बुधवार, 31 दिसंबर 2008

अब नहीं बाबूजी A story by Hem Chandra Joshi

अब नहीं बाबूजी

शहर के मुख्य चैराहे पर स्थित उस हनुमान मंदिर से मेरी बहुत सी भूली बिसरी बातें जुड़ी हुई हैं। मैं बचपन में पिताजी के साथ अक्सर हर मंगलवार को मंदिर जाया करता था।
मेरे मन में सदा यही लालच रहता था कि मंदिर जाने पर ढेर सारा प्रसाद खाने को मिलेगा। आंखे बंद किए भगवान के सामने खड़े पिताजी को देखकर मैं अक्सर सोचता था कि वो आखिर भगवान से मांगते क्या हैं ? ऐसे मौकों पर मैं प्रसाद की थैली पर आंखे गड़ाए रखता था। पुजारी जी जब टीका व चरणामृत देने के बाद प्रसाद की थैली से मिठाई निकालते तो मुझे ऐसा लगता था कि मानो कोई मेरे हिस्से की मिठाई ले रहा हो।
फिर मैं धीरे धीरे कुछ बड़ा हो गया। मुझे अच्छे व बुरे काम में फर्क समझ में आने लगा। अब मैं अपनी छोटी बहन की चाकलेट भी कभी.कभी मौका मिलने पर चुपके से निकाल कर खाने लगा था। जब बहन रो-रो कर सारे घर को सिर पर उठा लेती थी तो मुझे अपनी शैतानी पर बड़ा मजा आता था।
आखिर चोरी के बाद पकड़े जाने से बचने का अपना ही सुख था। पर जब बहन भगवान को साक्षी मानकर चोर को दण्ड देने की प्रार्थना करती तो मैं मन ही मन घबरा जाता था। मैं हनुमान जी से अक्सर माफी मांग कर बहन के शाप से मुक्त होने की कोशिश करता था।
मंदिर जाने का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कभी टूटा ही नहीं। मंदिर के आसपास इकट्ठे होने वाले एक.एक भिखारी प्रसाद मांगने वाले लड़कों व ठेले वालों को मैं पहचानने लगा। यदि कहीं उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता तो मेरी आंखे दूर तक उसको ढूंढती सी नजर आती। कुछ ऐसी ही हालत मेरे बारे में भी थी। मंदिर के आसपास के सभी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे। प्रसाद के छोटे.छोटे टुकड़ों को ठेलम-ठेल के बीच चारों ओर से लपकते हुए हाथों में बांटकर मुझे पुण्य लूटने की संतुष्टि होती थी।
मैं नियमित रूप से एक विशेष मिठाई के ठेले से ही प्रसाद खरीदता था। इसी ठेले वाले के साथ एक लड़का मुझे हमेशा काम करता दिखाई देता था। मैंने मन ही मन उसका नाम कालू रख छोड़ा था। ग्राहकों के चप्पल जूतों का ध्यान रखनाए उनके हाथण्पैर धुलवाना उसका काम था। इसी सुविधा के कारण उस ठेले पर ग्राहकों की कुछ ज्यादा ही भीड़ रहा करती थी।
मंदिर से लौटते समय मैं प्रसाद का एक छोटा सा टुकड़ा कालू को भी देता था। वह मुस्कुरा कर उसको मुंह में डाल लेता था। मेरे नियमित रूप से मंदिर आने पर कालू बहुत प्रभावित था। मेरे लिए उसके मन में अपार श्रध्दा थी। उसकी बातों से पता चलता था कि उसकी हनुमान जी के प्रति असीम आस्था है। वह मुझे हमेशा संतुष्ट दिखाई देता था।
मैं कभी.कभी सोचता था कि मिठाई वाले ने क्यों अपने लड़के को इस काम में लगा रखा है ? वह क्यों नहीं उसको पढ़ाता-लिखाता है।
एक दिन मुझे मालूम चला कि वह मिठाई वाले का बेटा न होकर उसका नौकर है। कालू के पिता नहीं थे और उसकी मां उसकी देखरेख करती थी। कालू स्कूल भी जाता था और इधर-उधर काम करके अपना स्कूल का खर्चा भी चलाता था। मुझे कालू से थोड़ी हमदर्दी सी हो गई लेकिन मात्र मेरी हमदर्दी से कालू का पेट तो भर नहीं सकता था। कालू हमेशा मुझे काम करता मिलता था। पर मैं उसको कभी कुछ दे नहीं सका। वह तो मात्र प्रसाद के एक छोटे से टुकड़े को पाकर ही मेरे ऊपर निछावर था।
एक दिन मैने देखा कि कालू दुकान से दूर खड़ा है। मुझे दुकान वाले ने बताया कि उसने कालू को निकाल दिया है क्योंकि उसने दुकान में चोरी करने की कोशिश की है।
कालू ने उसकी बातों का प्रतिकार करते हुए कहा”बाबू जी यह झूठ बोल रहे हैं। मैंने आज तक चोरी नहीं की है। ये मेरे काम के पैसे नहीं देना चाहते हैं इसीलिए ऐसा कह रहे है। आप मेरे पैसे दिलवा दीजिए नहीं तो मैं स्कूल की फीस नहीं जमा करवा पाऊँगा।“ उसने कातर दृष्टि से बहुत सी उम्मीद के साथ मुझसे कहा।
पता नहीं क्यों कालू की कातर वाणी भी मुझे भेद नहीं पाई। मुझे मन ही मन लगा कि कालू ने जरूर चोरी की होगी। मुझे कालू के भोलेपन में उसकी चालाकी दिखाई देने लगी। मैने धीरे से मिठाई वाले से कहा” सच भाई! आज के जमाने में किस पर विश्वास किया जाए कुछ समझ मे नहीं आता है।“
मैं भगवान के दर्शन कर पुण्य लूटता हुआ घर वापस चला आया। इसके बाद कई मंगलवारों को मुझे कालू नजर नहीं आया। फिर महीनों बाद एक दिन कालू मुझे मंदिर के बाहर खड़ा मिला। मुझे देखते ही वह मेरी ओर चला आया। वह शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने उदास आंखो से कहाण्”बाबूजी मेरी मां बहुत बीमार है। कुछ रूपये उधार दे दीजिए। मैं आपका रूपया जरूर वापस कर दूंगा। आप तो भक्त है। सदा ईश्वर पर विश्वास करते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपको पैसा अवश्य वापस कर दूंगा।“
मैंने कालू को देखा। मुझे लगा वह सच बोल रहा है। मुझे चुप देखकर उसने कहा ”साहब आप पता नहीं कितने रूपये व मिठाई भगवान पर चढ़ा जाते हैं। ढेर सारा पेट्रेIल मंदिर आने के लिए खर्च कर डालते है। एक पचास का नोट मुझे भी उधार दे दीजिए। साहब मेरी मां बच जाएगी।“ उसने व्याकुल आवाज में कहा। उसकी रोनी सी आवाज ने मुझे आहत तो कर दिया किन्तु उस पर पचास रुपया खर्च करने का औचित्य मेरा मन नहीं समझ सका। मैंने उसकी बात का कोई भी जवाब नहीं दिया। मैं आगे बढ़ने लगा तो वह मेरे पैरों में गिर पड़ा और बोला ”बाबूजी मेरी मां मर जाएगी। मैं अनाथ हो जाऊँगा। मेरे ऊपर कृपा करिये बाबूजी। मेरी माँ को बचा लीजिए।“
मैंने टालने के लिए मजबूर होकर कहा ण् ”मेरे पास रुपए नहीं हैं।“
”बाबूजी प्रसाद चढ़ाने के रुपए ही मुझे उधार दे दीजिए। यह मेरे लिए दान के समान होगा।
मैंने उसकी बातें अनसुनी सी कर दीं। मैं एक रूढिवादी की तरह भगवान के दर्शन करने चला गया। जब मैं वापस आया तो वह प्रसाद का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वहां पर उपस्थित नहीं था। मेरा मन खिन्नता से भर गया। मुझे लगा कि मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए था। उसकी सहायता करनी चाहिए थी। आज प्रसाद चढ़ाकर अवश्य ही भगवान प्रसन्न नहीं हुए होंगे। भगवान तो सदा दुखियों के साथ ही रहते हैं।
कालू की सहायता न करने का मुझे बेहद अफसोस था। कालू की पीड़ा मेरे मन में घर कर गई। हर मंगलवार को मैं अब मंदिर के आसपास कालू को ढूंढा करता था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने उसकी सहायता नहीं की। उसके असीम विश्वास को मैंने ठेस पहुंचाई थी। अब मैं कालू की सहायता करके प्रायश्चित करना चाहता था।
फिर एक दिन जब मैं यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट खरीदकर मैं चाय पीने के लिए एक ठेले पर खड़ा था कि तभी किसी की आवाज आई ”बाबूजी नमस्कार! कैसे हैं आप ?“
मैंने देखा कि हंसता हुआ कालू मेरे सामने खड़ा है। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत नहीं थी। मुझे लगा कि वह एकाएक काफी सयाना हो गया है। एक छोटा सा बच्चा इतनी कम उम्र में इतना परिपक्व कैसे बन जाता है ? मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। इससे पहले कि मैं कालू से कुछ पूछता उसने जाने की इजाजत मांगी। मैंने प्रायश्चित के कारण बटुवे से सौ रुपए का एक नोट कालू को देना चाहा पर कालू ने बड़ी ही गंभीरता से कहा ”बाबूजी मुझे अब रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मैं भीख भी नहीं लेता। आज मैं अनाथ हूं। इस दुनिया में अकेला। उस दिन आपने मुझे रुपए नहीं दिए पर किसी और को भी मेरे ऊपर दया नहीं आई। थोड़े से पैसों के कारण मेरी मां चली गई। जब मनुष्य के दुख को मनुष्य नहीं समझ सकता है तो आप कैसे मान लेते हैं कि ऐसे मनुष्यों की पुकार को ईश्वर सुनता होगा“
”माफ करना मुझे।“ मैंने प्रायश्चित की अग्नि में जलते हुए सौ रुपए का नोट पकड़ाने का प्रयास किया।
”अब नहीं बाबूजी। यह नोट मेरी मां को अब वापस नहीं ला सकता।“ कालू ने सिर हिलाते हुए कहा और फिर वह धीरे से वापस मुड़ गया। मैंने डबडबाई आंखों से देखा कि कालू के कंधे पर आज स्कूल के बस्ते के स्थान पर पालिश वाला झोला लटका हुआ था। उसकी इस हालत के लिए मैं भी एक हद तक जिम्मेदार था। इस पीड़ा से विमुक्त होने का मेरे पास कोई मौका नहीं था।

