सोमवार, 22 अप्रैल 2013

इतने साल बाद Hindi story by Hem Chandra Joshi


इतने साल बाद  

कहानी : हेम चन्द्र जोशी 


आज मैं बहुत खुश  था।  मेरे बेटे ने फौन पर मुझे सूचना दी थी कि अगले सप्ताह वे सब एक महीने की छुटटी में भारत वापस आ रहे हैं। सच, पिछली बार जब वे लोग  ब्रिटेन  गये थे तो मेरा पोता सचिन उनके गोद में गया था। फिर मैंने इन्टरनैट में वीडियों में बातें करते हुए  उसको लड़खड़ाते हुये चलना सीखते देखा था। वैज्ञानिकों ने भी क्या चीज बना डाली । मीलों दूर होते हुये भी लोग ऐसे लगते हैं कि मानो सामने बैठ कर बातें  कर रहे हों । न जाने कितने दिनों से सचिन को एक एक चीज सीखता हुआ मैं देख रहा था। सचिन ने तो अब चलने के साथ साथ खूब बोलना भी सीख लिया था। आखिर तब से चार साल बीत चुके थे।

जब सचिन इन्टरनैट में मुझसे बातें करता तो मैं मन ही मन  सोचता था कि जब वह वास्तव में मेरे पास आयेगा तो हमको तुरन्त पहचान लेगा क्या ? या फिर हमको एक नयी शुरुवात   करनी पडे़गी। खैर अब तो बहुत शीघ्र  ही वे आने वाले थे।  सब कुछ पता चल ही जाना था। ऐसा ही मन में विचार आ रहा था।
वास्तव में जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो उसके पास कोई काम धाम तो रह नहीं जाता  है। और काम धाम नहीं रहता तो उसके पास बातें करने के लिये भी कोई  नयी चीजें नहीं रहती  है। इसी लिये वह पुरानी यादों को संजोये, उनके बारे में ही शायद  अक्सर सोचा करता है। कम से कम मेरा तो कुछ ऐसा ही हाल है। मैं जब भी इन्टरनैट में बैठकर अपने बेटे को “औन-लाईन” न पाकर भी  झीकता हूँ  तो मेरी  पत्नी अक्सर यही कहती है कि-”आपको तो कोई काम धाम है नहीं। अब आप सोचते हो कि सब अपना काम धाम छोड़कर इन्टरनैट में बैठ जायें । पर ऐसा हो नहीं सकता।“
मुझे कुछ कहते नहीं सूझता था और मैं बड़बडाते हुये कुछ और काम में लग जाता था। पर मेरा मन एकटक बच्चों की ओर ही लगा रहता था। ऐसे ही खाली क्षणों  में जब एक दिन मै अकेला बैठा सोच रहा था तो एकाएक मुझे बचपन की यादें ताजा हो गयी। यह मन भी  कैसा है। एक ही क्षण में यह बुढ़ापे से बचपन में पहुँच  जाता है।
पापा कहते थे कि मेरे दादा जी बहुत अच्छे थे। पापा बताया करते थे कि दादा जी सदा  अपनी कक्षा में प्रथम आया करते थे। यदाकदा पापा जब पिताजी की एक पुरानी डिक्सनरी को प्रयोग करते तो जरूर कहा करते थे कि यह दादा जी को कक्षा-9  में प्रथम आने पर मिली थी। देखो इसमें एक सार्टिफिकेट भी चिपका हुआ है। यही कारण था कि यह शब्दकोष घर  में किताबों के बीच विशिष्ट  स्थान बनाये हुआ था। पिताजी कभी दादाजी की  हस्तलिपि की तारीफ  करते थे तो कभी उनकी अंग्रजी की। पर मेरे बालमन को ये बातें समझ में नहीं आती थीं। क्यों कि दादा जी मुझे बिलकुल पसन्द न थे।
मैं अक्सर दादा जी पर नाराज होकर कहता ”दादाजी, आपके नाखून कितने गन्दे हो रहे हैं। आप इनको काटते क्यों नहीं हैं?“
दादाजी अपने हाथों को देखते और फिर कहते -“ऐसे ज्यादा तो नहीं बढे़ हैं। खाली बातें क्यों करता है?“
मै कहता था कि आप मेरे दोस्तों से मिलने मत आना तब वे  हॅसते हुये कहते थे-”ठीक है यार। तेरे दोस्तो के सामने नहीं आऊंगा । ठीक है?“
