बुधवार, 2 जुलाई 2008

दादी की सीख

दादी की सीख



कक्षा की मैं सबसे होशियार विद्यार्थी थी। गणित में तो इतनी तेज थी कि शिक्षक मुझको कम्प्यूटर कहते थे। गणित के सवालों को तो मैं इस तेजी से हल करती थी कि मेरे साथी चकित हो उठते थे। सच! गुणा-भाग में मेरी बराबरी करने वाला कोई दूसरा छात्रा कक्षा में नहीं था। पर एक कमी मुझे सदा कचोटती रहती थी। कक्षा की सबसे होशियार लड़की होने के बाद भी विद्यार्थियों के बीच मेरी कोई विशेष पूछ नहीं थी। कक्षा के विद्यार्थी मेरे मुकाबले में अक्सर रूचि को तो कभी उमा को ज्यादा महत्व देते थे। अगर कोई चीज उनको पूछनी होती तो वे मेरे पास न आकर किसी दूसरे से पूछना ज्यादा पसंद करते थे। कक्षा के शिक्षक मेरी तारीफ तो अक्सर किया करते थे पर वे महत्व अन्य बच्चों को ज्यादा देते थे। ऐसा क्यों होता है ? मैं अक्सर सोचती थी, पर मुझे कभी भी अपनी समस्या का समाधान प्राप्त नहीं हो पाया।
रूचि के अंक मुझसे सदैव काफी कम आते थे। कक्षा में वह दूसरे स्थान पर आती थी, पर पढ़ाई में उसका मुझसे दूर-दूर तक मुकाबला नहीं था। छोटी सी चुटिया बांधे स्कूल आने वाली वह सांवली सी लड़की मुझे कतई नहीं भाती थी। मैं उससे पढ़ाई के सम्बंध में अक्सर बातें करती थी। उसकी आवाज बहुत मीठी थी। वह गाना बहुत सुन्दर गाती थी। पर न जाने क्यों उसका सांवलापन व ढीले-ढीले कपड़े मुझे रास नहीं आते थे। जब वह मुस्कराती तो उसके दूध जैसे उजले दांत झिलमिलाते हुए दिखाई पड़ते थे। मुझे सदैव आश्चर्य होता था कि आखिर भगवान ने क्या सोच कर रूचि को इतने सुन्दर दांत दिए हैं। उमा के बारे में भी मेरी कुछ ऐसी ही राय थी। उसका घर स्कूल से बहुत दूर था। वह साइकिल से जब उतरती थी तो पसीने से बुरी तरह लथपथ होती थी। मुझे बार-बार अफसोस होता था कि कक्षा में मुझे उमा के बगल में बैठना पड़ेगा। पर हम दोनों के नामों का क्रम रजिस्टर में साथ-साथ था। इसलिए उसके साथ बैठना मेरी मजबूरी थी।
उमा की सारी किताबें पुरानी होती थीं। बातों-बातों में मुझे जानकारी हुई थी कि उसका बड़ा भाई अगली कक्षा में है। इसलिए सदैव उसे भाई की किताबें मिल जाती थीं। उमा को इस बात का कभी कोई मलाल नहीं था। पर मुझे सदैव यह लगता था कि उमा कितनी बेवकूफ है कि सदा पुरानी किताबों से पढ़ती है।
मेरी यह योच मात्रा रूचि और उमा के लिए ही सीमित न थी। बल्कि शायद मेरी निगाहों में कक्षा के सभी विद्यार्थी ही ऐसे थे। मैं चटकारे ले-लेकर उनके बारे में घर में बाते करती थी। मुझे अपने इस काम पर बड़ा मजा आता था। लोगों की कमियों को ढूंढना एक प्रकार से मेरी आदत बन गई थी।
एक बार की बात है। सालों बाद मेरी दादी हमारे घर आई। हम सब लोग बहुत प्रसéा थे। आखिर दादी थी ही इतनी अच्छी। दादी को हमारे घर आए पांच-छह दिन बीत गये थे। मैंने एक दिन देखा कि दादी पड़ोस की मेरी हमउम्र लड़की महिमा से खूब बातें कर रही हैं। मेरी महिमा से बिल्कुल भी दोस्ती नहीं थी। दादी जब लौट कर आईं तो उन्होंने महिमा की बहुत तारीफ की और मुझसे कहा - ”बेटा! महिमा तुम्हारी ही हमउम्र की लड़की है। पर देखो वह अपनी माँ के साथ कितने काम करती है ? कपड़े धोने से खाना बनाने तक सभी कामों में वह अपनी माँ की सहायता करती है। एक तुम हो कि दिन भर इधर-उधर बैठ कर समय बिता देती हो।“
मैंने दादी को समझाया कि महिमा की माँ बीमार रहती हैं। इसलिए सभी घर के काम महिमा को करने पड़ते हैं। फिर मैंने हंसते हुये दादी को बताया कि महिमा पिछले दो साल से एक ही कक्षा में फेल हो रही है। मैं तो महिमा की खिल्ली उड़ा रही थी, पर दादी जी महिमा की बात सुनकर दुःखी हो उठीं।