अब नहीं बाबूजी


शहर के मुख्य चैराहे पर स्थित उस हनुमान मंदिर से मेरी बहुत सी भूली बिसरी बातें जुड़ी हुई हैं। मैं बचपन में पिताजी के साथ अक्सर हर मंगलवार को मंदिर जाया करता था।
मेरे मन में सदा यही लालच रहता था कि मंदिर जाने पर ढेर सारा प्रसाद खाने को मिलेगा। आंखे बंद किए भगवान के सामने खड़े पिताजी को देखकर मैं अक्सर सोचता था कि वो आखिर भगवान से मांगते क्या हैं ? ऐसे मौकों पर मैं प्रसाद की थैली पर आंखे गड़ाए रखता था। पुजारी जी जब टीका व चरणामृत देने के बाद प्रसाद की थैली से मिठाई निकालते तो मुझे ऐसा लगता था कि मानो कोई मेरे हिस्से की मिठाई ले रहा हो।
फिर मैं धीरे धीरे कुछ बड़ा हो गया। मुझे अच्छे व बुरे काम में फर्क समझ में आने लगा। अब मैं अपनी छोटी बहन की चाकलेट भी कभी.कभी मौका मिलने पर चुपके से निकाल कर खाने लगा था। जब बहन रो-रो कर सारे घर को सिर पर उठा लेती थी तो मुझे अपनी शैतानी पर बड़ा मजा आता था।
आखिर चोरी के बाद पकड़े जाने से बचने का अपना ही सुख था। पर जब बहन भगवान को साक्षी मानकर चोर को दण्ड देने की प्रार्थना करती तो मैं मन ही मन घबरा जाता था। मैं हनुमान जी से अक्सर माफी मांग कर बहन के शाप से मुक्त होने की कोशिश करता था।
मंदिर जाने का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कभी टूटा ही नहीं। मंदिर के आसपास इकट्ठे होने वाले एक.एक भिखारी प्रसाद मांगने वाले लड़कों व ठेले वालों को मैं पहचानने लगा। यदि कहीं उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता तो मेरी आंखे दूर तक उसको ढूंढती सी नजर आती। कुछ ऐसी ही हालत मेरे बारे में भी थी। मंदिर के आसपास के सभी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे। प्रसाद के छोटे.छोटे टुकड़ों को ठेलम-ठेल के बीच चारों ओर से लपकते हुए हाथों में बांटकर मुझे पुण्य लूटने की संतुष्टि होती थी।
मैं नियमित रूप से एक विशेष मिठाई के ठेले से ही प्रसाद खरीदता था। इसी ठेले वाले के साथ एक लड़का मुझे हमेशा काम करता दिखाई देता था। मैंने मन ही मन उसका नाम कालू रख छोड़ा था। ग्राहकों के चप्पल जूतों का ध्यान रखनाए उनके हाथण्पैर धुलवाना उसका काम था। इसी सुविधा के कारण उस ठेले पर ग्राहकों की कुछ ज्यादा ही भीड़ रहा करती थी।
मंदिर से लौटते समय मैं प्रसाद का एक छोटा सा टुकड़ा कालू को भी देता था। वह मुस्कुरा कर उसको मुंह में डाल लेता था। मेरे नियमित रूप से मंदिर आने पर कालू बहुत प्रभावित था। मेरे लिए उसके मन में अपार श्रध्दा थी। उसकी बातों से पता चलता था कि उसकी हनुमान जी के प्रति असीम आस्था है। वह मुझे हमेशा संतुष्ट दिखाई देता था।
मैं कभी.कभी सोचता था कि मिठाई वाले ने क्यों अपने लड़के को इस काम में लगा रखा है ? वह क्यों नहीं उसको पढ़ाता-लिखाता है।
एक दिन मुझे मालूम चला कि वह मिठाई वाले का बेटा न होकर उसका नौकर है। कालू के पिता नहीं थे और उसकी मां उसकी देखरेख करती थी। कालू स्कूल भी जाता था और इधर-उधर काम करके अपना स्कूल का खर्चा भी चलाता था। मुझे कालू से थोड़ी हमदर्दी सी हो गई लेकिन मात्र मेरी हमदर्दी से कालू का पेट तो भर नहीं सकता था। कालू हमेशा मुझे काम करता मिलता था। पर मैं उसको कभी कुछ दे नहीं सका। वह तो मात्र प्रसाद के एक छोटे से टुकड़े को पाकर ही मेरे ऊपर निछावर था।
एक दिन मैने देखा कि कालू दुकान से दूर खड़ा है। मुझे दुकान वाले ने बताया कि उसने कालू को निकाल दिया है क्योंकि उसने दुकान में चोरी करने की कोशिश की है।
कालू ने उसकी बातों का प्रतिकार करते हुए कहा”बाबू जी यह झूठ बोल रहे हैं। मैंने आज तक चोरी नहीं की है। ये मेरे काम के पैसे नहीं देना चाहते हैं इसीलिए ऐसा कह रहे है। आप मेरे पैसे दिलवा दीजिए नहीं तो मैं स्कूल की फीस नहीं जमा करवा पाऊँगा।“ उसने कातर दृष्टि से बहुत सी उम्मीद के साथ मुझसे कहा।
पता नहीं क्यों कालू की कातर वाणी भी मुझे भेद नहीं पाई। मुझे मन ही मन लगा कि कालू ने जरूर चोरी की होगी। मुझे कालू के भोलेपन में उसकी चालाकी दिखाई देने लगी। मैने धीरे से मिठाई वाले से कहा” सच भाई! आज के जमाने में किस पर विश्वास किया जाए कुछ समझ मे नहीं आता है।“
मैं भगवान के दर्शन कर पुण्य लूटता हुआ घर वापस चला आया। इसके बाद कई मंगलवारों को मुझे कालू नजर नहीं आया। फिर महीनों बाद एक दिन कालू मुझे मंदिर के बाहर खड़ा मिला। मुझे देखते ही वह मेरी ओर चला आया। वह शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने उदास आंखो से कहाण्”बाबूजी मेरी मां बहुत बीमार है। कुछ रूपये उधार दे दीजिए। मैं आपका रूपया जरूर वापस कर दूंगा। आप तो भक्त है। सदा ईश्वर पर विश्वास करते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपको पैसा अवश्य वापस कर दूंगा।“
