शनिवार, 14 जून 2008

चन्नी

चन्नी



जब भी रक्षा बन्धन का त्योहार आता है तो मुझे एकाएक चन्नी की याद आ जाती है।

बचपन की बात है एक दिन मैंने अपने कमरे की खिड़की से देखा । हमारी कोठी के नौकरों वाले क्वार्टर में एक नया नौकर आ गया था । मेरी हमउम्र उसकी एक बेटी थी । रूखे-सूखे बालों वाली । मुझे पहली नजर में ही वह बिल्कुल पसन्द नहीं आर्ई। उसके मां बाप उसे प्यार से चन्नी कहते थे। मैं उसे खिड़की से आवाज देकर चिढ़ाता था - ”चवन्नी“ । वह चिढ़कर रोती और मैं चुपके से खिड़की से हटकर उसके रोने की आवाज सुनकर खुश होता ।

चन्नी कभी कभी अपनी मां के साथ हमारे घर आ जाती थी । उसकी मां मेरी मां के कामांे में हाथ बंटाती थी । ऐसे मौकों पर चन्नी सहमी सी पर ललचाई आंखों से मेरे खिलौनों को एकटक देखा करती । पर उनको छूने का साहस उसको कतई न था । मैं शान दिखा-दिखा कर अपने खिलौनों से खेला करता । शायद इस प्रकार शान दिखाने मंे मुझे अपना बड़प्पन दिखाई देता था ।

मुझे कहानी पढ़ने का बहुत शौक था । इन्हीं कहानियों के बीच एक बार मुझे लोरेंस नाइटिंगेल की कथा पढ़ने को मिली । कथा पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा । मेरे मन में भी कुछ महान काम करने के विचार आने लगे। मैं हरदम यही सोचा करता कि दुखियों की सेवा, सहायता कैसे करूं । मैंने अपनी मां से इस विषय में विचार किया । मां ने मुझे समझाया कि तुम किसी गरीब की सहायता कर सकते हो । किसी जानवर की मलहम पट्टी कर सकते हो या फिर किसी अंधे को रास्ता दिखा सकते हो । किसी गरीब व अनपढ़ बच्चे को पढ़ाना भी तो सेवा ही है।

मैंने बहुत विचार किया कि मुझे अपने अभियान को कहां से शुरू करना चाहिए । ऐसे में मुझे चन्नी की याद आई । मुझे लगा, चन्नी इतनी बुरी नहीं है। वह ढेर सारा काम करती है, इसीलिए गंदी रहती है । उसके पास न अच्छे कपड़े हैं और न कोई उसकी ठीक से देखभाल करता है । यहां तक कि किसी को उसकी शिक्षा की भी परवाह नहीं है । बस, मैंने चन्नी को पढ़ाने का निर्णय ले डाला । मैंने उसकी परीक्षा ली । मुझे लगा कि वह अच्छी खासी बुद्धिमान है।

अब चन्नी रोजाना मेरे पास आने लगी । मैं उसको पढ़ना व लिखना सिखाता। कभी-कभी हम साथ खेल भी खेला करते । पर मेरे पिताजी को यह अच्छा न लगता। वे अक्सर मां के ऊपर नाराज होते। मेरा चन्नी के साथ खेलना उन्हें कतई पसन्द नहीं आया । क्योंकि वह नौकर की बेटी है । पर मेरे सेवा भाव के विचार को सुनकर उन्होंने मुझसे कहा, ”अमित, मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं । वास्तव मंे तुम्हारे विचार बहुत अच्छे हैं। मैं चाहता हूं कि तुम्हें सफलता मिले । पर एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा क्योंकि तुम्हारा अनुभव बहुत कम है। कुछ लोग दूसरों की गलतियों से सीखते हैं और संभल जाते हैं। पर कुछ लोग मात्रा अपनी गलतियों से ही सीखते हैं और जीवन में नुकसान उठाते रहते हैं।“