बस ऐसे ही समय बीतता गया। मैं दादी को पड़ोस की सभी लड़कियों की खराबियां बताती रहती थी। स्कूल के बच्चों के बारे में भी मेरी दादी से बातें होती थीं। दादी मेरे सभी साथियों के बारे में बड़े ध्यान से सुनती थीं। उनको धीरे-धीरे प्रत्येक के बारे में जानकारी हो गई। पर मेरे लिए आश्चर्य का विषय था। महीने भर में ही दादी की प्रगाढ़ता मोहल्ले के सभी लोगों से हो गई।
मेरी हमउम्र लड़कियां तो दादी की भक्त सी हो गईं। मैं अक्सर सोचती कि दादी मेरे बताने के बाद भी इन लड़कियों से क्यों बातचीत करती हैं ? मेरी बातें दादी की समझ में क्यों नहीं आती हैं ?
फिर दादी के जाने का समय निकट आ गया। एक दिन दादी ने मुझसे पूछा, ”बेटी, तुम्हारे दोस्त बहुत कम हैं। तुमसे मिलने तो कोई आता ही नहीं है। मोहल्ले में बहुत सारे अच्छे बच्चे हैं। तुम्हें उनसे मेल जोल बढ़ाना चाहिए। तुम उनसे बहुत सी बातें सीख भी सकती हो।“
”मैं?“ मैंने आश्चर्य से दादी से पूछा, ‘दादी तुम जानती हो कि मैं कक्षा की सबसे होशियार लड़की हूँ। पढ़ाई-लिखाई में कोई भी बच्चा मेरा मुकाबला नहीं कर सकता है। गुणा-भाग के मामले में तो स्कूल में मुझे कम्प्यूटर कहकर पुकारा जाता है। मैं क्या सीखूंगी इन लड़कियों से ? इनको तो कुछ आता ही नहीं है।’
मैंने कुछ रूककर बात आगे बढ़ाते हुये कहा - ‘दादी मैंने आपको इन लड़कियों के बारे में बताया था न। ये सब तो बिल्कुल बेवकूफ व फूहड़ लड़कियां हैं।’
दादी मेरी बात सुनकर मुस्करा दीं। फिर उन्होंने मुझे समझाया - ‘तुम्हें दूसरों के विषय में ऐसा नहीं सोचना चाहिए। तुम पढ़ाई में जरूर होशियार हो। किन्तु दूसरे बच्चों में भी ढेर सारे गुण हैं। इसलिए तुम्हें दूसरों की अच्छी बातों को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।’ ‘मैं जानती हूं कि तुम गणित में बहुत तेज हो। पर आज से तुम जीवन का गणित सीखने का प्रयत्न करो। बेटी! अपने सामने वालों का आंकलन उसके अवगुणों से न करके उसके गुणों से करना सीखो। गुणी व्यक्तियों को पाना बड़ा मुश्किल है। इसलिए किसी के गुणों को हम दस गुना बढाकर महत्व देना चाहिए और अवगुणों को दस गुना घटाकर। पर साथ ही दूसरे के अवगुणों से हमेशा सतर्क रहना चाहिए। इन सब लड़कियों में जरूर कोई न कोई गुण अवश्य छिपा है। इन्हीं गुणों के कारण ये मुझे अच्छी लगती हैं। तुम विचार करके देखना।’
दादी चली गईं। पर वे मुझे जीवन का गुणा-भाग सिखा गईं। अब मुझे पसीने से लथपथ उमा के शरीर से उसकी मेहनत व हिम्मत की महक आने लगी थी। उसकी पुरानी किताबों में मुझे चीजों का सदुपयोग करने की भावना दिखाई देने लगी।
रूचि का सांवलापन उसकी मीठी आवाज के बीच में पता नहीं कहां छिप गया। मुझे हर पल यही अनुभूति होने लगी कि रूचि को ईश्वर ने कितना सुन्दर गला दिया है। काश! मैं भी रूचि की भांति गाना गा सकती। पड़ोस की काम करती महिमा को देखकर मुझे सदैव ऐसा लगने लगा कि भगवान ने उसके साथ न्याय नहीं किया है।
मैं अक्सर प्रभु से यही प्रार्थना करती कि महिमा की माँ को जल्दी ठीक कर दें ताकि महिमा भी हम लोगों की भांति खेल सके।
दादी की सीख से मेरे जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आ गया। देखते-देखते मेरे ढेर सारे मित्रा बन गये। न जाने कितने लोगों की मैं चहेती बन गई। सच जीवन का गणित, किताबी गणित से बिल्कुल अलग है।



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