मैंने कालू को देखा। मुझे लगा वह सच बोल रहा है। मुझे चुप देखकर उसने कहा ”साहब आप पता नहीं कितने रूपये व मिठाई भगवान पर चढ़ा जाते हैं। ढेर सारा पेट्रेIल मंदिर आने के लिए खर्च कर डालते है। एक पचास का नोट मुझे भी उधार दे दीजिए। साहब मेरी मां बच जाएगी।“ उसने व्याकुल आवाज में कहा। उसकी रोनी सी आवाज ने मुझे आहत तो कर दिया किन्तु उस पर पचास रुपया खर्च करने का औचित्य मेरा मन नहीं समझ सका। मैंने उसकी बात का कोई भी जवाब नहीं दिया। मैं आगे बढ़ने लगा तो वह मेरे पैरों में गिर पड़ा और बोला ”बाबूजी मेरी मां मर जाएगी। मैं अनाथ हो जाऊँगा। मेरे ऊपर कृपा करिये बाबूजी। मेरी माँ को बचा लीजिए।“
मैंने टालने के लिए मजबूर होकर कहा ण् ”मेरे पास रुपए नहीं हैं।“
”बाबूजी प्रसाद चढ़ाने के रुपए ही मुझे उधार दे दीजिए। यह मेरे लिए दान के समान होगा।
मैंने उसकी बातें अनसुनी सी कर दीं। मैं एक रूढिवादी की तरह भगवान के दर्शन करने चला गया। जब मैं वापस आया तो वह प्रसाद का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वहां पर उपस्थित नहीं था। मेरा मन खिन्नता से भर गया। मुझे लगा कि मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए था। उसकी सहायता करनी चाहिए थी। आज प्रसाद चढ़ाकर अवश्य ही भगवान प्रसन्न नहीं हुए होंगे। भगवान तो सदा दुखियों के साथ ही रहते हैं।
कालू की सहायता न करने का मुझे बेहद अफसोस था। कालू की पीड़ा मेरे मन में घर कर गई। हर मंगलवार को मैं अब मंदिर के आसपास कालू को ढूंढा करता था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने उसकी सहायता नहीं की। उसके असीम विश्वास को मैंने ठेस पहुंचाई थी। अब मैं कालू की सहायता करके प्रायश्चित करना चाहता था।
फिर एक दिन जब मैं यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट खरीदकर मैं चाय पीने के लिए एक ठेले पर खड़ा था कि तभी किसी की आवाज आई ”बाबूजी नमस्कार! कैसे हैं आप ?“
मैंने देखा कि हंसता हुआ कालू मेरे सामने खड़ा है। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत नहीं थी। मुझे लगा कि वह एकाएक काफी सयाना हो गया है। एक छोटा सा बच्चा इतनी कम उम्र में इतना परिपक्व कैसे बन जाता है ? मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। इससे पहले कि मैं कालू से कुछ पूछता उसने जाने की इजाजत मांगी। मैंने प्रायश्चित के कारण बटुवे से सौ रुपए का एक नोट कालू को देना चाहा पर कालू ने बड़ी ही गंभीरता से कहा ”बाबूजी मुझे अब रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मैं भीख भी नहीं लेता। आज मैं अनाथ हूं। इस दुनिया में अकेला। उस दिन आपने मुझे रुपए नहीं दिए पर किसी और को भी मेरे ऊपर दया नहीं आई। थोड़े से पैसों के कारण मेरी मां चली गई। जब मनुष्य के दुख को मनुष्य नहीं समझ सकता है तो आप कैसे मान लेते हैं कि ऐसे मनुष्यों की पुकार को ईश्वर सुनता होगा“
”माफ करना मुझे।“ मैंने प्रायश्चित की अग्नि में जलते हुए सौ रुपए का नोट पकड़ाने का प्रयास किया।
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कैंचियों से मत डराओ तुम हमें
हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं
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रविवार, 28 दिसंबर 2008

चन्नी : Hindi story by Hem Chandra Joshi


चन्नी




जब भी रक्षा बन्धन का त्योहार आता है तो मुझे एकाएक चन्नी की याद आ जाती है।

बचपन की बात है एक दिन मैंने अपने कमरे की खिड़की से देखा । हमारी कोठी के नौकरों वाले क्वार्टर में एक नया नौकर आ गया था । मेरी हमउम्र उसकी एक बेटी थी । रूखे-सूखे बालों वाली । मुझे पहली नजर में ही वह बिल्कुल पसन्द नहीं आर्ई। उसके मां बाप उसे प्यार से चन्नी कहते थे। मैं उसे खिड़की से आवाज देकर चिढ़ाता था - ”चवन्नी“ । वह चिढ़कर रोती और मैं चुपके से खिड़की से हटकर उसके रोने की आवाज सुनकर खुश होता ।

चन्नी कभी कभी अपनी मां के साथ हमारे घर आ जाती थी । उसकी मां मेरी मां के कामांे में हाथ बंटाती थी । ऐसे मौकों पर चन्नी सहमी सी पर ललचाई आंखों से मेरे खिलौनों को एकटक देखा करती । पर उनको छूने का साहस उसको कतई न था । मैं शान दिखा-दिखा कर अपने खिलौनों से खेला करता । शायद इस प्रकार शान दिखाने मंे मुझे अपना बड़प्पन दिखाई देता था ।