मेरी  अक्सर उनसे उनके कपड़ो के बारे में भी नोकझोक हुआ करती थी। मैं उनसे कहता -”दादाजी कमीज बदल लीजिये। देखिये यह गन्दी हो गयी है।“
तब दादाजी अपने कपड़ो को देखते और फिर कहते -“ अरे आज सुबह ही तो कमीज बदली है। इतने जल्दी कैसी गन्दी हो जायेगी?”
”दादा जी, आज आप किचन गार्डन में काम कर रहे थे। वहीं गन्दी हो गयी होगी ।” मैं उनको समझाता था पर वे बात नहीं मानते थे। उधर दादाजी जितना मेरे पास आना चाहते मैं उनसे उतनी ही दूर भागना चाहता था।
उन बचपन की यादों को सोचता हुआ अक्सर मुझे भय रहता कि कहीं सचिन भी मुझसे ऐसा ही व्यवहार तो नहीं करेगा? पर मैं अपने मन की आशंकाओं को किसी के साथ बाँट  भी नहीं सकता था क्यों कि मुझे मालूम था कि सभी एक ही बात कहेंगे -“आपको तो बस ऐसा ही सूझता है।”
फिर वह दिन  भी आ गया जब अपने मां-बाप के साथ सचिन आ पहुंचा। मैं   भी उसको लेने हवाई अडडे पहुंचा । इन्टरनैट में मुझसे खूब बात करने वाला सचिन मुझे कुछ गुमशुम सा दिखायी दिया। सबने कहा कि अभी-अभी आया है इसलिये शरमा रहा है। कार की पिछली सीट में वह मेरे पास ही बैठा पर उसने मुझसे कोई ज्यादा बात नहीं की।
मैंने महसूस किया कि वह  बीच-बीच में मुझको बड़ी गौर से देख रहा है। पर उसके मन  में क्या चल रहा है मैं जान नहीं पाया।
“क्यों सचिन मुझे पहचान रहे हो क्या?” -मैंने बात बढ़ाने के लिये पूछा।
सचिन ने सिर हिला कर हाँमी भर दी पर कुछ बोला नहीं । एक लम्बा रास्ता बस ऐसे ही कट गया पर सचिन में  मुझे वह जोश  नहीं दिखायी दिया जो वह इन्टरनैट में  चैटिंग करते समय दिखाता था।
अगले दिन सुबह सचिन व उसका पापा मेरे कमरे में आये। “उठ गये हैं पापा?”-मेरे बेटे ने पूछा।
“हाँ  हाँ, उठ गया हूँ । “- मैंने  कहा।
“दादा जी, आपका कमरा तो बहुत साफ सुथरा है पर आप इतने गन्दे क्यों बने रहते हो?” -सचिन का प्रश्न  था।
“सचिन। चुप रहो। ”- मेरे बेटे ने उसको डांटा ।
“नहीं नहीं । उसको बोलने दो। “-मैंने कहा और मुझे अपनी वर्षो पुरानी बातें याद आ गयी।

“क्यों सचिन, मेरा क्या गन्दा है ?” मैंने पूछा।
”दादाजी आपके हाथ के नाखून कितने गन्दे हैं। ? पता नहीं आपने कब से नहीं काटे हैं ?“ - सचिन ने कहा।
 “बेटा मैंने तो ये नाखून कल ही काटे थे। ये गन्दे कैसे हो सकते हैं? ” - मैंने आश्चर्य से पूछा।
“ कितने बेतरकीब कटे हुये हैं ये। और फिर जरा अपने पैर के नाखूनों को तो देखिये। कैसे हो गये हैं। ये ? ” -सचिन ने कहा और फिर  मेज से उठा कर मेरा चश्मा  मेरे हाथ में दे दिया।
मैंने चश्मा लगाकर देखने की कोशिश  की और फिर हाथ के स्पर्श  से पैरों के नाखूनों को देखा जो वास्तव में काफी बढ़े हुये थे। मुझे अपने दादाजी कि याद आ गयी । शायद  उनको भी तब दिखायी नहीं देता होगा।
मैंने चश्मा लगाकर देखने की कोशिश की और फिर हाथ के स्पर्श से पैरों के नाखूनों को देखा जो वास्तव में काफी बढे़ हुये थे। मुझे अपने दादा जी कि याद आ गयी।शायद उनको भी तब दिखायी नहीं देता होगा।
”सचिन, तब तो मेरी कमीज भी काफी गन्दी हो गयी होगी? “ - मैंने अनुमान लगा कर पूछा।
“हाँ  हाँ दादा जी । बहुत गन्दी है और पुरानी भी हो चुकी है।-सचिन ने कहा।

