभी कभी तो वह इस बात पर कक्षा में झगड़ा भी कर डालता था। अद्र्ववार्षिक परीक्षायें हुई। मेरे विषय संस्कृत में अप्पू के बहुत अच्छे नंबर आये थे। किन्तु उसका कक्षा के सबसे अच्छे विद्यार्थी से एक नंबर कम था। अतः वह अपनी कापी लेकर मेरे पास आया और उसने बड़े ही अपनेपन से मुझसे कहा-”मैडम, मेरा एक नंबर बढ़ा दीजिए।“
” क्यों अप्पू? तुम्हारे तो बहुत अच्छे नंबर आयें हैं ।“ मैंने आश्चर्य से पूछा। वह कुछ नहीं बोला। उसक पूरी आशा थी कि मैं उसका नंबर बढ़ा दॅूंगी। काफी देर बाद उसने मुझसे अपने मन की बात बताई। मैं खिलखिलाकर हंॅस दी और फिर उसे समझाया-”अप्पू, तुम्हें और ज्यादा मेहनत करनी चाहिए। मात्रा कक्षा में सबसे ज्यादा अंक आ जाने से कोई फायदा नहीं हैं। तुम्हारा मुकाबला तो ढेर से अन्य विद्याथिर्यो से भी हैं जिनको तुम जानते भी नहीं हो। ”
तब अप्पू ने रोआंसा होकर कहा-”मैडम, बस एक अंक की तो बात है। बढ़ा दीजिए न।“ उसकी बात सुनकर मैैंने उसे फिर समझाया कि प्रश्न एक अंक का नहीं है। असल में बात सिद्वान्त की है और इसलिए मैं अंक नहीं बढ़ा पाऊंगी। तब अप्पू ने जिद छोड़ दी और वह कापी जमा करके अपनी सीट में बैठ गया। मुझे लगा कि उसको मेरी बात समझ में आ गयी है। रिजल्ट निकले सात आठ दिन बीत गये। अप्पू कक्षा में प्रथम आया किन्तु रिजल्ट के बाद एक दिन मुझे महसूस हुआ कि अप्पू अब मेरे सामने नहीं आता है। वह कक्षा में मुझसे निगाहें भी नहीं मिलाता है। उसने मुझे नमस्ते भी करनी छोड़ दी है। उसमें आये परिवर्तन के लिए मैं हैरान थी। मैं समझ नहीं पा रही थी अप्पू इस प्रकार का व्यवहार क्यों करने लगा है। उसने हमारे घर भी आना छेाड़ दिया। हमारे घर के अन्य लोग जब उसको दिखाई देते तो वह उनको भी अभिवादन न कर देखा अनदेखा करने लगा। अप्पू में आये इस बदलाव को देखकर मैं चक्कर में पड़ गयी। उसे पता नहीं क्या हो गया था। क्लास में वह खोया-खोया सा दिखाई पड़ता था। उसके व्यवहार में इतना बड.ा परिवर्तन कैसे आ गया? यह मेरी उत्सुकता का विषय था।
फिर उस रात न जाने मेरे मन में कैसे एक विचार आया। मुझे लगा मैंने अप्पू की उदासी का कारण जान लिया है। मैंने फिर चैन की नींद ली। दूसरे दिन शाम को अप्पू अपने पिताजी के साथ दुकान में बैठा था। मैं थैला लेकर उसकी दुकान में पहुंॅची। मैंने अप्पू से एक किलो चीनी देने को कहा। अप्पू जब चीनी तौल चुका तो मैने अप्पू से कहा-”अप्पू, मेरी थैली में थोड़ी ज्यादा चीनी भरो। मुझे लग रहा है कि चीनी कम है।
तब अप्पू बोला-”नहीं मैडम चीनी तो पूरी है। मैंने कम नहीं तौली है।“
”पर अपनी जान-पहचान वालों को तो तुम्हें कुछ ज्यादा तौलना चाहिए।“ मैंने उसे समझाते हुए कहा।
”पर मैडम, हमारी दुकान में तो सब जान पहचान वाले ही ग्राहक आते हैं। यदि मैं ज्यादा चीजें तौला करूंगा तो हमको कुछ समय में ही घाटा हो जाएगा। हम सभी को पूरा और अच्छा सामान बेचते हैंै।” उसने बड़े ही आत्म-विश्वास से कहा। ”बिल्कुल ठीक अप्पू। तुम तो बहुत समझदार हो। पर अब तुम यह बताओ कि जब तुम अपनी दुकान में किसी को भी ज्यादा चीज तौल कर नहीं देते हो तो तुम यह उम्मीद कैसे करते हो कि शिक्षक अपने छात्रोंा को उचित से ज्यादा नम्बर दे दे? तुम मुझसे इसीलिए नाराज हो न कि मैंने तुम्हारा एक अंक नहीं बढ़ाया था?“ मैंने अप्पू से प्रश्न किया।
अप्पू ने शर्म से अपनी आंॅखे नीचे कर ली। फिर उसेने आंॅख झुकाए हुए कहा - ”मैडम, मुझे अपनी गलती समझ में आ गई है। सच, आपने मेरी आंॅखे खोल दी हैं।“ फिर उसने अपनी पलके उठाकर मुझे देखा। अपनी पुरानी मुस्कराहट से साथ। अब उसके मन में कोई शंका या नाराजगी न थी। दूसरे दिन से अप्पू पहले की भांति ही प्रफुल्लित था।
हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं
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