मुझे कहानी पढ़ने का बहुत शौक था । इन्हीं कहानियों के बीच एक बार मुझे लोरेंस नाइटिंगेल की कथा पढ़ने को मिली । कथा पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा । मेरे मन में भी कुछ महान काम करने के विचार आने लगे। मैं हरदम यही सोचा करता कि दुखियों की सेवा, सहायता कैसे करूं । मैंने अपनी मां से इस विषय में विचार किया । मां ने मुझे समझाया कि तुम किसी गरीब की सहायता कर सकते हो । किसी जानवर की मलहम पट्टी कर सकते हो या फिर किसी अंधे को रास्ता दिखा सकते हो । किसी गरीब व अनपढ़ बच्चे को पढ़ाना भी तो सेवा ही है।

मैंने बहुत विचार किया कि मुझे अपने अभियान को कहां से शुरू करना चाहिए । ऐसे में मुझे चन्नी की याद आई । मुझे लगा, चन्नी इतनी बुरी नहीं है। वह ढेर सारा काम करती है, इसीलिए गंदी रहती है । उसके पास न अच्छे कपड़े हैं और न कोई उसकी ठीक से देखभाल करता है । यहां तक कि किसी को उसकी शिक्षा की भी परवाह नहीं है । बस, मैंने चन्नी को पढ़ाने का निर्णय ले डाला । मैंने उसकी परीक्षा ली । मुझे लगा कि वह अच्छी खासी बुद्धिमान है।

अब चन्नी रोजाना मेरे पास आने लगी । मैं उसको पढ़ना व लिखना सिखाता। कभी-कभी हम साथ खेल भी खेला करते । पर मेरे पिताजी को यह अच्छा न लगता। वे अक्सर मां के ऊपर नाराज होते। मेरा चन्नी के साथ खेलना उन्हें कतई पसन्द नहीं आया । क्योंकि वह नौकर की बेटी है । पर मेरे सेवा भाव के विचार को सुनकर उन्होंने मुझसे कहा, ”अमित, मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं । वास्तव मंे तुम्हारे विचार बहुत अच्छे हैं। मैं चाहता हूं कि तुम्हें सफलता मिले । पर एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा क्योंकि तुम्हारा अनुभव बहुत कम है। कुछ लोग दूसरों की गलतियों से सीखते हैं और संभल जाते हैं। पर कुछ लोग मात्रा अपनी गलतियों से ही सीखते हैं और जीवन में नुकसान उठाते रहते हैं।“

पिताजी तो कहकर चले गये । पर उन्होंने क्या बताया मैं समझ नहीं पाया। मैंने तो अपने अभियान में लगातार आगे बढ़ते रहने की ठान रखी थी । कुछ ही दिन में चन्नी ने मुझसे बहुत कुछ सीख लिया । वह साफ-सुथरी भी रहने लगी । वह हमेशा इस बात का ध्यान रखती कि मुझे डांटने का मौका न मिले । पढ़ने के प्रति उसके मन में असीम उत्साह था । हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा बन गया था । रक्षा बंधन के पर्व पर उससे राखी बंधवा कर मैंने उसे अपनी बहिन बना लिया था। पर इस सब रिश्तों के बीच अब भी एक लकीर थी । मालिक के लड़के और नौकर की लड़की की । चन्नी ने भी कभी किसी चीज के लिए बहिन जैसा अपना हक नहीं जताया ।

शायद यह मेरे चैदहवें या पन्द्रहवें जन्मदिन की बात है। घर में एक जोरदार दावत हुई । ढेरों मेहमान हमारे घर आए । मुझे इतने सारे उपहार मिले कि मैं फूला न समाया । ढेर सारे रुपए भी लोगों ने मुझे दिये । रात देर तक मेहमानों का आना-जाना रहा । सुबह उठते ही मैंने अपने खिलौनों व उपहारों को समेटा । एक से बढ़कर एक रंग-बिरंगी पुस्तकें भी मुझे भेंट में मिली थीं । मैंने रुपयों को गिना। शायद सोलह सौ तीस रुपए थे। जब चन्नी आई तो मैं रुपयों की गड्डियां बना रहा था । एक, दो, पांच व दस के नोटों की अलग-अलग गड्डियां थीं । सौ के नोट मैंने एक पुस्तक में दबा कर रखे थे। चन्नी को बड़े उत्साह के साथ मैंने सभी चीजें दिखायी । दावत में वह मेरी बहिन की हैसियत से नहीं बुलवाई गई थी। हां, अपनी मां के साथ काम करने जरूर आई थी । इसलिए उसने सभी उपहारों को बड़ी उत्सुकता से देखा । रुपयों की गड्डियों को देखकर तो वह चैंक सी उठी । ‘इतने ढेर सारे रुपए और वे भी सब आपके ।’ वह आश्चर्य से बोली थी ।

कुछ देर बाद चन्नी चली गई। मैंने अपने खिलौनों को वापिस डिब्बों में रखा। पुस्तकों को ढंग से अलमारी में सजाया। फिर आई रुपयों को रखने की बारी। मैंने रुपयों को रखने से पहले गिना और फिर बार-बार गिना। मैं चैंक पड़ा। रुपयों में सौ-सौ के तीन नोट कम थे। मैंने पूरी कोशिश की कि मैं रुपयों को ढंूढ निकालॅूं। पर मेरी कोशिश नाकामयाब रही। कमरे में न कोई आया था और न कोई गया था। मात्रा मैं और चन्नी वहां थे। तो फिर क्या चन्नी रुपये चुरा कर ले गई ? मेरा दिल यह मानने को तैयार न था। पर मेरे मन में उठ रहे तर्क इस बात से सहमत न थे। मेरे मन का पूरा शक चन्नी पर था। आखिर एक गरीब और नौकर की बेटी से उम्मीद ही क्या की जा सकती थी। ऐसा ही कुछ विचार मेरे मन में जन्म ले रहा था। मैंने एक बार फिर अपनी जेबों को टटोला और रुपयों को गिना। सचमुच तीन सौ रुपये कम थे। चन्नी ने रुपये मांगे होते तो मैं उसको सहर्ष दे देता। पर उसकी चोरी ने मेरे सारे सपनों में पानी फेर दिया था। चन्नी ने ही आखिर चोरी की। मैं क्रोधित हो उठा। मैंने मां से शिकायत की और मां ने चन्नी की मां और पिता से।

चन्नी के घर से बहुत देर तक चीखने चिल्लाने की आवाजें आई। चन्नी के पिता ने बड़ी बेदर्दी से उसकी पिटाई की। पर चन्नी ने यह नहीं बताया कि उसने रुपए कहां छिपाए हैं। सीधी-सादी दिखने वाली चन्नी इतनी ढीठ हो सकती है, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं मुंह फुलाए बिना खाना खाए अपने कमरे में पड़ा रहा। मुझे किसी भी हालत में अपने रुपए वापस चाहिए थे।

दिन के समय चन्नी का पिता मेरी मम्मी के पास आया। उन दोनों के बीच न जाने क्या खुसर-फुसर हुई। मां ने आकर बताया कि मेरे रुपए वापिस मिल गये हैं। मैंने रोनी सूरत के साथ अपने तीन सौ रुपए ले लिये। मेरा मूड कुछ ठीक हो गया। पर उस दिन के बाद पता नहीं क्या हुआ कि घर से चन्नी की आवाजें आनी बंद हो गयी। शायद शर्म के मारे उसने घर से निकलना बंद कर दिया था। बेचारी घर से बाहर आती भी कैसे ? मैंने मन ही मन विचार किया। पर उसके मां-बाप उसको क्यों नहीं आवाज देते, यह मैं कई दिन तक सोचता रहा। मैं हर पल प्रतीक्षा करता कि चन्नी मेरे पास आ जाए। मैं जानना चाहता था कि उसने चोरी क्यों की थी ?