मैं समझ गया। सब समय का फेर था। इतने साल बाद मुझे अपने दादा जी याद आ रहे थे और मुझे महसूस हो रहा था कि वे वास्तव में बहुत अच्छे रहे होगें । तभी तो मेरे पिताजी उनकी इतनी बड़ाई किया करते थे। पर एक प्रश्न अभी अनउत्तरित था। आखिर मेरी इन कमजोरियों के लिये जिम्मेवार कौन था?  आखिर मैं या फिर मेरी देखभाल करने वाले घर के छोटे लोग। मैंने तो अपने दादा जी के नाखूनों का या फिर कपड़ो का कभी कोई ध्यान नहीं दिया। पर मैंने सचिन को प्यार से बुलाया और कहा- ”बेटे, अब मेरी आखें तुम्हारी जैसी तेज नहीं हैं। मेरी बूढी आखें अब समझ नहीं पाती है कि क्या गन्दा है और क्या साफ । इसलिये जब जब तक तुम मेरे पास हो मैं चीजों को तुम्हारी आँखों  से देखूँगा। क्या तुम इस जिम्मेवारी को संभालोगे? शायद सचिन को कुछ भी समझ में नहीं आया। और तुरन्त ढूढकर नेलकटर ले आया। उधर गीली आँखों से मेरे बेटे ने आलमारी से निकाल कर साफ कमीज मेरे ओर बढा दी और रूंधे गले से कहा -” पिताजी यह जिम्मेवारी तो हम लोगों की है। लाईये मैं आपके नाखून ठीक कर दूँ ।
मैं अब चिन्ता मुक्त था क्यों मेरा पोता शायद हमसे कहीं अधिक समझदार था।

 हिंदी कहानी इतने साल बाद

मंगलवार, 19 मार्च 2013

 पसीजी हुयी रोटियाँ



कहानी: हेम चन्द्र जोशी




कालेज में गरमियों की छुटियाँ शुरू हुयी तो मन बड़ा प्रसन्न हुआ। सोचा चलो कम से कम गरमियों की महीने तो हॉस्टल के खाने से छुटटी मिलेगी। हास्टल का खाना खाते-खाते मन भर गया था।
घर पहुँच कर मेरी दिनचर्या बिगड़ गयी। कहाँ तो हॉस्टल में सुबह नहा-घोकर आठ-साढे़ आठ के बीच नाश्ता कर लिया करते थे। अब घर में मैं रोज देरी तक टी0 वी0 देखकर, सुबह देरी से उठा करता था। नाश्ता भी लगभग साढे़ दस बजे के करीब खाया करता था। फिर देरी से 
नाश्ता का प्रभाव यह था कि मैं लंच भी देरी से लेने लगा।
उधर मम्मी सुबह-सुबह स्कूल के लिए निकल पड़ती थी। मम्मी के जाने के बाद खाना बनाने वाली आती और सब्जी रोटियाँ बनाकर कैसरौल में रख कर चली जाती । मम्मी जब स्कूल से घर लौटती थी तो उनको भूख लगी होती थी। अतः वह कपड़े बदल कर लंच लेने बैठ जाती । मैं पेट भरा होने के कारण उनके साथ टेबिल पर खाने नहीं बैठ पाता था। मम्मी के खाने के काफी देर बाद मैं माइक्रोवेब में सब्जियाँ गरम कर खाने की टेबल पर अकेला ही बैठता था। बस कुछ दिनों ऐसा की क्रम चलता रहा।



