अन्धेहो क्या?
कहानी
हेम चन्द्र जोशी
कम्प्यूटर में विडियो गेम खेलते खेलते पता नहीं कब मेरी आंखे कमजोर हो गयी । यह पता ही नहीं चला। बस अक्सर सिर में दर्द रहने लगा था और वह भी खास कर किताबें पढ़ने पर। कक्षा में जब ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ कुछ धुधंला सा दिखायी देने लगा तो मैंने इस बात को पापा से कहा। फिर पापा मुझे आँखों के डाक्टर के पास ले गये । फिर क्या था डाक्टर ने मेरी आंखे टैस्ट की और बताया कि आंखे कमजोर हो गयी हैं। इसके बाद उन्होंने कुछ आँखों की कसरतें बतायी और चश्मा लगाने के लिये कह दिया। वह दिन है और आज का दिन है कि चश्मे ने मेरा पीछा ही नहीं छोड़ा। इस घटना को लगभग पांच साल बीत गये हैं। यहाँ तक कि हाईस्कूल तक मेरे पहुँचते पहुँचते मेरे साथियों ने मुझे चश्मुद्दीन कह कर चिढ़ाना भी छोड़ दिया। क्यों कि कक्षा में अब मेरे जैसे चश्मे वाले मेरे और भी कई साथी हो गये थे।
सभी बच्चे मानते थे कि हाईस्कूल की कक्षा विशेष हो जाती है। क्यों कि तब हमको बोर्ड की परीक्षा देनी होती है और हम अपने को कुछ बड़ा समझने लगते हैं। तभी तो चश्मा अब मेरे फैशन का हिस्सा बन गया था। मैंने स्टाईलिस चश्मा खरीद रखा था जो नजर के साथ धूप के चश्मे का काम भी करता था। आखिर धूप को देखकर रंग हल्का गाढ़ा करने वाले इन फोटोक्रोमेटिक लैन्सों का कक्षा में रौब ही कुछ अलग था। और फिर इस फैशन की आंधी में, मैं कुछ उद्दंड सा हो चला था। अब किसी भी बात का सीधा उत्तर देना मुझे भाता ही नहीं था। क्लास में भी यदा कदा मौका देखकर मैं शरारतें कर ही जाता था।
उस दिन मोहल्ले में साईकिल में एक गाँव वाला व्यक्ति घूम रहा था। उसको एक पते की तलाश थी पर उसको घर नहीं मिल पा रहा था। उसने मुझे रोक कर कहा- ”बाबू जी क्या आप यह पता बता देंगे। मैं बहुत देर से ढूंढ़ रहा हूँ।“ कहकर उसने एक हिन्दी में लिखा पता मेरी ओर बढ़ा दिया।
मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। दरअसल में मुझे उसका बाबू जी कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर मेरे जैसे अपटूडेट लड़के को उसने साहब या सर कह कर पुकारना चाहिये था। मैंने तिरछी निगाहों से परचे को देखा और पढ़ा। पता मुझे मालूम नहीं था। पर- ”मुझे मालूम नहीं है।“ कहना मुझे ठीक नहीं लगा। मुझे लगा कि इससे मेरा रौब कुछ कम हो जायेगा। अतः मैंने अपना चश्मा ठीक करते हुये रौब से कहा-” भय्या यह पर्चा तो हिन्दी में लिखा है। यदि अंग्रेजी में लिखवा कर लाओ तो शायद बता सकूँ।
गाँव वाला आवाक् सा मुझे देख कर आगे बढ़ गया। उसे कोई बात समझ में नहीं आयी । पर मैं अपने मद में चूर आगे बढ़ गया। मुझको लगा था कि मैंने एक बहुत बेहतरीन उत्तर दिया था। बस ऐसे ही ऊट पटांग बातों पर मैं मन ही मन खुश हो जाता था।
फिर एक दिन मैं अपनी नयी स्कूटी में ऐसे ही इधर से उधर के चक्कर मार रहा था कि घर के मोड़ पर एक लाठी वाले व्यक्ति के एकाएक स्कूटी के सामने आने से मैं गिर पड़ा । मुझे एकाएक जोर को ब्रेक लगाना पड़ा था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति को बचाने के लिये मैं जमीन में गिर पड़ा था उस व्यक्ति के पास इतना शिष्टाचार भी न था कि वह आ कर मुझे सहारा दे दे।
मुझे मन ही मन क्रोध आ गया। मैंने गुस्से में चिल्लाकर कहा- ”सड़क में देख कर नहीं चल सकते ।“ यह कहते हुये मैं कपड़ो की मिट्रटी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।