पर मुझे यह मौका नहीं मिला। एक दिन पिताजी ने मां से पूछा कि कई दिन से चन्नी नहीं दिखाई दे रही है। क्या वह बीमार है ? तब मां ने बताया कि उसका पिता चन्नी को गांव छोड़ आया है। अब वह गांव में अपने चाचा के पास ही रहेगी। माॅं ने पूरी घटना की जानकारी पिताजी को दी। पिताजी कुछ नहीं बोले। पर उन्होंने एक ही बात कही कि चन्नी चोरी नहीं कर सकती। जरूर हम लोगों को गलतफहमी हुई है। मैं एक बार फिर पिताजी के विचार सुनकर हतप्रभ रह गया। पिताजी हमेशा मुझे चन्नी के साथ न खेलने की हिदायत देते थे। उसके साथ खेलने पर उन्हें मेरे बिगड़ने का भय था। अब उनका कहना बिल्कुल विपरीत था। उसके अनुसार चन्नी एक भोली भाली लड़की थी। जो चोरी कदापि नहीं कर सकती थी।

खैर, बात आई गई हो गई। मैं चन्नी को भूल सा गया। कभी-कभी मैं मम्मी के पास बैठी चन्नी की मां को अपनी मैली धोती के आंचल से आंसू पोंछते देखता था। चन्नी के चले जाने के बाद से वह क्यों रोती है, मैं अक्सर सोचा करता। पर जब भी मैं बातें सुनने की कोशिश करता तो चन्नी की मां चुप हो जाती।

कई महीने बीत गए। मैं कभी-कभी चन्नी की मां से पूछता कि अब चन्नी कब आएगी। पर वह मुझे ऐसे ही बहला-फुसला कर टाल देती। पर एक दिन चन्नी की मां ने मुझे बताया कि यह उसके वश में नहीं है। शायद अब चन्नी कभी वापस न आए। यह तो अब चन्नी के बापू की ही इच्छा पर निर्भर है। कहते कहते उसे रुलाई आ गई। चन्नी की मां रोई क्यों ? यह मेरी समझ में नहीं आया। पर मैंने चन्नी के बापू से बात करने का निर्णय लिया।

चन्नी की बात सुनकर उसका बाप दुखी हो उठा। चन्नी के व्यवहार से वह अत्यधिक शर्मिन्दा था। उसका मानना था कि इतने लाड़ प्यार के बाद भी चन्नी ने चोरी की। इसलिए वह कतई माफी के योग्य नहीं थी। पर चोरी के पैसे उसने कहां छिपाए थे वह उस दिन तक नहीं जान पाया था। इसके बाद इसने चन्नी को जी भर कर कोसा।

उसकी बात सुनकर मैं चैंक उठा। इसका मतलब जो रुपये मुझे मेरी मां ने लौटाए थे वे चन्नी से नहीं मिले थे। यानी कि चोरी के रुपये चन्नी से कभी मिले ही नहीं और मां ने अपने पास से रुपए मुझे दे दिए थे। शायद मुझे खुश करने के लिए।

परीक्षा के बाद मैंने अपनी किताबों की अलमारी ठीक की। फिर एक कहानी की किताब छांटकर पढ़ने के लिए बिस्तर में बैठ गया। मैंने किताब का पहला पृष्ठ खोला तो मालूम चला कि किताब किसी ने मुझे मेरे जन्म दिन पर दी थी। पुस्तक का नाम था - ”प्यार के रिश्ते“। पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने लिखा था - ”रिश्ते बनाने तो बहुत आसान होते हैं पर उनको निभाना बहुत मुश्किल काम है। मात्रा बीज बो देने से पौधे नहीं बन जाते वरन उनको सींचना भी पड़ता है।“ इन पंक्तियों को भेंट-कर्ता ने स्याही से रेखांकित किया था। आखिर किसकी भेंट थी यह? मैंने पुस्तक के पृष्ठ उलट-पुलट कर देखा। चन्नी का नाम देखकर मैं चैंक पड़ा। मुझे याद आया कि चोरी वाली घटना के दिन चन्नी इसी पुस्तक को लिए खड़ी थी। मैंने समझा था कि उसने मेरी पुस्तक उठा रखी है। पर शायद ढेर सारी रंग बिरंगी किताबों और उपहारों के बीच वह अपनी भेंट देने का साहस शायद नहीं कर पाई थी। इसलिए उसने चुपके से पुस्तक को अलमारी में सजा दिया था।

एकाएक मेरे मस्तिष्क में उस दिन की घटना एक बिजली की भांति कौंध पड़ी। मैंने पुस्तकों को एक-एक करके पलटना शुरू किया। आश्चर्य! आशा के अनुरूप एक पुस्तक से सौ-सौ के तीन करारे नोट हवा में लहरा कर जमीन पर बिखर गये। मुझे लगा ये नोट नहीं बल्कि मेरा झूठा अभिमान टूट कर जमीन पर बिखरा था। ये बिल्कुल नए नोट थे जो मैंने घटना के दिन छांटकर उस पुस्तक में रख दिए थे। चन्नी के साथ बातचीत में मशगूल होकर मैं उनके बारे में बिल्कुल भूल गया।

अपनी लापरवाही, झूठे लांछन और मिथ्या बड़प्पन को बचाए रखने के लिए मैंने अपनी इस गलती को आजतक कभी भी जग जाहिर नहीं होने दिया। चन्नी कलंकित ही रह गई और कभी वापस नहीं आ सकी। मेरी गलती के कारण न जाने उसको कितना अपमान, मानसिक क्लेश व प्रताड़ना मिली थी।

इस झूठ को छिपाए वर्षों बीत गए हैं। राखी के धागों की याद ने बार-बार इस झूठ के घाव को छेड़कर नासूर बना दिया है। मुझे नहीं लगता है कि मैं इसे अब और बर्दाश्त कर सकता हूं। अपने अपराध को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास अब कोई चारा नहीं है। अनुभव से पता हो गया है कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था। मुझे यह भी मालूम चल गया है कि चन्नी की मां मैली धोती के आंचल से यदा-कदा चन्नी की याद में क्यों आंसू पोंछा करती थी। काश! मैं तब ही चन्नी के पिता, मां से सारी बात सच-सच कहकर चन्नी को वापिस बुलवाने को कहता। चन्नी से माफी मांग लेता तो आज तक मन में मलाल तो नहीं रहता। भगवान तू हम सब को इतनी ‘ाक्ती जरूर दे कि हम सच का सामना कर सकें।




कैंचियों से मत डराओ तुम हमें
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

शिखर की अंतरिक्ष यात्रा By Hem Chandra Joshi


बाल उपन्यास
शिखर की अंतरिक्ष यात्रा



शिखर बहुत खुश था क्योंकि उसे अभी अभी अपने मामा जी का पत्र मिला था. उस के मामा अंतरिक्ष में स्थित भारत के विक्रम साराभाई नगर में वैज्ञानिक थे. पत्र इस प्रकार थाः

विक्रम साराभाई अंतरिक्ष नगर,
दिनांक 22 नवंबर, 2025

प्रिय शिखर ,
सदा खुश रहो तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है. मुझे एक विशेष वैज्ञानिक योजना में काम करना है. जिसमें मैं बार-बार अंतरिक्ष नगर व पृथ्वी के बीच भ्रमण करूंगा. इस बीच यदि तुम चाहो तो 4-5 दिन के लिए मेरे साथ अंतरिक्ष नगर आ सकते हो. अपने माता पिता से पूछ कर चलने कि योजना बना लेना. यहाँ रजत और कनी तुमको बहुत याद करते हैं .

