बुधवार, 25 मार्च 2015

थैंक्यू डाक्टर

थैंक्यू  डाक्टर
कहानी: हेम चन्द्र जोशी 




मेरा काम ही ऐसा है कि छोटे बच्चे मेरे पास आना पसंद नहीं करते हैं। जो आता भी है उसे जाने कितना बहला व फुसला कर उनके माता-पिता मेरे पास लाते हैं। मेरे क्लीनिक के आगन्तुक कक्ष तक तो अक्सर सब ठीक ठाक चलता है। पर डैंन्टल चेयर पर बैठते-बैठते करीब-करीब सभी बच्चे की सांसे थम सी जाती है।
एक दिन की बात है। एक व्यस्ततम दिन का कार्य निपटा कर मैं क्लीनिक से घर पहुंचा ही था। तभी मुझे लगा कि बाहर कोई आया है। मालूम करने पर पता चला कि एक महिला एक बच्ची के साथ खड़ी  हैं। वे बच्ची को दिखाना चाहती थी। मैं बहुत थका हुआ था। थोड़ी  देर आराम करने के बाद मुझे फिर देर रात तक शाम के मरीजों को देखना था। मुझे खीज सी आ गई थी। फिर भी मै यह सोच कर बाहर निकला कि मैं  उनको शाम को क्लीनिक में आने को कह दुंगा। बाहर निकलते-निकलते न जाने कहां से मुझे मां की नसीहतें याद आ गई। पहले दिन जब मैंने अपने घर में क्लीनिक खोली थी तो मां ने मुझसे कहा था - " बेटा अपने घर व क्लीनिक से कभी किसी को निराश वापस मत भेजना यही तुम्हारी सफलता की कुंजी होगी।" यह विचार आते आते मेरी थकान न जाने कहाँ  फुर्र हो गई । 
"नमस्कार डाक्टर साहब। मैं असमय कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूं। पर क्या करुं। मेरी बेटी कुछ देर पहले स्कूल में गिर गई थी। इसका सामने का दांत थॊडा सा टूट गया है। यदि आप देख लेते तो बड़ी  कृपा होगी।" एक सधी आवाज में उन्होंने विनती की। 
मैंने बच्ची का दांत देखा और उनसे कहा कि घबराने की कोई बात नहीं हैं। साथ ही हिदायत दी कि यदि दांत में ठंडा गरम लगे तो दिखाने चली आयें  और ध्यान रखें  कि दांत काला न पड.ने पाये। यह कह कर  मैंने एक कागज में कुछ दवाईयाॅ लिख कर उन्हें  दे दीं।
कुछ दिन बाद वह बच्ची अक्सर रिक्शे में बैठी मुझे स्कूल जाते दिखती थी। मैं  समझ गया कि उसका घर कहीं आस पास ही है। करीब एक दो माह के बाद वह महिला फिर एक दिन मेरे क्लीनिक में उस बच्ची का हाथ थामे आई। बच्ची कुछ रूआंसी सी थी। उन्होंने पुरानी बात का ज्रिक करते हुए मुझे बताया कि दांत टूटी हुई जगह से हल्का सा काला पड.ने लगा है। 
उनकी चिंता को दूर करते हुए मैंने  कहा,- "घबराने की आवश्यकता नहीं हैं, दूध के इस दांत को तो टूटना ही है। बस इसे समय से पहले निकालना पड़ेगा । नया दांत फिर कुछ समय बाद अपने आप निकल आयेगा। 
वह नन्ही बच्ची सौम्या हमारी बातों को बडे. ध्यान से सुन रही थी। उसने झट से अपने मुहॅं पर हाथ रखते हुए कहा-  "अंकल मैं दांत नहीं निकलवाउंगी । मुझे बहुत दर्द होगा।" 
मै हंस पड़ा मैंने पूछा- "बेटा तुम्हारा तो अभी तक एक दांत भी नहीं  टूटा  है। फिर तुम्हें  कैसे मालूम कि बहुत दर्द होता है?"
सौम्या बहुत देर तक चुप रही। कई बार पूछने पर उसने बताया कि यह बात घर से चलते समय उसके भाई ने उसे बताई थी। तब मैंने कहा कि उसे भाई ने उससे झूठ कहा है। उसके बिल्कुल दर्द नहीं होगा। उसने बड़ी  मुश्किल से अपना मुहॅं खोला। इंजेक्शन की सुई देखते-देखते उसकी आॅंखे डबडबा उठी। फिर मेरे इंजेक्शन लगाने की कोशिश को उसने एक झटके में अपना हाथ चला कर विफल कर दिया। इंजेक्शन की सुंई टेढ़ी हो गई। आखिरकार हार मानकर उसकी मां  उसे लेकर वापस चली गई क्योंकि फिर सौम्या ने अपना मुहॅं खोला ही नहीं।