फिर एक दिन खाना बनाने वाली लम्बी छुटटी लेकर चली गयी। उसके बेटे की शादी  के कारण माँ उसको मना नहीं कर पायी। किन्तु हमारे घर का सिस्टम कुछ बिगड़ गया। अब मम्मी को सुबह कुछ जल्दी उठना पड़ता था ताकि वे खाना बनाकर स्कूल जा सकें। पर यह क्रम ज्यादा दिन नहीं चल पाया क्यों कि एकाएक मम्मी की तबियत खराब हो उठी।



मम्मी को स्कूल से छुटटी लेनी पड़ी और डाक्टर ने मम्मी को सलाह दी की वे कुछ दिनों तक हल्का खाना खायें। मम्मी अपने लिये अब कार्न फलैक्स, खिचड़ी या फिर ऐसी कोई चीज बनाती और मेरे लिये चार फुल्के बनाकर कैसराल में रख देती। बस यहीं से मेरी समस्या की शुरूवात हो चली। मम्मी की रखी रोटियाँ कैसराल में पसीज जाती थीं और सबसे नीचे की रोटी तो नीचे से बिलकुल गीली हो जाया करती थी। मुझको  उसको खाने में बड़ा बुरा लगता था। पर माँ कि तबियत को देखकर मैं उनसे कुछ कह भी नहीं पाता था। दरअसल यह बहुत काफी था कि माँ खाना बनाकर जैसे-तैसे काम चला रही थी।

मैं अक्सर फुर्सत के क्षणों मे सोचता था कि माँ तो बहुत अच्छा खाना बनाती थी। अब उनकी इन रोटियों को ऐसा क्या हो गया है  कि वे खाने में गीली हो जाती हैं? उनकी रोटियों से तो खाना बनाने वाली की रोटियाँ  ही अच्छी थी। जो कम से कम गीली तो नहीं मिलती थीं। पर सच तो यह था कि माँ के बनाये खाने का स्वाद ही कुछ और था। माँ की सब्जियाँ और दाल की कुछ बात ही और थी। पर पसीजी हुयी रोटियाँ सचमुच खाने के मेज में मूड ही खराब कर देती थी।

एक दिन मैंने माँ से कहा कि वे कैसरौल के अन्दर रोटियों को रखते समय एक नैपकिन की जगह दो नैपकिन को बिछा दिया करें । माँ कुछ समझ नहीं पायी। उन्होंने प्रश्न किया- ”क्यों ? ऐसी क्या आवश्यकता है।“

”ऐसे ही, रोटियाँ ज्यादा देर तक गर्म रहेंगी।“ -मैंने उत्तर दिया। दरअसल मैं माँ को बताना नहीं चाहता था कि आजकल रोटियाँ पसीज रही हैं। मेरी बात सुन कर माँ हॅंस पड़ी और बोली- ” बुद्रधू क्या कागज से भी कहीं रोटियाँ गरम रह सकती हैं?“

बात आयी और गयी । मैंने भी बात को नहीं बढ़ाया। मैं नहीं चाहता था कि माँ को बात सुनकर बुरा लगे। उधर माँ ने भी मेरी बात पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया।


इधर माँ कि खराब तबियत को सुनकर घर में दीदी आ गयी। अब काम सुचारू रूप से होना आरम्भ हो गया। कुछ दिन बाद बातों ही बातों में दीदी ने बताया कि अब माँ की तबियत काफी ठीक है। इसलिये से वापस जाने वाली हैं।

”ओह! दीदी । अब मुझे फिर  माँ के हाथ की बनायी पसीजी हुयी रोटिमाँ खानी पड़ेगी।“- मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा।

”पसीजी हुयी रोटिमाँ ? मैं कुछ समझ नहीं पायी।“- दीदी ने आश्चर्य से मुंह फाड़ते हुये पूछा।

मैंने धैर्य से धीरे धीरे दीदी को सारी बातें बतायीं और कहा-”दीदी, अब तो माँ के बनाये खाने में वह बात नहीं रही। माँ की रोटियाँ  तो कैसरौल में पसीज जाती हैं। उन गीली रोटियों को देखकर खाने का सारा मजा ही खराब हो जाता है। इससे अच्छी तो मिसरानी की रोटियाँ होने लगी हैं जो पसीजती तो नहीं हैं।“

