रविवार, 20 जुलाई 2008

अब नहीं बाबूजी

अब नहीं बाबूजी
शहर के मुख्य चैराहे पर स्थित उस हनुमान मंदिर से मेरी बहुत सी भूली बिसरी बातें जुड़ी हुई हैं। मैं बचपन में पिताजी के साथ अक्सर हर मंगलवार को मंदिर जाया करता था।
मेरे मन में सदा यही लालच रहता था कि मंदिर जाने पर ढेर सारा प्रसाद खाने को मिलेगा। आंखे बंद किए भगवान के सामने खड़े पिताजी को देखकर मैं अक्सर सोचता था कि वो आखिर भगवान से मांगते क्या हैं ? ऐसे मौकों पर मैं प्रसाद की थैली पर आंखे गड़ाए रखता था। पुजारी जी जब टीका व चरणामृत देने के बाद प्रसाद की थैली से मिठाई निकालते तो मुझे ऐसा लगता था कि मानो कोई मेरे हिस्से की मिठाई ले रहा हो।
फिर मैं धीरे धीरे कुछ बड़ा हो गया। मुझे अच्छे व बुरे काम में फर्क समझ में आने लगा। अब मैं अपनी छोटी बहन की चाकलेट भी कभी.कभी मौका मिलने पर चुपके से निकाल कर खाने लगा था। जब बहन रो-रो कर सारे घर को सिर पर उठा लेती थी तो मुझे अपनी शैतानी पर बड़ा मजा आता था।
आखिर चोरी के बाद पकड़े जाने से बचने का अपना ही सुख था। पर जब बहन भगवान को साक्षी मानकर चोर को दण्ड देने की प्रार्थना करती तो मैं मन ही मन घबरा जाता था। मैं हनुमान जी से अक्सर माफी मांग कर बहन के शाप से मुक्त होने की कोशिश करता था।
मंदिर जाने का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कभी टूटा ही नहीं। मंदिर के आसपास इकट्ठे होने वाले एक.एक भिखारी प्रसाद मांगने वाले लड़कों व ठेले वालों को मैं पहचानने लगा। यदि कहीं उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता तो मेरी आंखे दूर तक उसको ढूंढती सी नजर आती। कुछ ऐसी ही हालत मेरे बारे में भी थी। मंदिर के आसपास के सभी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे। प्रसाद के छोटे.छोटे टुकड़ों को ठेलम-ठेल के बीच चारों ओर से लपकते हुए हाथों में बांटकर मुझे पुण्य लूटने की संतुष्टि होती थी।
मैं नियमित रूप से एक विशेष मिठाई के ठेले से ही प्रसाद खरीदता था। इसी ठेले वाले के साथ एक लड़का मुझे हमेशा काम करता दिखाई देता था। मैंने मन ही मन उसका नाम कालू रख छोड़ा था। ग्राहकों के चप्पल जूतों का ध्यान रखनाए उनके हाथण्पैर धुलवाना उसका काम था। इसी सुविधा के कारण उस ठेले पर ग्राहकों की कुछ ज्यादा ही भीड़ रहा करती थी।
मंदिर से लौटते समय मैं प्रसाद का एक छोटा सा टुकड़ा कालू को भी देता था। वह मुस्कुरा कर उसको मुंह में डाल लेता था। मेरे नियमित रूप से मंदिर आने पर कालू बहुत प्रभावित था। मेरे लिए उसके मन में अपार श्रध्दा थी। उसकी बातों से पता चलता था कि उसकी हनुमान जी के प्रति असीम आस्था है। वह मुझे हमेशा संतुष्ट दिखाई देता था।
मैं कभी.कभी सोचता था कि मिठाई वाले ने क्यों अपने लड़के को इस काम में लगा रखा है ? वह क्यों नहीं उसको पढ़ाता-लिखाता है।
एक दिन मुझे मालूम चला कि वह मिठाई वाले का बेटा न होकर उसका नौकर है। कालू के पिता नहीं थे और उसकी मां उसकी देखरेख करती थी। कालू स्कूल भी जाता था और इधर-उधर काम करके अपना स्कूल का खर्चा भी चलाता था। मुझे कालू से थोड़ी हमदर्दी सी हो गई लेकिन मात्र मेरी हमदर्दी से कालू का पेट तो भर नहीं सकता था। कालू हमेशा मुझे काम करता मिलता था। पर मैं उसको कभी कुछ दे नहीं सका। वह तो मात्र प्रसाद के एक छोटे से टुकड़े को पाकर ही मेरे ऊपर निछावर था।