पिताजी तो कहकर चले गये । पर उन्होंने क्या बताया मैं समझ नहीं पाया। मैंने तो अपने अभियान में लगातार आगे बढ़ते रहने की ठान रखी थी । कुछ ही दिन में चन्नी ने मुझसे बहुत कुछ सीख लिया । वह साफ-सुथरी भी रहने लगी । वह हमेशा इस बात का ध्यान रखती कि मुझे डांटने का मौका न मिले । पढ़ने के प्रति उसके मन में असीम उत्साह था । हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा बन गया था । रक्षा बंधन के पर्व पर उससे राखी बंधवा कर मैंने उसे अपनी बहिन बना लिया था। पर इस सब रिश्तों के बीच अब भी एक लकीर थी । मालिक के लड़के और नौकर की लड़की की । चन्नी ने भी कभी किसी चीज के लिए बहिन जैसा अपना हक नहीं जताया ।

शायद यह मेरे चैदहवें या पन्द्रहवें जन्मदिन की बात है। घर में एक जोरदार दावत हुई । ढेरों मेहमान हमारे घर आए । मुझे इतने सारे उपहार मिले कि मैं फूला न समाया । ढेर सारे रुपए भी लोगों ने मुझे दिये । रात देर तक मेहमानों का आना-जाना रहा । सुबह उठते ही मैंने अपने खिलौनों व उपहारों को समेटा । एक से बढ़कर एक रंग-बिरंगी पुस्तकें भी मुझे भेंट में मिली थीं । मैंने रुपयों को गिना। शायद सोलह सौ तीस रुपए थे। जब चन्नी आई तो मैं रुपयों की गड्डियां बना रहा था । एक, दो, पांच व दस के नोटों की अलग-अलग गड्डियां थीं । सौ के नोट मैंने एक पुस्तक में दबा कर रखे थे। चन्नी को बड़े उत्साह के साथ मैंने सभी चीजें दिखायी । दावत में वह मेरी बहिन की हैसियत से नहीं बुलवाई गई थी। हां, अपनी मां के साथ काम करने जरूर आई थी । इसलिए उसने सभी उपहारों को बड़ी उत्सुकता से देखा । रुपयों की गड्डियों को देखकर तो वह चैंक सी उठी । ‘इतने ढेर सारे रुपए और वे भी सब आपके ।’ वह आश्चर्य से बोली थी ।

कुछ देर बाद चन्नी चली गई। मैंने अपने खिलौनों को वापिस डिब्बों में रखा। पुस्तकों को ढंग से अलमारी में सजाया। फिर आई रुपयों को रखने की बारी। मैंने रुपयों को रखने से पहले गिना और फिर बार-बार गिना। मैं चैंक पड़ा। रुपयों में सौ-सौ के तीन नोट कम थे। मैंने पूरी कोशिश की कि मैं रुपयों को ढंूढ निकालॅूं। पर मेरी कोशिश नाकामयाब रही। कमरे में न कोई आया था और न कोई गया था। मात्रा मैं और चन्नी वहां थे। तो फिर क्या चन्नी रुपये चुरा कर ले गई ? मेरा दिल यह मानने को तैयार न था। पर मेरे मन में उठ रहे तर्क इस बात से सहमत न थे। मेरे मन का पूरा शक चन्नी पर था। आखिर एक गरीब और नौकर की बेटी से उम्मीद ही क्या की जा सकती थी। ऐसा ही कुछ विचार मेरे मन में जन्म ले रहा था। मैंने एक बार फिर अपनी जेबों को टटोला और रुपयों को गिना। सचमुच तीन सौ रुपये कम थे। चन्नी ने रुपये मांगे होते तो मैं उसको सहर्ष दे देता। पर उसकी चोरी ने मेरे सारे सपनों में पानी फेर दिया था। चन्नी ने ही आखिर चोरी की। मैं क्रोधित हो उठा। मैंने मां से शिकायत की और मां ने चन्नी की मां और पिता से।

