मंगलवार, 19 मार्च 2013

 पसीजी हुयी रोटियाँ



कहानी: हेम चन्द्र जोशी




कालेज में गरमियों की छुटियाँ शुरू हुयी तो मन बड़ा प्रसन्न हुआ। सोचा चलो कम से कम गरमियों की महीने तो हॉस्टल के खाने से छुटटी मिलेगी। हास्टल का खाना खाते-खाते मन भर गया था।
घर पहुँच कर मेरी दिनचर्या बिगड़ गयी। कहाँ तो हॉस्टल में सुबह नहा-घोकर आठ-साढे़ आठ के बीच नाश्ता कर लिया करते थे। अब घर में मैं रोज देरी तक टी0 वी0 देखकर, सुबह देरी से उठा करता था। नाश्ता भी लगभग साढे़ दस बजे के करीब खाया करता था। फिर देरी से 
नाश्ता का प्रभाव यह था कि मैं लंच भी देरी से लेने लगा।
उधर मम्मी सुबह-सुबह स्कूल के लिए निकल पड़ती थी। मम्मी के जाने के बाद खाना बनाने वाली आती और सब्जी रोटियाँ बनाकर कैसरौल में रख कर चली जाती । मम्मी जब स्कूल से घर लौटती थी तो उनको भूख लगी होती थी। अतः वह कपड़े बदल कर लंच लेने बैठ जाती । मैं पेट भरा होने के कारण उनके साथ टेबिल पर खाने नहीं बैठ पाता था। मम्मी के खाने के काफी देर बाद मैं माइक्रोवेब में सब्जियाँ गरम कर खाने की टेबल पर अकेला ही बैठता था। बस कुछ दिनों ऐसा की क्रम चलता रहा।



फिर एक दिन खाना बनाने वाली लम्बी छुटटी लेकर चली गयी। उसके बेटे की शादी  के कारण माँ उसको मना नहीं कर पायी। किन्तु हमारे घर का सिस्टम कुछ बिगड़ गया। अब मम्मी को सुबह कुछ जल्दी उठना पड़ता था ताकि वे खाना बनाकर स्कूल जा सकें। पर यह क्रम ज्यादा दिन नहीं चल पाया क्यों कि एकाएक मम्मी की तबियत खराब हो उठी।



मम्मी को स्कूल से छुटटी लेनी पड़ी और डाक्टर ने मम्मी को सलाह दी की वे कुछ दिनों तक हल्का खाना खायें। मम्मी अपने लिये अब कार्न फलैक्स, खिचड़ी या फिर ऐसी कोई चीज बनाती और मेरे लिये चार फुल्के बनाकर कैसराल में रख देती। बस यहीं से मेरी समस्या की शुरूवात हो चली। मम्मी की रखी रोटियाँ कैसराल में पसीज जाती थीं और सबसे नीचे की रोटी तो नीचे से बिलकुल गीली हो जाया करती थी। मुझको  उसको खाने में बड़ा बुरा लगता था। पर माँ कि तबियत को देखकर मैं उनसे कुछ कह भी नहीं पाता था। दरअसल यह बहुत काफी था कि माँ खाना बनाकर जैसे-तैसे काम चला रही थी।

मैं अक्सर फुर्सत के क्षणों मे सोचता था कि माँ तो बहुत अच्छा खाना बनाती थी। अब उनकी इन रोटियों को ऐसा क्या हो गया है  कि वे खाने में गीली हो जाती हैं? उनकी रोटियों से तो खाना बनाने वाली की रोटियाँ  ही अच्छी थी। जो कम से कम गीली तो नहीं मिलती थीं। पर सच तो यह था कि माँ के बनाये खाने का स्वाद ही कुछ और था। माँ की सब्जियाँ और दाल की कुछ बात ही और थी। पर पसीजी हुयी रोटियाँ सचमुच खाने के मेज में मूड ही खराब कर देती थी।

एक दिन मैंने माँ से कहा कि वे कैसरौल के अन्दर रोटियों को रखते समय एक नैपकिन की जगह दो नैपकिन को बिछा दिया करें । माँ कुछ समझ नहीं पायी। उन्होंने प्रश्न किया- ”क्यों ? ऐसी क्या आवश्यकता है।“

”ऐसे ही, रोटियाँ ज्यादा देर तक गर्म रहेंगी।“ -मैंने उत्तर दिया। दरअसल मैं माँ को बताना नहीं चाहता था कि आजकल रोटियाँ पसीज रही हैं। मेरी बात सुन कर माँ हॅंस पड़ी और बोली- ” बुद्रधू क्या कागज से भी कहीं रोटियाँ गरम रह सकती हैं?“