एक दिन मैने देखा कि कालू दुकान से दूर खड़ा है। मुझे दुकान वाले ने बताया कि उसने कालू को निकाल दिया है क्योंकि उसने दुकान में चोरी करने की कोशिश की है।
कालू ने उसकी बातों का प्रतिकार करते हुए कहा”बाबू जी यह झूठ बोल रहे हैं। मैंने आज तक चोरी नहीं की है। ये मेरे काम के पैसे नहीं देना चाहते हैं इसीलिए ऐसा कह रहे है। आप मेरे पैसे दिलवा दीजिए नहीं तो मैं स्कूल की फीस नहीं जमा करवा पाऊँगा।“ उसने कातर दृष्टि से बहुत सी उम्मीद के साथ मुझसे कहा।
पता नहीं क्यों कालू की कातर वाणी भी मुझे भेद नहीं पाई। मुझे मन ही मन लगा कि कालू ने जरूर चोरी की होगी। मुझे कालू के भोलेपन में उसकी चालाकी दिखाई देने लगी। मैने धीरे से मिठाई वाले से कहा” सच भाई! आज के जमाने में किस पर विश्वास किया जाए कुछ समझ मे नहीं आता है।“
मैं भगवान के दर्शन कर पुण्य लूटता हुआ घर वापस चला आया। इसके बाद कई मंगलवारों को मुझे कालू नजर नहीं आया। फिर महीनों बाद एक दिन कालू मुझे मंदिर के बाहर खड़ा मिला। मुझे देखते ही वह मेरी ओर चला आया। वह शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने उदास आंखो से कहाण्”बाबूजी मेरी मां बहुत बीमार है। कुछ रूपये उधार दे दीजिए। मैं आपका रूपया जरूर वापस कर दूंगा। आप तो भक्त है। सदा ईश्वर पर विश्वास करते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपको पैसा अवश्य वापस कर दूंगा।“
मैंने कालू को देखा। मुझे लगा वह सच बोल रहा है। मुझे चुप देखकर उसने कहा ”साहब आप पता नहीं कितने रूपये व मिठाई भगवान पर चढ़ा जाते हैं। ढेर सारा पेट्रेIल मंदिर आने के लिए खर्च कर डालते है। एक पचास का नोट मुझे भी उधार दे दीजिए। साहब मेरी मां बच जाएगी।“ उसने व्याकुल आवाज में कहा। उसकी रोनी सी आवाज ने मुझे आहत तो कर दिया किन्तु उस पर पचास रुपया खर्च करने का औचित्य मेरा मन नहीं समझ सका। मैंने उसकी बात का कोई भी जवाब नहीं दिया। मैं आगे बढ़ने लगा तो वह मेरे पैरों में गिर पड़ा और बोला ”बाबूजी मेरी मां मर जाएगी। मैं अनाथ हो जाऊँगा। मेरे ऊपर कृपा करिये बाबूजी। मेरी माँ को बचा लीजिए।“
मैंने टालने के लिए मजबूर होकर कहा ण् ”मेरे पास रुपए नहीं हैं।“
”बाबूजी प्रसाद चढ़ाने के रुपए ही मुझे उधार दे दीजिए। यह मेरे लिए दान के समान होगा।
मैंने उसकी बातें अनसुनी सी कर दीं। मैं एक रूढिवादी की तरह भगवान के दर्शन करने चला गया। जब मैं वापस आया तो वह प्रसाद का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वहां पर उपस्थित नहीं था। मेरा मन खिन्नता से भर गया। मुझे लगा कि मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए था। उसकी सहायता करनी चाहिए थी। आज प्रसाद चढ़ाकर अवश्य ही भगवान प्रसन्न नहीं हुए होंगे। भगवान तो सदा दुखियों के साथ ही रहते हैं।