”बाबू जी, अन्धा हूँ । तभी तो इस लाठी के सहारे चलता हूँ जरा मेरी लाठी उठाकर मुझको दे दीजिये।“ उसने दीनता से आग्रह किया।
”दिखता नहीं तो मैं क्या करूँ ? सड़क पर चलते क्यों हो? बेकार में मुझको चोट लगवा दी। अन्धे कहीं के। “ कह कर मैंने अपनी स्कूटी उठा ली पर उसका डण्डा उठाकर उसको नहीं दिया। मेरा आपा गुस्से में चढ़ गया था। मेरा विवेक मेरा साथ नहीं दे रहा था कि मैं इतना समझ सकता कि एक अंधा अपने डण्डे को कैसे ढूंढ़ कर उठायेगा।
तभी दो-चार आदमी वहां पर आ गये और उन्होंने उसका डण्डा उठाकर उस व्यक्ति को दे दिया। उस व्यक्ति ने धन्यवाद कहा और फिर आगे बढ़ गया। पर मैं मन ही मन बड‐बड़ाता रहा कि आखिरी ये अन्धे लोग सड़क पर घूमते क्यों हैं। इनकी वजह से मुझे फोकट में चोट लग गयी थी। इनको तो बन्द करके रखना चाहिये।
शाम को ताऊ जी को रेलवे स्टेशन जाना था। वे यात्रा में कहीं बाहर जा रहे थे। मैंने मौका अच्छा पाकर कहा- ”ताऊ जी, मैं आपको स्टेशन छोड़ आऊँगा।“ दरअसल में अपनी स्कूटी चलाना चाहता था। ताऊ जी ने हामि भर दी। फिर मैं शाम तक इस बात का इन्तजार करता रहा। रात के नौ बजे की गाड़ी थी । मैं ताऊ जी को लेकर जल्दी ही स्टेशन में पहुँच गया। असली में मुझे स्कूटी चलाने की बहुत जल्दी थी। ताऊ जी भी थोड़ी जल्दी ही स्टेशन पहुँचना चाहते थे क्यों कि उनका आरक्षण कन्फर्म नहीं हुआ था।
स्टेशन पहुँच कर ताऊ जी अपने परिचित किसी व्यक्ति को ढूंढ़ने के लिये चले गये और उन्होंने मुझसे कहा- ”जाओ, जरा रिजर्वेशन चार्ट को देखकर आओ। क्या पता वेटिंग लिस्ट में नाम हो।“
मैं रिजर्वेशन बोर्ड को ढूंढ़ने आगे निकल गया। एक जगह लोगों की भीड़ लगी थी। लोग अपना नाम देखने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी भीड़ में घुस गया। आरक्षण चार्ट के पास पहुँचने पर मैंने पाया कि मैं कुछ पढ़ नहीं पा रहा हूँ। दरअसल में मैं जल्दी के कारण अपना चश्मा लाना भूल गया था। मैंने बहुत कोशिश की पर कुछ भी नहीं पढ़ पाया। पीछे से लोग जोर लगा रहे थे। सभी को जल्दी थी कि वे ट्रेन में जल्दी से जल्दी बैठें।
मेरे लिये बड़ी मुश्किल थी। चश्मे के बिना में पढ़ा लिखा अनपढ़ बन कर रह गया था। मुझे महसूस हुआ कि आंखे कमजोर होना जब इतना परेशानी भरा है तो अन्धा होना कितना बड़ा श्राप है। इन मुश्किल क्षणों में मैंने बगल में खडे़ अपने हमउम्र लड़के से फरियाद की- ”भाई, जरा एल0 एम0 त्रिपाठी का रिजर्वेशन देख दीजिये।“
उसने मुझे झिड़कते हुये कहा- ”अन्धे हो क्या ? खुद क्यों नहीं देख लेते।” फिर वह बड़बड़ाता हुआ भीड़ से बाहर चला गया।“
मैं चश्मा साथ न होने के कारण कितनी बेइज्जती झेल रहा था। मैंने मन ही मन सोचा कि यदि मैं अंधा होता तो क्या होता। मुझे सुबह मेरी स्कूटी से टकराये अन्धे की याद आ गयी । मैंने भी उसको कितना भला बुरा कहा था। ”हे ईश्वर , मुझको माफ करना। मैं बहुत खराब आदमी हूँ । अब मैं कभी ऐसे काम न करूँ ।“ मैंने मन ही मन प्रार्थना की। मुझे अपनी सभी बद्तमीजियाँ एक एक करके याद आ रही थीं और पछतावा हो रहा था।
”आओ, मेरा रिजर्वेशन हो गया है।“ पीछे से ताऊ जी ने आवाज दी। पछतावे के साथ मैं धीरे-धीरे ताऊ जी के पीछे चल दिया।
”भगवान किसी की आंखे खराब मत करना।“ ऐसे भाव अब मेरे मन में उठ रहे थे।
ये अजब सी चाहत है मेरी, कुछ बता सकता मैं नहीं.
या तो चाहिए सब कुछ मुझको, या तो फिर कुछ भी नहीं.
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