मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

कटघरा: Hindi story by Hem Chandra Joshi


कटघरा


मेरे जीवन की यह एक अविस्मरणीय घटना है । अपनी प्रथम नियुक्ति पर मैंने कांकेर हायर सेकेण्डरी स्कूल में गणित के प्राध्यापक का कार्यभार संभाला था । छात्रा जीवन की एनसीसी की उपलब्धियों को देखकर प्रधानाचार्य जी ने मुझे गर्मियों में लगने वाले एनसीसी कैम्प का प्रभारी बना दिया ।
गर्मियों की छुट्टियां शुरू हुई । कैम्प को लगे हुए आठ-दस दिन बीत चुके थे। एक सुबह ढेर सारे कैडेट मेरे टैण्ट के सामने आ खड़े हुए । उनकी शिकायत थी कि कैम्प से उनकी चीजें लगातार चोरी हो रही हैं । मैंने उनको समझाकर वापस भेज दिया । किन्तु मैं सोच में पड़ गया ।
मैंने अन्य विद्यालयों से आए शिक्षकों से इस विषय पर विचार-विमर्श किया । सभी इस बात से एकमत थे कि कैडेटों में से ही कोई एक चोर हो सकता है । पर एक बड.ी समस्या थी कि चोर का पता कैसे चले ? अतः मैंने कुछ खास बच्चों को अलग-अलग बुलाया । उनको विशेष निर्देश दिए । पर हमारी सारी सतकर्ता के बावजूद अगले दिन सुबह की दौड़ के समय एक कैडेट की घड़ी चोरी चली गई । अब हम सभी परेशान हो उठे । उस समय एनसीसी के कैडेट सुबह की दौड़ के बाद नाश्ता कर रहे थे । मैं अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श करने में व्यस्त था । तभी मुझे कुछ लड़कों की जोर-जोर से बोलने की आवाजें सुनाई दी । मैंने आवाज की दिशा में देखा । चार-पांच कैडेट अपने एक साथी को पकड़े चले आ रहे थे।
‘क्या बात है रिपु दमन ?’ मैंने कैडेटों के साजेंन्ट से पूछा ।
‘सर, चोर पकड़ा गया ।’ उसने बड़े ही आत्म-विश्वास के साथ कहा ।
‘मैं चोर नहीं हूं सर । ये सब झूठ बोल रहे हैं । मैंने आज तक कभी चोरी नहीं की है ।’ वह दुबला व सांवला लड़का बोला । उसके स्वर में पूर्ण आत्मविश्वास था ।
‘सर, यही लड़का चोर है । हमने इसे रंगे हाथों पकड़ा है ।’ सार्जेन्ट ने कहा।
रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी इतनी हिम्मत ? मैंने मन ही मन सोचा और फिर साजेंन्ट से पूछा- ‘घड़ी कहां है रिपुदमन ?’
कैडेट एक स्वर में बोले- ‘सर, इसने घड़ी अपने बक्से में ताला लगाकर छिपा दी है । हमने बहुत कोशिश की पर इसने ताले की चाभी हमें नहीं दी ।’
मैंने देखा कि उनमें से एक लड़का पुराना सा जंग लगा बक्सा अपने सिर पर उठाए खड़ा था । मैंने चोर से कड़क कर पूछा- ‘क्या नाम है तुम्हारा ?’
’जी, कालीचरन ।’ लड़के ने सहम कर कहा ।
‘चोरी क्यों की ?’ मेरा अगला सवाल था ।
लड़के की आंखों में आंसू भर आए । वह कुछ नहीं बोला । पर वह घबरा गया था । उसकी घबराहट मुझे बता रही थी कि वह चोर है ।
मैं चीख कर बोला- ‘मैं पूछ रहा हूं कि तुमने चोरी क्यों की ? तुम्हारे घर का माल है क्या ? चलो, बक्से को खोलो जल्दी से।’
‘नहीं-नहीं, सर । मेरा बक्सा मत खुलवाइए । विश्वास करिये । मैंने चोरी नहीं की । मैं चोर नहीं हूं सर ।’ उसने आग्रह किया ।
‘पहले चोरी करता है फिर रोता है । तेरे आंसुओं से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । जल्दी अपना बक्सा खोल ।’ लड़कों में से कोई बोला ।
‘सर, मैं बक्सा नहीं खोलूंगा । मैंने कोई चोरी नहीं की है । मेरी इज्जत का सवाल है ।’ लड़के ने प्रतिकार किया ।