कालू की सहायता न करने का मुझे बेहद अफसोस था। कालू की पीड़ा मेरे मन में घर कर गई। हर मंगलवार को मैं अब मंदिर के आसपास कालू को ढूंढा करता था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने उसकी सहायता नहीं की। उसके असीम विश्वास को मैंने ठेस पहुंचाई थी। अब मैं कालू की सहायता करके प्रायश्चित करना चाहता था।
फिर एक दिन जब मैं यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट खरीदकर मैं चाय पीने के लिए एक ठेले पर खड़ा था कि तभी किसी की आवाज आई ”बाबूजी नमस्कार! कैसे हैं आप ?“
मैंने देखा कि हंसता हुआ कालू मेरे सामने खड़ा है। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत नहीं थी। मुझे लगा कि वह एकाएक काफी सयाना हो गया है। एक छोटा सा बच्चा इतनी कम उम्र में इतना परिपक्व कैसे बन जाता है ? मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। इससे पहले कि मैं कालू से कुछ पूछता उसने जाने की इजाजत मांगी। मैंने प्रायश्चित के कारण बटुवे से सौ रुपए का एक नोट कालू को देना चाहा पर कालू ने बड़ी ही गंभीरता से कहा ”बाबूजी मुझे अब रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मैं भीख भी नहीं लेता। आज मैं अनाथ हूं। इस दुनिया में अकेला। उस दिन आपने मुझे रुपए नहीं दिए पर किसी और को भी मेरे ऊपर दया नहीं आई। थोड़े से पैसों के कारण मेरी मां चली गई। जब मनुष्य के दुख को मनुष्य नहीं समझ सकता है तो आप कैसे मान लेते हैं कि ऐसे मनुष्यों की पुकार को ईश्वर सुनता होगा“
”माफ करना मुझे।“ मैंने प्रायश्चित की अग्नि में जलते हुए सौ रुपए का नोट पकड़ाने का प्रयास किया।
”अब नहीं बाबूजी। यह नोट मेरी मां को अब वापस नहीं ला सकता।“ कालू ने सिर हिलाते हुए कहा और फिर वह धीरे से वापस मुड़ गया। मैंने डबडबाई आंखों से देखा कि कालू के कंधे पर आज स्कूल के बस्ते के स्थान पर पालिश वाला झोला लटका हुआ था। उसकी इस हालत के लिए मैं भी एक हद तक जिम्मेदार था। इस पीड़ा से विमुक्त होने का मेरे पास कोई मौका नहीं था।

बुधवार, 2 जुलाई 2008

दादी की सीख

दादी की सीख



कक्षा की मैं सबसे होशियार विद्यार्थी थी। गणित में तो इतनी तेज थी कि शिक्षक मुझको कम्प्यूटर कहते थे। गणित के सवालों को तो मैं इस तेजी से हल करती थी कि मेरे साथी चकित हो उठते थे। सच! गुणा-भाग में मेरी बराबरी करने वाला कोई दूसरा छात्रा कक्षा में नहीं था। पर एक कमी मुझे सदा कचोटती रहती थी। कक्षा की सबसे होशियार लड़की होने के बाद भी विद्यार्थियों के बीच मेरी कोई विशेष पूछ नहीं थी। कक्षा के विद्यार्थी मेरे मुकाबले में अक्सर रूचि को तो कभी उमा को ज्यादा महत्व देते थे। अगर कोई चीज उनको पूछनी होती तो वे मेरे पास न आकर किसी दूसरे से पूछना ज्यादा पसंद करते थे। कक्षा के शिक्षक मेरी तारीफ तो अक्सर किया करते थे पर वे महत्व अन्य बच्चों को ज्यादा देते थे। ऐसा क्यों होता है ? मैं अक्सर सोचती थी, पर मुझे कभी भी अपनी समस्या का समाधान प्राप्त नहीं हो पाया।