बहुत बहुत प्यार. शेष मिलने पर.


तुम्हारा,
छोटा मामा


शिखर अक्सर मामा जी के पास जाने की कल्पना करता था. उसकी बहुत इच्छा थी कि वह चन्दा मामा व प्यारी धरती को एक साथ निहार सके. उसने पुस्तकों में धरती के अनेक चित्र देखे थे. विज्ञान की किताबो में पढ़ा था कि पृथ्वी भी चंद्रमा की तरह गोल है. वह सोचता था कि अंतरिक्ष से अपनी धुरी पर घूमती हुई धरती कैसी दिखाई देती होगी ? शायद आकाश में लटके एक बडे ग्लोब की भांति , किसी लट्टू की तरह चक्कर काटती दिखई देती होगी ? वह सोच सोच कर रोमांचित हो उठता था.

इसीलिए वह मामाजी से मिलने पर सदा एक ही प्रश्न करता था, ”अंतरिक्ष से धरती कितनी तेजी से घूमती हुई दिखलाई देती है?“

तब मामा हंस कर कहते, ”’शिखर तू तो बिलकुल बुद्वू है. पृथ्वी कोई घूमती हुई थोड़ी दिखती है.... वह तो बिलकुल ऐसे ही दिखती है, जैसे कि चंद्रमा “

शिखर यह सुन कर सोच में पड़ जाता. उसे कुछ समझ में न आता था. मामा की यह बात उसे बार बार चक्कर में डाल देती थी. उसे कक्षा में बताया गया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती है, जिस के कारण यहां रात और दिन होते हैं. पृथ्वी जरूर घूमती दिखाई देनी चाहिए. उस का विचार था कि मामा ने ध्यान से धरती को कभी देखा नहीं होगा. वह अचकचा कर पूछता, ”बिलकुल चन्द्रमा की तरह ? तो पहचान कैसे करूंगा?“

मामाजी हंस कर कहते, ”अब तुम को एक बार अंतरिक्ष में ले जाना ही पडे़गा. सच, धरती अंतरिक्ष से बहुत संुदर दिखती है. इस को तो अपने हरे रंग के कारण कोई भी पहचान सकाता है.“

अब मामाजी अपना वादा पूरा करने वाले थे. शिखर ने अंतरिक्ष नगर जाने की तैयारी जोर शोर से शुरू कर दी. एक अटैची में ढेर सारा सामान एकत्र करना शुरू कर दिया. शिखर के पिताजी ने उसे समझाया कि उसे कम से कम सामान ले कर जाना चाहिए. पर सामान कम रखते रखते भी उस की अटैची भारी हो गई, इतनी भारी कि उस के लिए उसे ले कर चलना मुश्किल हो गया. लेकिन उस के हिसाब से सभी सामान जरूरी था. उस ने घर में किसी की बात न सुनी.

मामाजी के आते ही उस ने शिकायत की. तब उन्होंने कहा, ”कोई चिंता की बात नहीं है. मेरे पास अपना कोई सामान नहीं है, इसलिए मैं सब कुछ संभाल लूँगा .“
शिखरप्रसन्न हो उठा। उस को ख़ुशी थी कि वह रजत व कनी के लिए खरीदे हुए उपहार, यानी चाकलेट व खिलौने आसानी से ले जा पाएगा जो उसे इनाम में मिली थीं. आखिर किताबें दिखा कर उस ने मामी से भी तो शाबाशी लेनी थी.



अन्तरिक्ष मे चोरी 

आखिर एक दिन वह मामा के साथ अंतरिक्ष स्टेशन  में पहुंच गया. अंतिरक्ष शटल  में बैठने से पहले उन्हें विशेष  प्रकार के कपडे दिए गए, जिन का नाम अंतरिक्ष सूट था. आव’यक सुरक्षा जांच के बाद वे अपनी सीटों पर जा बैठे. अटैची उन से स्टेशन पर ही ले ली गई. अटैची में एक रंगबिरंगा स्टिकर लगाने के बाद उन को एक टोकन दे दिया गाया.

शिखर चिंतित हो गया कि कहीं कोई उस की अटैची से किसी प्रकार की छेडछाड न कर बैठे. उस ने सोचा था कि वह यात्रा में अटैची को उपने पास ही रखेगा. इसी वजह से उस ने उसे में ताला भी नहीं लगाया था. पूरी यात्रा में उस को यही  चिंता सताती रही कि कहीं उस के सामान की चोरी ने हो जाए. उस को अत्यधिक चिंतित देख कर मामा ने उस को बताया कि सब यात्रियों का सामान अंतरिक्ष शटल के सामान कक्ष में बंद है. वहां अब कोई नहीं जा सकता, पर  शिखर की चिंता कम न हुई.

अंत में वे अंतरिक्ष नगर पहंच गए. शटल से उतरने के बाद उन्होंने थोडी दे अंतरिक्ष स्टेशन में इंतजार किया. जल्दी ही यात्रियों का सामान आ गया. मामाजी ने टोकन दे कर अपनी अटैची ले ली. शिखर से रहा नही गया. उस ने उपनी अटैची देखने के लिए ज्यों ही उस को उठाया, चौंक गया. अटैची एकदम हलकी  की. घर  में उसे अटैची उठाने में बहुत परेशानी  हो रहीं थी. पर अब तो अटैची एकदम खाली थी.

वह जोर से चिल्लाते हुए मामाजी से बोला, ”मैं ने कहा था न... यह देखिए, मेरा सामान अंतरिक्ष यान में चोरी हो गया“ है कहतेकहते उसे की आंखों से आंसू टपकने लगे. 

”क्या हुआ, बेटे?“ मामाजी ने घबरा कर पूछा. उन को समझ में नहीं आया कि शिखर को चोरी का पता कैसे चता है, क्योंकि अटैची तो अभी खोली नहीं गई. 

उन्होंने पूछा, ”क्या खो गया है?“

”अभी बताता हूं?“ सुबकते हुऐ उस ने कहा. फिर अटैची खोली तो देखा कि सामान ठीक वैसे का वैसा ही रखा हुआ है. वह आ’चर्यचकित था. उस ने अटैची बंद की. फिर दोबारा उस को उठा कर देखा अटैची बहुत हलकी थी. 

उस ने अटैची को ले कर चलने की कोशिश की तो पाया कि वह उस को आराम से ले कर चल सकता है. शिखर हैरानी से अटैची को देखने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इतनी हल्की कैसी हो गई है.