लेकिन सौम्या के इस प्रकार चले जाने से समाधान तो होना नहीं था। मजबूरन कुछ समय बाद सौम्या को दोबारा मेरे पास आना पड़ा अब दांत काफी नीचे तक खराब हो चुका था। उसका निकालना अब अति आवश्यक था वर्ना इंफैक्शन जड़ तक बढ़ सकता था। मैंने सौम्या की हिम्मत बढ़ाते  हुए कहा- "बेटे तुम्हारे बिल्कुल दर्द नहीं होगा। तुम कुर्सी के दोनों  डन्डों को जोर से पकड. कर रखो । मैं दवाई लगा देता हूं। यदि दवाई लगाने में दर्द हो तो तुम हाथ हिला देना। मैं समझ जाऊँगा। इसके बाद हम सोचेगें दांत उखाड़ना  है कि नहीं?’ 
सौम्या ने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा। शायद वह यह पढ़ने की कोशिश कर रही थी कि मै उससे सच बोल रहा हूं या झूठ  ? फिर उसने एक नटखट मुस्कान के साथ हाथ बढ़ाते हुए कहा- "तब करिये  प्रौमिस ! आप दांत नहीं उखाड़ेंगे. "
"प्रौमिस बेटे।" - मैंने अपने गले को छूते हुए कहा। 
सौम्या ने ज्यों ही अपना मुहॅं खोला, मैंने फुर्ती से दायें हाथ में छुपाया हुआ इंजैक्शन उसे लगा दिया। मैं जानता था कि सौम्या को मात्र सुईं का भय सता रहा था अन्यथा एनैस्थिसिया के इंजैक्शन का दर्द तो साधारण इंजैक्शन से भी कम होता है। सौम्या जोर से रोने लगी। दर्द नहीं वह घबराहट का रोना था। अतः मैंने सौम्या के हाथ में एक दांत का टुकड़ा रखते हुए कहा- "तुम झूठमूठ रो रही हो। दांत को दवाई लगते ही अपने आप निकल आया और अब तुम्हारे कोई दर्द नही हो रहा है।"
सौम्या एक मिंनट को अचकचा गई। उसने उलट पुलट कर दांत देखा। फिर पाया कि वास्तव में उसके कोई दर्द नहीं हो रहा था। फिर वह क्यों रो रही है ? उसने रोना हल्का कर दिया। फिर उसने अपनी मां व मेरे चेहरे की ओर देखा। दोनों के चेहरो पर हल्की सी मुस्कराहट को देख कर वह समझ गई कि उसको धोखा दे दिया गया है। वह आश्चर्यचकित थी कि बिना दर्द के उसका दांत कैसे बाहर निकल गया अतः अब वह दुगने वेग से रोने लगी। कुछ देर समझाने के बाद वह शान्त हो गई। अब तक मेरा इंजैक्शन काम कर चुका था। दांत की जडे. सुन्न हो चुकी थीं। मैं जानता था कि अब दांत निकालने पर सौम्या को को कोई दर्द नहीं होना था। मैने सौम्या से पानी का कुल्ला करने को कहा। फिर दांत की जड. में रूई लगाने के लिए मुहं खॊलनॆ को कहा। सौम्या की हिम्मत वापस आ गई। उसने दोबारा मुहॅं खोल दिया। अब मैंने  बड़ी  आसानी से उसका खराब दांत उखाड. कर बाहर कर दिया। सौम्या थोड़ी  घबराई जरूर पर असली काला दांत अब उसके हाथ में था। 
"यह क्या हैं अंकल ? " - उसने आश्चर्य से पूछा।
"बेटे, यह हैं तुम्हारा असली काला दांत जो गिर जाने से टूट गया था।" मैंने  हंस कर उत्तर दिया। 
"तो वह पहले वाला दांत ?" - वह धीरे से बुदबुदाई और फिर नाराज होकर बोली-  "अंकल, आपने दो बार मुझसे झूठ बोला है। साथ ही साथ आपने अपने प्रैामिस को भी तोड़ा है। जाइये  मैं  आपसे बात नहीं करती।"- वह रूठ कर बोली। 
थोड़ी  देर बातचीत के बाद उसकी मां वापस जाने को मुड़ी। उन्हॊने सौम्या से कहा- "बेटा अंकल से थैक्यू कहो। देखो तुम्हारा दांत ठीक हो गया।"