चन्नी के घर से बहुत देर तक चीखने चिल्लाने की आवाजें आई। चन्नी के पिता ने बड़ी बेदर्दी से उसकी पिटाई की। पर चन्नी ने यह नहीं बताया कि उसने रुपए कहां छिपाए हैं। सीधी-सादी दिखने वाली चन्नी इतनी ढीठ हो सकती है, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं मुंह फुलाए बिना खाना खाए अपने कमरे में पड़ा रहा। मुझे किसी भी हालत में अपने रुपए वापस चाहिए थे।

दिन के समय चन्नी का पिता मेरी मम्मी के पास आया। उन दोनों के बीच न जाने क्या खुसर-फुसर हुई। मां ने आकर बताया कि मेरे रुपए वापिस मिल गये हैं। मैंने रोनी सूरत के साथ अपने तीन सौ रुपए ले लिये। मेरा मूड कुछ ठीक हो गया। पर उस दिन के बाद पता नहीं क्या हुआ कि घर से चन्नी की आवाजें आनी बंद हो गयी। शायद शर्म के मारे उसने घर से निकलना बंद कर दिया था। बेचारी घर से बाहर आती भी कैसे ? मैंने मन ही मन विचार किया। पर उसके मां-बाप उसको क्यों नहीं आवाज देते, यह मैं कई दिन तक सोचता रहा। मैं हर पल प्रतीक्षा करता कि चन्नी मेरे पास आ जाए। मैं जानना चाहता था कि उसने चोरी क्यों की थी ?

पर मुझे यह मौका नहीं मिला। एक दिन पिताजी ने मां से पूछा कि कई दिन से चन्नी नहीं दिखाई दे रही है। क्या वह बीमार है ? तब मां ने बताया कि उसका पिता चन्नी को गांव छोड़ आया है। अब वह गांव में अपने चाचा के पास ही रहेगी। माॅं ने पूरी घटना की जानकारी पिताजी को दी। पिताजी कुछ नहीं बोले। पर उन्होंने एक ही बात कही कि चन्नी चोरी नहीं कर सकती। जरूर हम लोगों को गलतफहमी हुई है। मैं एक बार फिर पिताजी के विचार सुनकर हतप्रभ रह गया। पिताजी हमेशा मुझे चन्नी के साथ न खेलने की हिदायत देते थे। उसके साथ खेलने पर उन्हें मेरे बिगड़ने का भय था। अब उनका कहना बिल्कुल विपरीत था। उसके अनुसार चन्नी एक भोली भाली लड़की थी। जो चोरी कदापि नहीं कर सकती थी।

खैर, बात आई गई हो गई। मैं चन्नी को भूल सा गया। कभी-कभी मैं मम्मी के पास बैठी चन्नी की मां को अपनी मैली धोती के आंचल से आंसू पोंछते देखता था। चन्नी के चले जाने के बाद से वह क्यों रोती है, मैं अक्सर सोचा करता। पर जब भी मैं बातें सुनने की कोशिश करता तो चन्नी की मां चुप हो जाती।

कई महीने बीत गए। मैं कभी-कभी चन्नी की मां से पूछता कि अब चन्नी कब आएगी। पर वह मुझे ऐसे ही बहला-फुसला कर टाल देती। पर एक दिन चन्नी की मां ने मुझे बताया कि यह उसके वश में नहीं है। शायद अब चन्नी कभी वापस न आए। यह तो अब चन्नी के बापू की ही इच्छा पर निर्भर है। कहते कहते उसे रुलाई आ गई। चन्नी की मां रोई क्यों ? यह मेरी समझ में नहीं आया। पर मैंने चन्नी के बापू से बात करने का निर्णय लिया।

चन्नी की बात सुनकर उसका बाप दुखी हो उठा। चन्नी के व्यवहार से वह अत्यधिक शर्मिन्दा था। उसका मानना था कि इतने लाड़ प्यार के बाद भी चन्नी ने चोरी की। इसलिए वह कतई माफी के योग्य नहीं थी। पर चोरी के पैसे उसने कहां छिपाए थे वह उस दिन तक नहीं जान पाया था। इसके बाद इसने चन्नी को जी भर कर कोसा।