अंत में वे अंतरिक्ष नगर पहुँच गए. शटल से उतरने के बाद उन्होंने थोडी दे अंतरिक्ष स्टेशन में इंतजार किया. जल्दी ही यात्रियों का सामान आ गया. मामाजी ने टोकन दे कर अपनी अटैची ले ली. शिखर से रहा नही गया. उस ने उपनी अटैची देखने के लिए ज्यों ही उस को उठाया, चोंक गया. अटैची एकदम हलकी  की. घर  में उसे अटैची उठाने में बहुत परेशानी हो रहीं थी. पर अब तो अटैची एकदम खाली थी. 
वह जोर से चिल्लाते हुए मामाजी से बोला, ”मैं ने कहा था न... यह देखिए, मेरा सामान अंतरिक्ष यान में चोरी हो गया“ है कहते कहते उसे की आंखों से आंसू टपकने लगे. 
”क्या हुआ, बेटे?“ मामाजी ने घबरा कर पूछा. उन को समझ में नहीं आया कि शिखर को चोरी का पता कैसे चता है, क्योंकि अटैची तो अभी खोली नहीं गई थी .
            उन्होंने पूछा, ”क्या खो गया है?“
”अभी बताता हूं?“ सुबकते हुऐ उस ने कहा. फिर अटैची खोली तो देखा कि सामान ठीक वैसे का वैसा ही रखा हुआ है. वह आ’चर्यचकित था. उस ने अटैची बंद की. फिर दोबारा उस को उठा कर देखा अटैची बहुत हलकी थी.
उस ने अटैची को ले कर चलने की कोशिश की तो पाया कि वह उस को आराम से ले कर चल सकता है. शिखर हैरानी से अटैची को देखने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था  कि वह इतनी हल्की कैसी हो गई है.
फिर उस ने मामा जी की ओर देख कर कहा , ”सामान तो सही सलामत है, पर मेरी अटैची बहुत हलकी  हो गई है. घर से चलते वक्त मैं अटैची को ठीक से उठा भी नहीं पा रहा था, पर अब मैं इसे आराम से ले कर चल सकता हूं. क्या मैं ज्यादा ताकतवर हो गया हूँ ?“
मामाजी खिलखिला कर हंस पडे, शिखर ने देखा कि कई यात्री व अंतरिक्ष स्टेशन के कर्मचारी भी उनके साथ हंस रहे हैं उसे समझ में न आया कि इस में हंसने की क्या बात हैं.
मामाजी व शिखर अपने घर की ओर चल दिए. रास्तें में मामा ने समझाया, ”बेटे, चुंबक की तरह पृथ्वी हर चीज को अपनी ओर खींचती हैं, जिस के कारण हम को वस्तु का भार महसूस होता हैं पृथ्वी से दूरी बढने पर यह खिचाव कम होता जाता है और वस्तु हलकी होती जाती है. यह खिचाव यहां अंतरिक्ष स्टेशन में धरती के मुकाबले बहुत कम है... इसीलिए यहां हर चीज पृथ्वी के मुकाबले बिना भार की मालूम होती है. यही कारण है कि तुम्हें अपनी अटैची इतनी हलकी लग रहीं है.“
शिखर ने कुछ और चीजों को भी उठा कर देखा तो पाया कि हर चीज बिना भार की है.
अदभुत  शांति
अंतरिक्ष स्टेशन  पर जगह जगह टीवी परदे लगे हुए थे, जिन में उड़ान से संबंधित विभिन्न सूचनाएं दी जा रही थीं. बीचबीच में में उद्घोषिका महत्वपूर्ण सूचनाओं को अलग से बाता रहीं थी. एकाएक स्टेशन में लगे टीवी परदों में आपातकालीन सूचना प्रसारित होने लगी. सूचना के अनुसार, एक कर्मचारी को दिल का दौरा पडा था, अतः ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर को तुरंत बुलाया जा रहा था सूचना लगातार प्रसारित हो रहीं थी. ऐसा लगता था कि ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर किसी उन्य मरीज को देखने में व्यस्त है, जिस के कारण उस को आने में देर हो रही है.
तभी शिखर  की नजर एक बड़े से बोर्ड के ऊपर गई, जिस पर लिखा थाः
चेतावनी
यात्रियों को चेतावनी दी जाती है कि वे अपने अंतरिक्ष सूट को ठीक प्रकार से पहन लें. सभी यात्री दरवाजे को पार करते ही खुले अंतरिक्ष में प्रवेश करने जा रहे है अतः अंतरिक्ष  स्टेशन  अंतरिक्ष नगर को जोडने वाले पुल पर चलते समय वे कदापि अपने  अंतरिक्ष सूट को ने खेलें बिना अंतरिक्ष सूट के अंतरिक्ष पुल पर प्रवेश  करना मृत्यू को आमंत्रण देने के समान हैं.
आज्ञा से,
अन्तरिक्ष स्टेशन निदेशक.
शिखर  ने देख कि सभी यात्री अपने अपने अंतरिक्ष सूट ठीक प्रकार से बांध रहे है. मामाजी ने उस का सूट भी ठीक कर दिया टीवी परदों पर अभी भी उद्घोषिका ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर को तुंरत  मरीज तक पहुंचने का निवेदन कर रही थी.
मामाजी ने अंतरिक्ष सूट को बांधते हुए शिखर  को बताया कि अन्तरिक्ष नगर   अन्तरिक्ष स्टेशन आपसे में एक पुल से जुडे हुए हैं. दरवाजे को पार करते ही वे अन्तरिक्ष में बने इस पुल पर प्रवेश  करेंगे. अतः वह पुल से एकसाथ अन्तरिक्ष नगर स्टेशन को देख सकेगा.
मामाजी का हाथ पकड कर शिखर  ने ज्यों ही पुल में खुलने वाले दरवाजे को पर किया कि उस को अजीब सा महसूस हुआ उसे समझ मे नहीं आया कि एकाएक यह क्या हो गया है? वहां कोई शोर  और आवाज थी, बल्कि   अदभुत शांति  थी. ऐसी शांति,  जो उस ने कभी महसूस नहीं की थी.
अरे, मेरे कानों को क्या हो गया?, शिखर  मन नही मन बुदबुदाया उसने मामाजी से घबरा कर कहा मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है मुझे क्या हो रहा हैं
पर मामाजी पर उस की बात का कुछ  भी असर हुआ वह सीधे चलते ही रहें. शिखर  ने उनसे चिल्ला कर फिर कहा. उस  को लगा कि वह चिल्ला तो  रहा है.  पर आवाज नहीं हो रही. ‘क्या कानों के साथ मेरी आवाज भी गायब हो गई?, उस ने सोचा  कि वह नाहक ही अंतरिक्ष नगर चला आया. उस की आवाज सुनने की शक्ति,  दोनों ही समाप्त हो चुकी हैं उसने सामने की टीवी स्क्रीन पर देखा. उद्घोषिका की आवाज भी उस को सुनाई नहीं दे रही थी. पर स्क्रीन  पर लिख रहा थाः 
डाक्टर, आप तुरंत हार्ट अटैक के मरीज को देखने के लिए पहुंचें. मरीज की हालत बहुत चिंताजनक है.’
तभी शिखर  ने देखा, उनके अंतरिक्ष शटल का चालक उनकी ओर बड़ी तेजी से चला रहा है. चालक ने उनके आगे चलने वाले एक लंबे खूवसूरत व्यक्ति को जोर से झंझोडा.
उस व्यक्ति ने जब पलट कर देखा तो चालक ने उस के हाथ में एक कागज थमा दिया. पुल के उपर का एकाएक यातायात थम गया. जगह कम होने के कारण लोग आगे नहीं बढ सकते थे. ब वह व्यक्ति कागज को पढ रहा था तो शिखर ने भी उचक कर देखा कागज पर लिखाथाः