पर नाराज सौम्या ने बार बार कहने के बाद भी थैंक्यू नहीं  कहा। फिर अंत में बोली- " अंकल झूठ बोलते हैं और अपना वादा भी तोड. देते हैं। मैं इनको थैंक्यू नहीं कहूंगी।" 
मैं मुस्करा कर रह गया। उनके जाने के बाद मैं अपने काम में व्यस्त हो गया। इसके बाद सौम्या मुझे कई बार रिक्शे से स्कूल जाती दिखती रहती थी। पर जब भी उसका रिक्शा मेरे पास से गुजरता तो वह किसी बच्चे की ओट में छिप जाती। कभी कभी मुझे लगता था कि सौम्या से झूठ बोलकर कहीं मैने गलती तो नहीं की थी ? आखिर एक छोटी घटना से बच्चे का दिल इतना टूट सकता हैं मैं सोच भी नही सकता था।
इस बात की बीते छह-सात महीने हो गए थे।एक दिन मैं क्लीनिक में काम कर रहा था। तभी भड़ाक की आवाज के साथ क्लीनिक का दरवाजा खुला। मैंने देखा सौम्या दौड़ी चली आ रही हैं। मैंने नाराज होकर कहा- " यह क्या बदतमीजी हैं बेटे, दरवाजा इस तरह खोलते हैं क्या ?" 
"अंकल आप अपना सिर नीचे करिये । मुझे कान में एक जरूरी बात कहनी है।" - सौम्या ने एक मधुर आवाज में कहा। मैंने अपना कान नीचे कर दिया। सौम्या ने कान में कुछ न कहकर, धीरे से मेरे गाल को अपने नन्हे होठों से चूम लिया। फिर एक लिफाफा मेरे हाथों में थमा दिया। 
"यह क्या हैं सौम्या ? " -मैने आश्चर्य से पूछा। 
"खोलकर तो देखिये अंकल।" - सौम्या ने उत्तर दिया। 
लिफाफे के अन्दर सौम्या के द्वारा बनाया हुआ एक कार्ड था। जिसमे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। - "थैक्यू डाक्टर।"
मेरे लिफाफा खेालते-खेालते सौम्या वापस भाग चली थी। मैंने सौम्या की ओर देखते हुए आवाज लगाई। - " यह किसलिए सौम्या ? "
मेरे प्रश्न पूछने तक वह दरवाजे के पास पहुँच चुकी थी। उसने पलट कर मेरी ओर देखा। फिर मुस्कुराते हुए अपनी अंगुली से छोटे से निकलते हुए दांत पर इशारा करके बोली- "इस सुन्दर दांत के लिए अंकल।" दूसरे ही क्षण वह वह भड़ाक से दरवाजा बंद करके बाहर चली गई। 
"यह सब क्या चक्कर था डाॅक्टर ? " - मेरे मरीजों व सिस्टर ने एक स्वर में आश्चर्य से मुझसे पूछा। 
"आप लोग नहीं समझेगें। एक नन्हें मरीज ने मुझे माफ ही नहीं किया वरन् मेरे विश्वास को कई गुना बढ़ा दिया हैं।"- मैंने  मुस्कराते हुए कहा और दुगने उत्साह से अपने काम में लग गया।
ये अजब सी चाहत है मेरी, कुछ बता सकता मैं नहीं. या तो चाहिए सब कुछ मुझको, या तो फिर कुछ भी नहीं.

मंगलवार, 24 मार्च 2015

अन्धेहो क्या?


अन्धेहो क्या?


कहानी
हेम चन्द्र जोशी



            कम्प्यूटर में विडियो गेम खेलते खेलते पता नहीं कब मेरी आंखे कमजोर हो गयी  यह पता ही नहीं चला। बस अक्सर सिर में दर्द रहने लगा था और वह भी खास कर किताबें पढ़ने पर। कक्षा में जब ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ कुछ धुधंला सा दिखायी देने लगा तो मैंने इस बात को पापा से कहा। फिर पापा मुझे आँखों के डाक्टर के पास ले गये  फिर क्या था डाक्टर ने मेरी आंखे टैस्ट की और बताया कि आंखे कमजोर हो गयी हैं। इसके बाद उन्होंने कुछ आँखों की कसरतें बतायी और चश्मा लगाने के लिये कह दिया। वह दिन है और आज का दिन है कि चश्मे ने मेरा पीछा ही नहीं छोड़ा।  इस घटना को लगभग पांच साल बीत गये हैं। यहाँ  तक कि हाईस्कूल तक मेरे पहुँचते पहुँचते मेरे साथियों ने मुझे चश्मुद्दीन कह कर चिढ़ाना भी छोड़ दिया। क्यों कि कक्षा में अब मेरे जैसे चश्मे वाले मेरे और भी कई साथी हो गये थे।
           