उसकी बात सुनकर मैं चैंक उठा। इसका मतलब जो रुपये मुझे मेरी मां ने लौटाए थे वे चन्नी से नहीं मिले थे। यानी कि चोरी के रुपये चन्नी से कभी मिले ही नहीं और मां ने अपने पास से रुपए मुझे दे दिए थे। शायद मुझे खुश करने के लिए।

परीक्षा के बाद मैंने अपनी किताबों की अलमारी ठीक की। फिर एक कहानी की किताब छांटकर पढ़ने के लिए बिस्तर में बैठ गया। मैंने किताब का पहला पृष्ठ खोला तो मालूम चला कि किताब किसी ने मुझे मेरे जन्म दिन पर दी थी। पुस्तक का नाम था - ”प्यार के रिश्ते“। पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने लिखा था - ”रिश्ते बनाने तो बहुत आसान होते हैं पर उनको निभाना बहुत मुश्किल काम है। मात्रा बीज बो देने से पौधे नहीं बन जाते वरन उनको सींचना भी पड़ता है।“ इन पंक्तियों को भेंट-कर्ता ने स्याही से रेखांकित किया था। आखिर किसकी भेंट थी यह? मैंने पुस्तक के पृष्ठ उलट-पुलट कर देखा। चन्नी का नाम देखकर मैं चैंक पड़ा। मुझे याद आया कि चोरी वाली घटना के दिन चन्नी इसी पुस्तक को लिए खड़ी थी। मैंने समझा था कि उसने मेरी पुस्तक उठा रखी है। पर शायद ढेर सारी रंग बिरंगी किताबों और उपहारों के बीच वह अपनी भेंट देने का साहस शायद नहीं कर पाई थी। इसलिए उसने चुपके से पुस्तक को अलमारी में सजा दिया था।

एकाएक मेरे मस्तिष्क में उस दिन की घटना एक बिजली की भांति कौंध पड़ी। मैंने पुस्तकों को एक-एक करके पलटना शुरू किया। आश्चर्य! आशा के अनुरूप एक पुस्तक से सौ-सौ के तीन करारे नोट हवा में लहरा कर जमीन पर बिखर गये। मुझे लगा ये नोट नहीं बल्कि मेरा झूठा अभिमान टूट कर जमीन पर बिखरा था। ये बिल्कुल नए नोट थे जो मैंने घटना के दिन छांटकर उस पुस्तक में रख दिए थे। चन्नी के साथ बातचीत में मशगूल होकर मैं उनके बारे में बिल्कुल भूल गया।

अपनी लापरवाही, झूठे लांछन और मिथ्या बड़प्पन को बचाए रखने के लिए मैंने अपनी इस गलती को आजतक कभी भी जग जाहिर नहीं होने दिया। चन्नी कलंकित ही रह गई और कभी वापस नहीं आ सकी। मेरी गलती के कारण न जाने उसको कितना अपमान, मानसिक क्लेश व प्रताड़ना मिली थी।

इस झूठ को छिपाए वर्षों बीत गए हैं। राखी के धागों की याद ने बार-बार इस झूठ के घाव को छेड़कर नासूर बना दिया है। मुझे नहीं लगता है कि मैं इसे अब और बर्दाश्त कर सकता हूं। अपने अपराध को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास अब कोई चारा नहीं है। अनुभव से पता हो गया है कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था। मुझे यह भी मालूम चल गया है कि चन्नी की मां मैली धोती के आंचल से यदा-कदा चन्नी की याद में क्यों आंसू पोंछा करती थी। काश! मैं तब ही चन्नी के पिता, मां से सारी बात सच-सच कहकर चन्नी को वापिस बुलवाने को कहता। चन्नी से माफी मांग लेता तो आज तक मन में मलाल तो नहीं रहता। भगवान तू हम सब को इतनी ‘ाक्ती जरूर दे कि हम सच का सामना कर सकें।

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