कर्नल कृपाल,

स्टेशन में ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर किसी अन्य मरीज को देखने में व्यस्त हैं. हमारे कंप्यूटर में उपलब्ध सूचना के आधार पर यह मालूम हुआ है कि पूरी अंतरिक्ष स्टेशन में आप ही एक मात्र डाक्टर हैं. यदि आप बुरा मानें तो कृपया हार्ट अटैक के मरीज को प्राथमिक चिकित्या देने की कृपा करें. हमारा विश्वाश है कि सेना के अनुशासित  डाक्टर होने की वजह से आप हमें निराश  नहीं करेंगें.’
शिखर ने देखा कि कर्नल कृपाल ने सहमति से आपना सिर हिला दिया. एकाएक पुल पर लगी बेल्ट उलटी दिशा  में चलने लगी यात्री फिर अंतिरिक्ष स्टेशन पर वापस पहुच गए. दरवाजे को पर करते ही शिखर  चोंक उठा.  उस के कान आवाज फिर ठीक हो गई थी उस को स्टेशन का कोलाहल और लोगों की बातचीत फिर सुनाई देने लगी.
उस ने अपनी समस्या के बारे में मामा जी को बताया तो वह मुसकराए और बोले, ”मैं तो तुम को बताना भूल ही गया था. यह अनुभव तो अंतरिक्ष में सभी को होता है. आवाज को एक जगह से दूसरी जगह तक जाने के लिए किसी किसी चीज की जरूरत होती है. यह चीज हवा, पानी या फिर कोई तार भी हो सकता है, जो कि दोंनों जगहों को आपस में आपस में जोडता हो. अंतरिक्ष के चारों ओर हवा या अन्य कोई चीज तो है नहीं. इसलिए तो तुम कोई आवाज सुन सके और ही कोई तुम्हारी बात सुन सका.  पृथ्वी पर चारों ओर हवा होती, जिस के कारण ही आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती है अंतरिक्ष में हम पृथ्वी की भांति बातचीत नहीं कर सकते.“
पर मामाजी हम इस समय भी तो अंतरिक्ष में ही स्टेशन के अंदर हम पृथ्वी की भांति ही कैसे बातचीत कर पा रहे है?“

क्योंकि अंतरिक्ष स्टेशन में भी पृथ्वी भांति ही हवा है, जिस के कारण आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा पा रही है इसी के कारण हम बातचीत कर पा रहे है.“
 कर्नल कृपाल को अंतरिक्ष स्टेशन में छोडने के बाद सभी यात्री दोबारा अंतरिक्ष नगर जाने के लिए तैयार  हो गए.
अंतरिक्ष नगर
पुल से शिखर ने देखा कि अंतरिक्ष यान स्टेशन, विक्रम साराभई अंतरिक्ष नगर के एक कोने में स्थित है. उस समय स्टेशन सूर्य के प्रकाश  से जगमगा रहा था. अंतरिक्ष पुल पर भी दोपहर जैसा प्रकाश   फैला हुआ था.
एक छोटे से दरवाजे से गुजरते हुए उन्होंने अंतरिक्ष नगर में प्रवेश किया शिखर  को लगा कि बातावरण में एकाएक बदलाव गया है. मामाजी ने उसे अंतरिक्ष सूट उतारने को कहा. उन्होंने  बताया कि अंतरिक्ष नगर के अंदर पृथवी की भांति  ही बनावटी वातावरण बनाया गया है अतः अंतरिक्ष सूट की आवश्यकता  अब नहीं है.
बनावटी वातावरण?“ शिखर  ने आश्चर्य  से पूछा, ”इसका क्या मतलब होता है?“
बेटे, धरती पर हमारे चारों ओर हवा होती है. इस हवा से हम आक्सीजन नाम की गैस लेते है. यह गैस हमारे जीवन के लिए जरूरी है अन्यथा हमारा दम घुट जाएगा और हम मर जाएंगे. इस के अलाबा हमारे चारों ओर का वातावरण तो  बहुत ठंडा  होना चाहिए और ही बहुत गरम... ”मामाजी ने कहा.
 शिखर  ने बात काट कर कहा, ”इस का मतलब अंतरिक्ष नगर में इन सब बातों की व्यवस्था की गई है यहां हवा के साथ साथ हमारे शरीर  के हिसाब से ताप भी निश्चित  रखा जाता  है.“
बिलकुल ठीक. पर इस के साथ एक और बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है... वह है हवा का दबाव. धरती की सतह से काफी उंचाई तक हवा फैली रहती है. यह हवा हमें चारों  ओर से एक निश्चित  ताकत से दबाती है वैसा ही दबाव हमें अंतरिक्ष में भी बनाए रखना पड़ता है.“
पर मामाजी. आप ने यह तो बताया ही नहीं कि हम अंतरिक्ष सूट क्यों पहनते है?“
अंतरिक्ष सूट 2 प्रकार से हमारी सहायता करता है. इस के अंदर  आवश्यक  हवा का दबाव बनाए रखा जाता है ताकि हमें अंतरिक्ष में किसी प्रकार की परेशानी  हों
 और यह दूसरी तरह से हमारी सहायता कैसे करता है?“ शिखर  ने पूछा.
            बेटे, सूर्य की किरणें में पराबैगनी नामक किरणें भी होती है, जो हमारे “’शरीर के लिए नुकसानदायक हैं. अंतरिक्ष सूट उन से भी हमारेशरीर की रक्षा करता है.“
बातचीत करते हुए शिखर और मामाजी काफी दूर चले गए. शिखर  ने पाया कि अंतरिक्ष नगर उपर की ओर से पूरी तरह से किसी पारदर्शी  प्रकार  जैसी वस्तु से ढका हुआ है. सूर्य की किरणें उस से छन कर  अन्दर  रहीं थी. मामाजी ने बताया कि इन पारदर्शी से सूर्य का मात्र वही प्रकाश अंदर सकता है, जो जीवन के लिए हानि रहित है.
इस का मतलब सूर्य का पराबैगनी प्रकाश अंतरिक्ष नगर के अन्दर नहीं पा रहा हैशिखर ने पूछा.
बिलकुल ठीक
पर इन  शीशों बीच में  विशेष प्रकार के  शीशों की कतार क्यों हैं?“
मामाजी बोले, ”यह सूर्य के प्रकाश से बिजली पैदा करने वाले उपकरण है इन्हें सौर सेल कहते है. अंतरिक्ष में इन्हीं की सहायता से बिजली पैदा की जाती है
शिखर को  बिजली बात सुन कर एक बात याद आई. उस ने पाया कि पूरे अंतरिक्ष नगर में कहीं पर भी प्रकाश  की कोई व्यवस्था  दिखाई नहीं दे रहीं. रास्ते में भी बल्ब ट्यूबलाइटे कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं.  अभी वह इस बारे में प्रश्न  पूछने ही वाला था कि मामाजी ने कहा, ”शिखर  हमारा घर या है. वह देखो, छत पर कौन बैठा है?“

शिखर  ने सिर उठा कर देखा सामने छत पर बैठे कनी और रजत मुस्करा रहे थे. दोंनो ने चिल्ला कर कहा, ”मां, शिखर गया है.

   मुस्करा दिखाई अन्दर वातावरण छोटे लिखा एकाएक आगे शीशों विशेष  शीशे “



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