बात आयी और गयी । मैंने भी बात को नहीं बढ़ाया। मैं नहीं चाहता था कि माँ को बात सुनकर बुरा लगे। उधर माँ ने भी मेरी बात पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया।


इधर माँ कि खराब तबियत को सुनकर घर में दीदी आ गयी। अब काम सुचारू रूप से होना आरम्भ हो गया। कुछ दिन बाद बातों ही बातों में दीदी ने बताया कि अब माँ की तबियत काफी ठीक है। इसलिये से वापस जाने वाली हैं।

”ओह! दीदी । अब मुझे फिर  माँ के हाथ की बनायी पसीजी हुयी रोटिमाँ खानी पड़ेगी।“- मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा।

”पसीजी हुयी रोटिमाँ ? मैं कुछ समझ नहीं पायी।“- दीदी ने आश्चर्य से मुंह फाड़ते हुये पूछा।

मैंने धैर्य से धीरे धीरे दीदी को सारी बातें बतायीं और कहा-”दीदी, अब तो माँ के बनाये खाने में वह बात नहीं रही। माँ की रोटियाँ  तो कैसरौल में पसीज जाती हैं। उन गीली रोटियों को देखकर खाने का सारा मजा ही खराब हो जाता है। इससे अच्छी तो मिसरानी की रोटियाँ होने लगी हैं जो पसीजती तो नहीं हैं।“

दीदी मुझसे बहुत देर तक इस विषय में बात करती रही। पर उनको कुछ समझ में नहीं आया। वह इस बात को मानने को कतई तैयार न थी कि माँ की बनायी रोटियाँ अच्छी नहीं होती हैं। पर उनके पास मेरी बात को न मानने  का कोई स्पष्ट कारण भी न था। । आखिरी में दीदी ने हार कर कहा-”अंकुर, तुम्हारी बात मेरे पल्ले बिलकुल नहीं पड़ रही है। यह तो मैं भलीभांति जानती हूँ कि कैसरौल के अन्दर सबसे नीचे वाली रोटियाँ कुछ पसीज जाती हैं। चाहे वे किसी की बनायी रोटियाँ हो । पर यहाँ सिर्फ माँ की बनायी रोटियाँ पसीजती हैं और मिसरानी की रोटियाँ नहीं, कुछ समझ में नहीं आता।“

हमारी बातों को शायद बहुत देर से माँ सुन रही थी। उन्होंने धीरे से मुस्कराते हुये हम दोनों को बुलाया और पूछा-”क्या बातें चल रही हैं भाई-बहन में, जरा मुझे भी तो बताओ?“

”कुछ नहीं माँ, बस ऐसे ही हम दोनों एक साथ बोल पडे़। वास्तव में हम माँ को कुछ भी बताना नहीं चाहतें थे।

”अरे इतनी देरी से मेरी बुराईयाँ कर रहे हो और कह रहे हो कुछ भी नहीं।“ माँ ने जोर से हॅंसते हुये कहा।

माँ अब ठीक हो गयी थी इसलिये माँ ने बातों में रस लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने आगे कहा-” आओं तुम दोनों । मैं तुम को पसीजने वाली रोटियों के बारे में बताउंगी।“

अब कोई चारा न देख कर हम दोनों माँ के पास पहुँच गये। माँ ने आगे जो बताया वह सचमुच अदभुत था। अब क्यों कि मैं खाना देरी से खाता था अतः माँ रोज मिश्ररानी का बनाया खाना मुझसे पहले दोपहर में खा लेतीं थीं। क्यों कि खाना खाते समय माँ रोज सबसे नीचे की दो रोटियाँ और ऊपर की एक रोटी खा लेती थी अतः इसी वजह से कैसरौल में न तो नीचे की रोटी गीली रहती थी और न ऊपर की। इसीलिये मुझे को मिश्ररानी की रोटियाँ  ज्यादा अच्छी दिखने लगी। सोचो तो मेरी बात बिलकुल सही थी पर सच यह था कि माँ की ममता के कारण मुझे कभी भी खराब रोटियाँ नहीं मिली थीं।

मैं बहुत देर तक अपनी माँ को देखता रह गया जो मेरा इतना ख्याल रखती है ”ओह माँ तुम कितनी अच्छी हो।“ कह कर मैं माँ से लिपट गया और मैंने चुपके से आंखों के गीले किनारों को पोंछ डाला।




कैंचियों से मत डराओ तुम हमें हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं PURCHASE MY BOOK: कितना सच? कितना झूठ?? at: http://pothi.com/pothi/node/79

कोई टिप्पणी नहीं: