सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

अनुभूति Hindi story by Hem Chandra Joshi

अनुभूति


 

            मैं कक्षा चार में पढ़ती थी और मेरे छोटे भाई ने अभी स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था। पता नहीं मां को क्या हो गया था। वह अक्सर बीमार हो जाती थीं। हमारे घर अक्सर डाक्टर अंकल आते थे। तीन चार दिन दवा खाने के बाद मां कुछ ठीक हो जाती थीं और वे एक बार फिर रोजाना के कामों में व्यस्त हो जाती थीं। बागवानी से मां का विशेष शौक था।  तरह-तरह के फूल, फल व सब्जियों को उगाना उनके जीवन का एक हिस्सा था। पिताजी उनको काम करता देखकर अक्सर नाराज होते थे। पर मैं या तो उनको चारपाई पर बीमार देखती थी या फिर कड़ी मेहनत करते हुये। पिताजी को अक्सर आफिस के काम से बाहर ही रहना पड़ता था।

                        एक दिन पिताजी ने मां से बातचीत की। उनका मानना था कि मेरी देखभाल घर में ठीक-ठाक नहीं हो पा रही है क्योंकि मां का स्वास्थ ठीक नही रहता था। वह भी बच्चों को घर में ज्यादा समय नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि उनको अक्सर आफिस के काम से बाहर रहना पड़ता है। इस कारण से मां के ऊपर बच्चों का बोझ पड़ जाता है। यही उनका मानना था। इसलिए उन्होंने हम दोनों को नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में भेजने का फैसला कर लिया था ताकि मां के ऊपर कुछ बोझ हल्का हो सके। किन्तु मां इसके लिये तैयार नहीं थी। उनका कहना था कि बच्चों  को अभी मां-बाप की बहुत जरूरत है। फिर बिटटू तो अभी बहुत छोटा है। बहुत देर तक दोनों आपस में बातें करते रहे और अन्ततः केवल मुझे नैनीताल भेजने का निर्णय ले लिया गया। मां की इच्छा न होते हुये भी पिताजी एक सुबह मुझे लेकर चल दिये। मां उस दिन भी बीमार थी। मेरे विछोह ने मां का चेहरा और भी क्लान्त कर दिया। मैं बहुत रोई। मुझे घर छोड़ने की तनिक भी इच्छा न थी । मैंने अपनी डबडबायी आंखों से मां के पीले चेहरे को देखा । मां अशक्त थी। पर मां के क्लान्त चेहरे पर आयी वेदना को मैं मन ही मन समझ गयी। मां की आंखे कह रही थी जा बेटी, खूब मेहनत करना। मेरे वश में अब कुछ नहीं है। पिताजी शायद तेरे भले के लिए ही यह सब कर रहे हैं।मैंने रोते हुये मां से पूछा-मां तुम मुझसे मिलने कब आओगी, आओगी न? "मां" कुछ नहीं बोली। उसने डबडबायी आंखों से स्वीकृति के साथ सिर हिला दिया। पर उनके मन में स्वयं ही शायद एक प्रन था। क्या ऐसा दिन वास्तव में कभी आयेगा ईवर?

            पिताजी मेरा नैनीताल में एडमीशन कर के चले गये। मैं बहुत रोई व गिड़गिड़ा़यी। पर पिताजी का हृदय न पसीजा। पिताजी इतने कठोर हो सकते हैं, मैंने कभी सोचा भी न था। मेरे उन उदास दिनों में मेरा साथ दिया उमा दीदी ने। उमा दीदी हास्टल में हमारे कमरों की मानीटर थीं। वे मुझसे पांच-छह वर्ष  बड़ी होंगी। मुझे रोता देखकर वे मुझे समझाने मेरे पास आ जाती थीं। एक दिन मेरी मां की बीमारी की बात सुनकर वे दुखी हो गयीं। उन्होंने बताया कि उनकी मां नहीं है। इसलिये पिताजी ने उन्हें हाॅस्टल में भेज दिया है। जब मैं मां के बारे में बात करती तो वे बड़े चाव से सुनती। मुझे लगता था कि जैसे बातें सुनकर उमा दीदी अपनी मां की यादों में खो जाती हैं और कुछ पल वे अपनी मां के सानिध्य में बिताने का आनन्द प्राप्त कर लेती हैं । बस सदैव उनके मुंह से मेरी बातें सुनकर एक ही बोल फूटता था- हां, बस ऐसी ही मेरी मां भी थी । उनकी बातें सुन कर मैं सोचती थी कि क्या सभी मांऐ एक जैसी ही होती हैं? कैसी होंगी उनकी मां ? क्या बिल्कुल मेरी मम्मी की तरह?