दीदी मुझसे बहुत देर तक इस विषय में बात करती रही। पर उनको कुछ समझ में नहीं आया। वह इस बात को मानने को कतई तैयार न थी कि माँ की बनायी रोटियाँ अच्छी नहीं होती हैं। पर उनके पास मेरी बात को न मानने  का कोई स्पष्ट कारण भी न था। । आखिरी में दीदी ने हार कर कहा-”अंकुर, तुम्हारी बात मेरे पल्ले बिलकुल नहीं पड़ रही है। यह तो मैं भलीभांति जानती हूँ कि कैसरौल के अन्दर सबसे नीचे वाली रोटियाँ कुछ पसीज जाती हैं। चाहे वे किसी की बनायी रोटियाँ हो । पर यहाँ सिर्फ माँ की बनायी रोटियाँ पसीजती हैं और मिसरानी की रोटियाँ नहीं, कुछ समझ में नहीं आता।“

हमारी बातों को शायद बहुत देर से माँ सुन रही थी। उन्होंने धीरे से मुस्कराते हुये हम दोनों को बुलाया और पूछा-”क्या बातें चल रही हैं भाई-बहन में, जरा मुझे भी तो बताओ?“

”कुछ नहीं माँ, बस ऐसे ही हम दोनों एक साथ बोल पडे़। वास्तव में हम माँ को कुछ भी बताना नहीं चाहतें थे।

”अरे इतनी देरी से मेरी बुराईयाँ कर रहे हो और कह रहे हो कुछ भी नहीं।“ माँ ने जोर से हॅंसते हुये कहा।

माँ अब ठीक हो गयी थी इसलिये माँ ने बातों में रस लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने आगे कहा-” आओं तुम दोनों । मैं तुम को पसीजने वाली रोटियों के बारे में बताउंगी।“

अब कोई चारा न देख कर हम दोनों माँ के पास पहुँच गये। माँ ने आगे जो बताया वह सचमुच अदभुत था। अब क्यों कि मैं खाना देरी से खाता था अतः माँ रोज मिश्ररानी का बनाया खाना मुझसे पहले दोपहर में खा लेतीं थीं। क्यों कि खाना खाते समय माँ रोज सबसे नीचे की दो रोटियाँ और ऊपर की एक रोटी खा लेती थी अतः इसी वजह से कैसरौल में न तो नीचे की रोटी गीली रहती थी और न ऊपर की। इसीलिये मुझे को मिश्ररानी की रोटियाँ  ज्यादा अच्छी दिखने लगी। सोचो तो मेरी बात बिलकुल सही थी पर सच यह था कि माँ की ममता के कारण मुझे कभी भी खराब रोटियाँ नहीं मिली थीं।

मैं बहुत देर तक अपनी माँ को देखता रह गया जो मेरा इतना ख्याल रखती है ”ओह माँ तुम कितनी अच्छी हो।“ कह कर मैं माँ से लिपट गया और मैंने चुपके से आंखों के गीले किनारों को पोंछ डाला।




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शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

अन्धे हो क्या


अन्धेहो क्या?


कहानी
हेम चन्द्र जोशी



            कम्प्यूटर में विडियो गेम खेलते-खेलते पता नहीं कब मेरी आंखे कमजोर हो गयी यह पता ही नहीं चला। बस अक्सर सिर में दर्द रहने लगा था और वह भी खास कर किताबें पढ़ने पर। कक्षा में जब ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ कुछ धुधंला सा दिखायी देने लगा तो मैंने इस बात को पापा से कहा। फिर पापा मुझे आँखों के डाक्टर के पास ले गये फिर क्या था डाक्टर ने मेरी आंखे टैस्ट की और बताया कि आंखे कमजोर हो गयी हैं। इसके बाद उन्होंने कुछ आँखों की कसरतें बतायी और चश्मा लगाने के लिये कह दिया। वह दिन है और आज का दिन है कि चश्मे ने मेरा पीछा ही नहीं छोड़ा।  इस घटना को लगभग पांच साल बीत गये हैं। यहाँ  तक कि हाईस्कूल तक मेरे पहुँचते पहुँचते मेरे साथियों ने मुझे चश्मुद्दीन कह कर चिढ़ाना भी छोड़ दिया। क्यों कि कक्षा में अब मेरे जैसे चश्मे वाले मेरे और भी कई साथी हो गये थे।
           