रूचि के अंक मुझसे सदैव काफी कम आते थे। कक्षा में वह दूसरे स्थान पर आती थी, पर पढ़ाई में उसका मुझसे दूर-दूर तक मुकाबला नहीं था। छोटी सी चुटिया बांधे स्कूल आने वाली वह सांवली सी लड़की मुझे कतई नहीं भाती थी। मैं उससे पढ़ाई के सम्बंध में अक्सर बातें करती थी। उसकी आवाज बहुत मीठी थी। वह गाना बहुत सुन्दर गाती थी। पर न जाने क्यों उसका सांवलापन व ढीले-ढीले कपड़े मुझे रास नहीं आते थे। जब वह मुस्कराती तो उसके दूध जैसे उजले दांत झिलमिलाते हुए दिखाई पड़ते थे। मुझे सदैव आश्चर्य होता था कि आखिर भगवान ने क्या सोच कर रूचि को इतने सुन्दर दांत दिए हैं। उमा के बारे में भी मेरी कुछ ऐसी ही राय थी। उसका घर स्कूल से बहुत दूर था। वह साइकिल से जब उतरती थी तो पसीने से बुरी तरह लथपथ होती थी। मुझे बार-बार अफसोस होता था कि कक्षा में मुझे उमा के बगल में बैठना पड़ेगा। पर हम दोनों के नामों का क्रम रजिस्टर में साथ-साथ था। इसलिए उसके साथ बैठना मेरी मजबूरी थी।
उमा की सारी किताबें पुरानी होती थीं। बातों-बातों में मुझे जानकारी हुई थी कि उसका बड़ा भाई अगली कक्षा में है। इसलिए सदैव उसे भाई की किताबें मिल जाती थीं। उमा को इस बात का कभी कोई मलाल नहीं था। पर मुझे सदैव यह लगता था कि उमा कितनी बेवकूफ है कि सदा पुरानी किताबों से पढ़ती है।
मेरी यह योच मात्रा रूचि और उमा के लिए ही सीमित न थी। बल्कि शायद मेरी निगाहों में कक्षा के सभी विद्यार्थी ही ऐसे थे। मैं चटकारे ले-लेकर उनके बारे में घर में बाते करती थी। मुझे अपने इस काम पर बड़ा मजा आता था। लोगों की कमियों को ढूंढना एक प्रकार से मेरी आदत बन गई थी।
एक बार की बात है। सालों बाद मेरी दादी हमारे घर आई। हम सब लोग बहुत प्रसéा थे। आखिर दादी थी ही इतनी अच्छी। दादी को हमारे घर आए पांच-छह दिन बीत गये थे। मैंने एक दिन देखा कि दादी पड़ोस की मेरी हमउम्र लड़की महिमा से खूब बातें कर रही हैं। मेरी महिमा से बिल्कुल भी दोस्ती नहीं थी। दादी जब लौट कर आईं तो उन्होंने महिमा की बहुत तारीफ की और मुझसे कहा - ”बेटा! महिमा तुम्हारी ही हमउम्र की लड़की है। पर देखो वह अपनी माँ के साथ कितने काम करती है ? कपड़े धोने से खाना बनाने तक सभी कामों में वह अपनी माँ की सहायता करती है। एक तुम हो कि दिन भर इधर-उधर बैठ कर समय बिता देती हो।“
मैंने दादी को समझाया कि महिमा की माँ बीमार रहती हैं। इसलिए सभी घर के काम महिमा को करने पड़ते हैं। फिर मैंने हंसते हुये दादी को बताया कि महिमा पिछले दो साल से एक ही कक्षा में फेल हो रही है। मैं तो महिमा की खिल्ली उड़ा रही थी, पर दादी जी महिमा की बात सुनकर दुःखी हो उठीं।
बस ऐसे ही समय बीतता गया। मैं दादी को पड़ोस की सभी लड़कियों की खराबियां बताती रहती थी। स्कूल के बच्चों के बारे में भी मेरी दादी से बातें होती थीं। दादी मेरे सभी साथियों के बारे में बड़े ध्यान से सुनती थीं। उनको धीरे-धीरे प्रत्येक के बारे में जानकारी हो गई। पर मेरे लिए आश्चर्य का विषय था। महीने भर में ही दादी की प्रगाढ़ता मोहल्ले के सभी लोगों से हो गई।
मेरी हमउम्र लड़कियां तो दादी की भक्त सी हो गईं। मैं अक्सर सोचती कि दादी मेरे बताने के बाद भी इन लड़कियों से क्यों बातचीत करती हैं ? मेरी बातें दादी की समझ में क्यों नहीं आती हैं ?