            समय बीतता गया। मैं जाड़ों की लम्बी छुटिटयों में इस आशा से घर आयी कि मां ठीक हो गयीं होगी। अब मुझे वापस हास्टल नहीं जाना पड़ेगा। पर नियति कुछ और ही थी। मुझे सदैव ही मां को छोड़कर वापस नैनीताल जाना पड़ता था। मां मेरे लिये ढेर सारे शकर-पारे, लड्डू व मठरियां बना कर भेजती थीं। उमा दीदी और मैं अक्सर साथ-साथ बैठ कर उन्हें खाते और मां की बातों करते थे। तीन-चार वर्ष बीत गये। उमा दीदी ने मुझे पहाड़ी नीबू की फूट चाट बनाना सिखा दिया। मैं अब ढेर सारे पहाड़ी नीबू लेकर छुट्टीयों में घर आती थी । जब मैंने पहली बार पहाड़ी नीबू की चाट बनाते वक्त नीबू में मूली, दही, नमक, चीनी व मसाला सब एक साथ मिलाया तो मेरी मां चैंक पड़ी । उन्होंने कहा कि यह सब मिलकर जो जहर बन जायेगा। पर पहाड़ी नीबू के इस जहर का अपना ही स्वाद था। एक बार जो खा ले वह चटकारे लेते ही रह जाता था। मां समझ गयी कि मुझे यह चाट बहुत पसन्द है । छुटिटया बिता कर मैं फिर वापस चली गयी। मां ने मेरे लाये नीबूओं के बीज क्यारी में बो दिये। जब मैं दोबारा छुटिटयों में घर आयी तो ये बीज छोटे-छोटे पौधों की शक्ल ले चुके थे।

            मैं जब भी छुटिटयों घर आती तो उमा दीदी एक ही रट लागाती थीं। इस बार तुम जरूर मां  को नैनीताल लेकर आना। वे एक दो दिन यहां रूक कर अंकल के साथ वापस चली जायेंगी। मेरी बहुत इच्छा है कि मैं उनके दर्शन करूं। मैं सदा हामी भर देती थी। मुझे सदैव यही आशा रहती थी कि मां  इस बार ठीक हो गयी होंगी। जब मैं वापस लौटती तो मैं उमा दीदी से यही कहती थी कि मां अभी ठीक नहीं है। अब वे अगली बार आयेंगी। तब उमा दीदी मां के दर्शन के लिये अगली बार की प्रतीक्षा में लग जातीं।

            पर यह अगली बार कभी नहीं आया। फिर एक बार घर से एकाएक मेरे चाचा जी नैनीताल पहुंचे। कभी भी छुटटी न देने वाली सिस्टर ने मुझे छुटटी दे दी। मैं मां से मिलने के लिये खुशी खुशी चाचा जी के साथ चल दी। चाचा जी ने रास्ते मे बताया कि मां की तबीयत ठीक नहीं है। इसीलिये पापा ने मुझे  बुलवाया है। मैं घर पहुंची तो मुझे  कुछ समझ नहीं आया। घर मे ढेर सारे रिश्तेदार थे। ड्राईगरूम में मां की एक बडी सी तस्वीर लगी हुयी थी। ऐसा लगता था कि मां मेरे स्वागत के लिये खड़ी है और अपना स्नेह भरा हाथ मेरे सिर में रखने ही वाली हैं। थोड़ी ही देर में मुझे पता लग गया। मां अब नहीं थी। मात्र उनकी फोटो रह गयी थी और कुछ यादें । मैं उदास हो गयी। चैथे दिन नैनीताल से मुझे उमा दीदी का पत्र मिला । मेरी छुटटी के प्रार्थना पत्र में मेरी मां  देहावसान की सूचना दी गयी थी। सारे स्कूल को मेरी मां की मृत्यु की सूचना मिल गयी थी । एक मैं ही थी जिसे इस बात की जानकारी घर पहुंच कर हुयी । उमा दीदी ने लिखा थाः-