            सभी बच्चे मानते थे कि हाईस्कूल की कक्षा विशेष हो जाती है। क्यों कि तब हमको बोर्ड की परीक्षा देनी होती है और हम अपने को कुछ बड़ा  समझने  लगते हैं। तभी तो चश्मा अब मेरे फैशन  का हिस्सा बन गया था। मैंने  स्टाईलिस चश्मा खरीद रखा था जो नजर के साथ धूप के चश्मे का काम भी करता था। आखिर धूप को देखकर रंग हल्का गाढ़ा करने वाले इन फोटोक्रोमेटिक लैन्सों का कक्षा में रौब ही कुछ अलग था। और फिर इस फैशन की आंधी में, मैं कुछ उद्दंड सा हो चला था। अब किसी भी बात का सीधा उत्तर देना मुझे भाता ही नहीं था। क्लास में भी यदा कदा मौका देखकर मैं शरारतें कर ही जाता था।

            उस दिन मोहल्ले में साईकिल में एक गाँव वाला व्यक्ति घूम रहा था। उसको एक पते की तलाश थी  पर उसको घर नहीं मिल पा रहा था। उसने मुझे रोक कर कहा- ”बाबू जी क्या आप यह पता बता देंगे। मैं बहुत देर से ढूंढ़ रहा हूँ।कहकर उसने एक हिन्दी में लिखा पता मेरी ओर बढ़ा दिया।
            मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। दरअसल में मुझे उसका बाबू जी कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर मेरे जैसे अपटूडेट लड़के को उसने  साहब या सर कह कर पुकारना चाहिये था। मैंने  तिरछी निगाहों से परचे को देखा और पढ़ा। पता मुझे मालूम नहीं था।  पर- ”मुझे मालूम नहीं है।कहना मुझे ठीक नहीं लगा। मुझे  लगा कि इससे मेरा रौब कुछ कम हो जायेगा। अतः मैंने  अपना चश्मा ठीक करते हुये रौब से कहा-” भय्या यह पर्चा तो हिन्दी में लिखा है। यदि अंग्रेजी में लिखवा कर लाओ तो शायद बता सकूँ।

             गाँव वाला आवाक् सा मुझे देख कर आगे बढ़ गया। उसे कोई बात समझ में नहीं आयी पर मैं अपने मद में चूर आगे बढ़ गया। मुझको  लगा था कि मैंने एक बहुत बेहतरीन उत्तर दिया था। बस ऐसे ही ऊट पटांग बातों पर मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

            फिर एक दिन मैं अपनी नयी स्कूटी में ऐसे ही इधर से उधर के चक्कर मार रहा था कि घर के मोड़ पर एक लाठी वाले व्यक्ति के एकाएक स्कूटी के सामने आने से मैं गिर पड़ा मुझे  एकाएक  जोर को ब्रेक लगाना पड़ा था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति को बचाने के लिये मैं जमीन में गिर पड़ा  था उस व्यक्ति के पास इतना शिष्टाचार भी था कि वह कर मुझे सहारा दे दे।

            मुझे मन ही मन क्रोध गया। मैंने गुस्से में चिल्लाकर कहा- ”सड़क में देख कर नहीं चल सकते यह कहते हुये मैं कपड़ो की मिट्रटी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।

            ”बाबू जी, अन्धा हूँ तभी तो इस लाठी के सहारे चलता हूँ जरा मेरी लाठी उठाकर मुझको दे दीजिये।उसने दीनता से आग्रह किया।

            ”दिखता नहीं तो मैं क्या करूँ ? सड़क  पर चलते क्यों हो? बेकार में मुझको चोट लगवा दी। अन्धे कहीं के।कह कर मैंने अपनी स्कूटी उठा ली पर उसका डण्डा उठाकर उसको नहीं दिया। मेरा आपा गुस्से में चढ़ गया था।  मेरा विवेक मेरा साथ नहीं दे रहा था कि मैं इतना समझ सकता कि एक अंधा अपने डण्डे को कैसे ढूंढ़  कर उठायेगा।

            तभी दो-चार आदमी वहां पर गये और उन्होंने उसका डण्डा उठाकर उस व्यक्ति को दे दिया। उस व्यक्ति  ने धन्यवाद कहा और फिर आगे बढ़ गया। पर मैं मन ही मन बडबड़ाता रहा कि आखिरी ये अन्धे लोग सड़क पर घूमते क्यों हैं। इनकी वजह से मुझे फोकट में चोट लग गयी थी। इनको तो बन्द करके रखना चाहिये।


            शाम को ताऊ जी को रेलवे स्टेशन जाना था। वे यात्रा में कहीं बाहर जा रहे थे। मैंने मौका अच्छा पाकर कहा- ”ताऊ जी, मैं आपको स्टेशन छोड़ आऊँगा।दरअसल में अपनी स्कूटी चलाना चाहता था। ताऊ जी ने हामि भर दी। फिर मैं शाम तक इस बात का इन्तजार करता रहा। रात के नौ बजे की गाड़ी थी मैं ताऊ जी को लेकर  जल्दी ही स्टेशन में पहुँच गया। असली में मुझे स्कूटी चलाने की बहुत जल्दी थी। ताऊ जी भी थोड़ी जल्दी ही स्टेशन पहुँचना चाहते थे क्यों कि उनका आरक्षण कन्फर्म नहीं हुआ था।

            स्टेशन पहुँच कर ताऊ जी अपने परिचित किसी व्यक्ति को ढूंढ़ने के लिये चले गये और उन्होंने मुझसे कहा- ”जाओ, जरा रिजर्वेशन चार्ट को देखकर आओ। क्या पता वेटिंग लिस्ट में नाम हो।

            मैं रिजर्वेशन बोर्ड को ढूंढ़ने आगे निकल गया। एक जगह लोगों की भीड़ लगी थी। लोग अपना नाम देखने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी भीड़ में घुस गया। आरक्षण चार्ट के पास पहुँचने पर मैंने  पाया कि मैं कुछ पढ़ नहीं पा रहा हूँ। दरअसल में मैं जल्दी के कारण अपना चश्मा लाना भूल गया था। मैंने बहुत कोशिश  की पर कुछ भी नहीं पढ़ पाया। पीछे से लोग जोर लगा रहे थे। सभी को जल्दी थी कि वे ट्रेन में जल्दी से जल्दी बैठें।

            मेरे लिये बड़ी मुश्किल थी। चश्मे के बिना में पढ़ा लिखा अनपढ़ बन कर रह गया था। मुझे  महसूस हुआ कि आंखे कमजोर होना जब इतना परेशानी भरा है तो अन्धा होना कितना बड़ा श्राप है। इन मुश्किल क्षणों में मैंने बगल में खडे़ अपने हमउम्र लड़के से फरियाद की- ”भाई, जरा एल0 एम0 त्रिपाठी का रिजर्वेशन देख दीजिये।

            उसने मुझे झिड़कते हुये कहा-  ”अन्धे हो क्या ? खुद क्यों नहीं देख लेते।फिर वह बड़बड़ाता हुआ भीड़ से बाहर चला गया।
            मैं चश्मा साथ होने के कारण कितनी बेइज्जती झेल रहा था। मैंने मन ही मन सोचा कि यदि मैं अंधा होता तो क्या होता। मुझे सुबह मेरी स्कूटी से टकराये अन्धे की याद गयी मैंने भी उसको कितना भला बुरा कहा था।हे ईश्वर , मुझको माफ करना। मैं बहुत खराब आदमी हूँ अब मैं कभी ऐसे काम करूँ मैंने मन ही मन  प्रार्थना की। मुझे अपनी सभी बद्तमीजियाँ  एक एक करके याद रही थीं और पछतावा हो रहा था।

            ”आओ, मेरा रिजर्वेशन हो गया है।“  पीछे से ताऊ जी ने आवाज दी। पछतावे के साथ मैं धीरे-धीरे ताऊ जी के पीछे चल दिया।
            ”भगवान किसी की आंखे खराब मत करना।ऐसे भाव अब मेरे मन में उठ रहे थे।