फिर दादी के जाने का समय निकट आ गया। एक दिन दादी ने मुझसे पूछा, ”बेटी, तुम्हारे दोस्त बहुत कम हैं। तुमसे मिलने तो कोई आता ही नहीं है। मोहल्ले में बहुत सारे अच्छे बच्चे हैं। तुम्हें उनसे मेल जोल बढ़ाना चाहिए। तुम उनसे बहुत सी बातें सीख भी सकती हो।“
”मैं?“ मैंने आश्चर्य से दादी से पूछा, ‘दादी तुम जानती हो कि मैं कक्षा की सबसे होशियार लड़की हूँ। पढ़ाई-लिखाई में कोई भी बच्चा मेरा मुकाबला नहीं कर सकता है। गुणा-भाग के मामले में तो स्कूल में मुझे कम्प्यूटर कहकर पुकारा जाता है। मैं क्या सीखूंगी इन लड़कियों से ? इनको तो कुछ आता ही नहीं है।’
मैंने कुछ रूककर बात आगे बढ़ाते हुये कहा - ‘दादी मैंने आपको इन लड़कियों के बारे में बताया था न। ये सब तो बिल्कुल बेवकूफ व फूहड़ लड़कियां हैं।’
दादी मेरी बात सुनकर मुस्करा दीं। फिर उन्होंने मुझे समझाया - ‘तुम्हें दूसरों के विषय में ऐसा नहीं सोचना चाहिए। तुम पढ़ाई में जरूर होशियार हो। किन्तु दूसरे बच्चों में भी ढेर सारे गुण हैं। इसलिए तुम्हें दूसरों की अच्छी बातों को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।’ ‘मैं जानती हूं कि तुम गणित में बहुत तेज हो। पर आज से तुम जीवन का गणित सीखने का प्रयत्न करो। बेटी! अपने सामने वालों का आंकलन उसके अवगुणों से न करके उसके गुणों से करना सीखो। गुणी व्यक्तियों को पाना बड़ा मुश्किल है। इसलिए किसी के गुणों को हम दस गुना बढाकर महत्व देना चाहिए और अवगुणों को दस गुना घटाकर। पर साथ ही दूसरे के अवगुणों से हमेशा सतर्क रहना चाहिए। इन सब लड़कियों में जरूर कोई न कोई गुण अवश्य छिपा है। इन्हीं गुणों के कारण ये मुझे अच्छी लगती हैं। तुम विचार करके देखना।’
दादी चली गईं। पर वे मुझे जीवन का गुणा-भाग सिखा गईं। अब मुझे पसीने से लथपथ उमा के शरीर से उसकी मेहनत व हिम्मत की महक आने लगी थी। उसकी पुरानी किताबों में मुझे चीजों का सदुपयोग करने की भावना दिखाई देने लगी।
रूचि का सांवलापन उसकी मीठी आवाज के बीच में पता नहीं कहां छिप गया। मुझे हर पल यही अनुभूति होने लगी कि रूचि को ईश्वर ने कितना सुन्दर गला दिया है। काश! मैं भी रूचि की भांति गाना गा सकती। पड़ोस की काम करती महिमा को देखकर मुझे सदैव ऐसा लगने लगा कि भगवान ने उसके साथ न्याय नहीं किया है।
मैं अक्सर प्रभु से यही प्रार्थना करती कि महिमा की माँ को जल्दी ठीक कर दें ताकि महिमा भी हम लोगों की भांति खेल सके।
दादी की सीख से मेरे जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आ गया। देखते-देखते मेरे ढेर सारे मित्रा बन गये। न जाने कितने लोगों की मैं चहेती बन गई। सच जीवन का गणित, किताबी गणित से बिल्कुल अलग है।