            सभी बच्चे मानते थे कि हाईस्कूल की कक्षा विशेष हो जाती है। क्यों कि तब हमको बोर्ड की परीक्षा देनी होती है और हम अपने को कुछ बड़ा  समझने  लगते हैं। तभी तो चश्मा अब मेरे फैशन  का हिस्सा बन गया था। मैंने  स्टाईलिस चश्मा खरीद रखा था जो नजर के साथ धूप के चश्मे का काम भी करता था। आखिर धूप को देखकर रंग हल्का गाढ़ा करने वाले इन फोटोक्रोमेटिक लैन्सों का कक्षा में रौब ही कुछ अलग था। और फिर इस फैशन की आंधी मेंमैं कुछ उद्दंड सा हो चला था। अब किसी भी बात का सीधा उत्तर देना मुझे भाता ही नहीं था। क्लास में भी यदा कदा मौका देखकर मैं शरारतें कर ही जाता था।

            उस दिन मोहल्ले में साईकिल में एक गाँव वाला व्यक्ति घूम रहा था। उसको एक पते की तलाश थी  पर उसको घर नहीं मिल पा रहा था। उसने मुझे रोक कर कहा- ”बाबू जी क्या आप यह पता बता देंगे। मैं बहुत देर से ढूंढ़ रहा हूँ।“ कहकर उसने एक हिन्दी में लिखा पता मेरी ओर बढ़ा दिया।
            मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। दरअसल में मुझे उसका बाबू जी कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर मेरे जैसे अपटूडेट लड़के को उसने  साहब या सर कह कर पुकारना चाहिये था। मैंने  तिरछी निगाहों से परचे को देखा और पढ़ा। पता मुझे मालूम नहीं था।  पर- ”मुझे मालूम नहीं है।“ कहना मुझे ठीक नहीं लगा। मुझे  लगा कि इससे मेरा रौब कुछ कम हो जायेगा। अतः मैंने  अपना चश्मा ठीक करते हुये रौब से कहा-” भय्या यह पर्चा तो हिन्दी में लिखा है। यदि अंग्रेजी में लिखवा कर लाओ तो शायद बता सकूँ।

             गाँव वाला आवाक् सा मुझे देख कर आगे बढ़ गया। उसे कोई बात समझ में नहीं आयी  पर मैं अपने मद में चूर आगे बढ़ गया। मुझको  लगा था कि मैंने एक बहुत बेहतरीन उत्तर दिया था। बस ऐसे ही ऊट पटांग बातों पर मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

            फिर एक दिन मैं अपनी नयी स्कूटी में ऐसे ही इधर से उधर के चक्कर मार रहा था कि घर के मोड़ पर एक लाठी वाले व्यक्ति के एकाएक स्कूटी के सामने आने से मैं गिर पड़ा  मुझे  एकाएक  जोर को ब्रेक लगाना पड़ा था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति को बचाने के लिये मैं जमीन में गिर पड़ा  था उस व्यक्ति के पास इतना शिष्टाचार भी  था कि वह  कर मुझे सहारा दे दे।

            मुझे मन ही मन क्रोध  गया। मैंने गुस्से में चिल्लाकर कहा- ”सड़क में देख कर नहीं चल सकते “ यह कहते हुये मैं कपड़ो की मिट्रटी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।

            ”बाबू जीअन्धा हूँ  तभी तो इस लाठी के सहारे चलता हूँ जरा मेरी लाठी उठाकर मुझको दे दीजिये।“ उसने दीनता से आग्रह किया।

            ”दिखता नहीं तो मैं क्या करूँ ? सड़क  पर चलते क्यों होबेकार में मुझको चोट लगवा दी। अन्धे कहीं के। “ कह कर मैंने अपनी स्कूटी उठा ली पर उसका डण्डा उठाकर उसको नहीं दिया। मेरा आपा गुस्से में चढ़ गया था।  मेरा विवेक मेरा साथ नहीं दे रहा था कि मैं इतना समझ सकता कि एक अंधा अपने डण्डे को कैसे ढूंढ़  कर उठायेगा।