प्यारी सुरूचि,

            तुम्हारी मां की मृत्यु का समाचार सुनकर हम सभी दोस्त व्यथित हैं। किसी भी स्नेही का विछोह हमारे लिये दुखदायी होता है। किन्तु  माता के विछोह का दुख तो अकल्पनीय है। मैं इसको भली भांति समझ सकती हूं। किन्तु  क्रूर समय की यह नजाकत है कि वह किसी को भी नहीं छोड़ती है। हम सभी नश्वर हैं। ऐसे मौकों एक ही बात रह जाती हैं कि हम अपनी सहनशक्ति को और गहरायी तक खोजें तथा भगवान की इच्छा के सामने नत-मस्तक हो जायें। सचमुच, इस दुनिया में मां का कोई पर्याय नहीं है। मुझे सदैव इस बात का अफसोस रहेगा कि कि मैं उनके दर्शन न कर सकी। तू यह मत समझना कि मां तुम्हारे साथ नहीं हैं । वे आज भी किसी न किसी रूप में हमारे साथ जीवित हैं। उनकी बातों को याद रखना। तुम पाओगी कि हर जरूरत के मौके पर वे सदैव तुम्हारे आस पास ही होंगी। सच, वे आज भी हमारे साथ हैं

तुम्हारी दीदी
उमा
            सच, उमा दीदी का पत्र पढ़कर दुख की उस बेला में मुझे असीम शक्ति व शान्ति प्राप्ति हुयी। मैं ने शाम तक उस पत्र को कई बार पढ़ा।

            दिन बीतने लगे। जीवन की दिनचर्या फिर वापस चलने लगी। धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार भी चले गये। दुख कुछ कम हो गया और यादें रह गयीं । सच, समय जिसने इतना क्रूर आघात किया था अब वह मलहम बनकर मेरे साथ था। जीवन की यह कैसी विडम्बना थी? मैं कभी समझ नहीं पायी।

            फिर आगे का समय कुछ ऐसा कटा कि मैं छुटिटयों में घर वापस ही न आ पायी।  मां के जाने के बाद घर घर नहीं रह गया था । बिट्टू भी मेरे साथ हास्टल आ गया था। घर आने को कोई कारण भी न था। हम दोनों को सदैव मां की याद आती थी। फिर एक जाड़ो की छुट्टियों में मैं और बिट्टू घर वापस आये। रात भर मुझे मां की याद आयी। सुबह जब मैं आंगन में टहलने को आयी तो मैंने देखा कि अमरूद के पेड़ से ढेर सारे तोते मेरी आहट सुनकर फुर्र से आकाश में उड़ चले थे। तोतों के खाये ढेर सारे अमरूद नीचे बिखरे पड़े थे। मुझे एकाएक मां की याद आ गयी । तेज बरसात के बीच मां ने यह अमरूद का पेड़ रोपा था। पिताजी मां पर बहुत नाराज हुये थे क्योंकि मां भीग गयी थीं। उन्होंने कहा था कि वह क्यों नाहक यह पेड़ लगा रहीं हैं। दीवार के किनारे का यह पेड़ जब बड़ा हो जायेगा तो आसपास के बच्चे अमरूद तोड़ ले जायेंगे। हम लोगों को एक भी अमरूद प्राप्त नहीं होगा। मां कुछ नहीं बोली । फिर उन्होंने कहा-ठीक है, कुछ फल आसपास के बच्चे खायेंगे और कुछ तोते । एक आध फल तो हमको भी जरूर मिल जाया करेगा। फिर ढेर सारी छाया तो यह पेड़ जरूर हम ही को देगा। मैं तो बच्चों की किलकारियों और तोतों की आवाज से ही अपना पेट भर लूंगी। आखिर हमारे आंगन में सदा जीवन तो रहेगा।तब पिताजी ने नाराज होकर कोई उत्तर न दिया था। तभी हवा के झोंको ने मां के लगाये नीबू के पेड़ कों हिला दिया। उसकी एक डाल ने हौले से मेरे माथे को सहला सा दिया । मैंने ऊपर की ओर देख। पहाड़ी नीबू  के छोटे-छोटे दाने नीबू के पेड़ पर हिल रहे थे। डाल का स्पर्श मां के ममतामयी स्पर्श के भांति ही था। मुझे लगा कि मां की ममता आज भी मेरे साथ है। मां आंगन में लगे अमरूद, नीबू, अनार व आढू  आदि के पेड़ों के रूप में आज भी हमारे साथ जीवित हैं। मुझे एक बार फिर उमा दीदी की याद आ गयी। उन्होंने अपने  पत्र में लिखा था कि मां सदैव हमारे साथ ही रहेंगी। सच, उन्होंने सच ही लिखा था। आज मां मेरे पास नहीं हैं पर उसकी भावनाओं को मैं इन पेड़ो के रूप  में स्पष्ट रूप से देख रही हूं। आज भी मुझे  अपने पास मां की अनुभूति हो रही है। ऐसा लग रहा है जैसे वह अद्र्श्य रूप से मेरे आस पास ही है।
हिंदी कहानी अनुभूति