            तभी दो-चार आदमी वहां पर  गये और उन्होंने उसका डण्डा उठाकर उस व्यक्ति को दे दिया। उस व्यक्ति  ने धन्यवाद कहा और फिर आगे बढ़ गया। पर मैं मन ही मन बडबड़ाता रहा कि आखिरी ये अन्धे लोग सड़क पर घूमते क्यों हैं। इनकी वजह से मुझे फोकट में चोट लग गयी थी। इनको तो बन्द करके रखना चाहिये।


            शाम को ताऊ जी को रेलवे स्टेशन जाना था। वे यात्रा में कहीं बाहर जा रहे थे। मैंने मौका अच्छा पाकर कहा- ”ताऊ जीमैं आपको स्टेशन छोड़ आऊँगा।“ दरअसल में अपनी स्कूटी चलाना चाहता था। ताऊ जी ने हामि भर दी। फिर मैं शाम तक इस बात का इन्तजार करता रहा। रात के नौ बजे की गाड़ी थी  मैं ताऊ जी को लेकर  जल्दी ही स्टेशन में पहुँच गया। असली में मुझे स्कूटी चलाने की बहुत जल्दी थी। ताऊ जी भी थोड़ी जल्दी ही स्टेशन पहुँचना चाहते थे क्यों कि उनका आरक्षण कन्फर्म नहीं हुआ था।

            स्टेशन पहुँच कर ताऊ जी अपने परिचित किसी व्यक्ति को ढूंढ़ने के लिये चले गये और उन्होंने मुझसे कहा- ”जाओजरा रिजर्वेशन चार्ट को देखकर आओ। क्या पता वेटिंग लिस्ट में नाम हो।

            मैं रिजर्वेशन बोर्ड को ढूंढ़ने आगे निकल गया। एक जगह लोगों की भीड़ लगी थी। लोग अपना नाम देखने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी भीड़ में घुस गया। आरक्षण चार्ट के पास पहुँचने पर मैंने  पाया कि मैं कुछ पढ़ नहीं पा रहा हूँ। दरअसल में मैं जल्दी के कारण अपना चश्मा लाना भूल गया था। मैंने बहुत कोशिश  की पर कुछ भी नहीं पढ़ पाया। पीछे से लोग जोर लगा रहे थे। सभी को जल्दी थी कि वे ट्रेन में जल्दी से जल्दी बैठें।

            मेरे लिये बड़ी मुश्किल थी। चश्मे के बिना में पढ़ा लिखा अनपढ़ बन कर रह गया था। मुझे  महसूस हुआ कि आंखे कमजोर होना जब इतना परेशानी भरा है तो अन्धा होना कितना बड़ा श्राप है। इन मुश्किल क्षणों में मैंने बगल में खडे़ अपने हमउम्र लड़के से फरियाद की- ”भाईजरा एलएमत्रिपाठी का रिजर्वेशन देख दीजिये।

            उसने मुझे झिड़कते हुये कहा-  ”अन्धे हो क्या ? खुद क्यों नहीं देख लेते।” फिर वह बड़बड़ाता हुआ भीड़ से बाहर चला गया।
            मैं चश्मा साथ  होने के कारण कितनी बेइज्जती झेल रहा था। मैंने मन ही मन सोचा कि यदि मैं अंधा होता तो क्या होता। मुझे सुबह मेरी स्कूटी से टकराये अन्धे की याद  गयी  मैंने भी उसको कितना भला बुरा कहा था। ”हे ईश्वर , मुझको माफ करना। मैं बहुत खराब आदमी हूँ  अब मैं कभी ऐसे काम  करूँ “ मैंने मन ही मन  प्रार्थना की। मुझे अपनी सभी बद्तमीजियाँ  एक एक करके याद  रही थीं और पछतावा हो रहा था।

            ”आओमेरा रिजर्वेशन हो गया है।“  पीछे से ताऊ जी ने आवाज दी। पछतावे के साथ मैं धीरे-धीरे ताऊ जी के पीछे चल दिया।
            ”भगवान किसी की आंखे खराब मत करना।“ ऐसे भाव अब मेरे मन में उठ रहे थे।

ये अजब सी चाहत है मेरी, कुछ बता सकता मैं नहीं. या तो चाहिए सब कुछ मुझको, या तो फिर कुछ भी नहीं.