‘चोर की भी कोई इज्जत होती है क्या ? बक्सा तो तुमको खोलना ही पड़ेगा।’ मैंने गुस्से में कहा ।
‘सर, अगर आपको मेरे ऊपर विश्वास नहीं है तो अपने टैन्ट में ले जाकर मेरा बक्सा खोल कर देख लीजिए । पर मैं अपना बक्सा सबके सामने नहीं खोलूंगा।’ कालीचरन ने जोर देकर कहा ।
चोर इतना ढीठ भी हो सकता है ? मैंने मन ही मन सोचा । इसकी इतनी हिम्मत कि मेरे साथ बहस करे । तुम्हारी इज्जत का सवाल है मास्टर ब्रजबिहारी ! मेरे अन्दर का अहम जाग उठा । मैंने गुस्से में कहा ‘रिपुदमन, चाबी छीन कर बक्सा खोल दो ।’
‘नहीं...। आप ऐसा नहीं कर सकते सर । आप मेरी इज्जत से नहीं खेल सकते । मैं चोर नहीं हूं सर.. । सर रोक लीजिए इनको । सर मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा ।’ वह चीखता रहा । उसकी हर चीख शायद मुझको आत्म संतुष्टि की ओर ले जा रही थी । आखिर मेरे बिछाए जाल में चोर फंस कर छटपटा रहा था । मैं मन ही मन अपनी प्रशासनिक योग्यता पर निछावर था । आखिर कालीचरन की चीख पुकार के बीच लड़कों ने चाबी उससे छीन ही ली ।
‘ये लीजिए सर चाबी ।’ रिपुदमन ने चाबी मेरी और बढ़ायी ।
एकाएक कालीचरन ने धमकी दी कि यदि सबके सामने उसका बक्सा खोला गया तो वह सिर पटक कर अपना माथा फोड़ लेगा । अतः मुझे उसकी बात माननी पड़ी। कालीचरन स्वयं बक्सा उठाकर मेरे टेन्ट में चला आया । वह अब एकदम खामोश था । उसके चेहरे में मायूसी थी । मैंने बक्से की तलाशी शुरू करी।
बक्से में सबसे ऊपर लाल कपड़े में लपेट कर कोई पुस्तक रखी हुई थी । जिज्ञासावश मैंने कपड़ा हटाया । गीता का स्वाध्याय और चोरी ? मैं असमंजस में पड़ गया । मैंने गीता बिना लपेटे एक ओर रख दी । कालीचरन ने मुझे गुस्से से देखा । फिर उसने गीता लपेट कर करीने से रख दी ।
फिर मैंने एक-एक करके उसकी डेªस की कमीज, पैन्ट, कैप आदि झाड़े । मुझे कुछ नहीं मिला । तभी मेरी आंखों में चमक आ गई । बक्से के तले में एक थैला रखा हुआ था । मैं समझ गया कि उसी में चोरियों का माल रखा गया है । मेरे हाथ में थैला आया देखकर कालीचरन ने बहुत आग्रह किया कि मैं उस थैले को न खोलूं । पर यह संभव कब था ? मैंने एक झटके में थैले का मुंह खोल कर सामान जमीन में उलट दिया । दृश्य देखकर मैं आवाक् रह गया । जमीन में आधी खाई मक्खन की टिक्कियां, डबल रोटी, केक व मिठाई के टुकड़े बिखरे पड़े थे । यह सब कैडेटों को नाश्ते में दिया गया सामान था । पर चोरी के समान का दूर-दूर तक कहीं, पता नहीं था । मैंने कालीचरन की ओर देखा और चीखा- ‘यह सब क्या है कालीचरन ? चोरी का समान कहां है ? यह सब बचा हुआ सामान तुमने क्यों इकट्ठा कर रखा है ?’
कालीचरन कुछ न बोला । उसने बिखरा हुआ सामान बीनना शुरू करा । मैं सकते की हालात में अपलक उसको देखने लगा । तभी उसने आधा खाया मोतीचूर का लड्डू उठाया । तब मेरा माथा चकरा गया । मोतीचूर के लड्डू तो आज पहली बार सुबह के नाश्ते में बांटे गए थे । फिर मोतीचूर का लड्डू इसके बक्से केअन्दर कैसे ? ओह ! इसका मतलब नाश्ते की मेज से कालीचरन खाने का समान जेब में रख कर लाया था । पर क्यों ? यह मेरे लिए एक पहेली था । पर यह सत्य था कि वह चोर नहीं था । मैं शर्मिन्दा हो कर बोला- ‘कालीचरन बेटे, मुझे माफ कर देना । पर यह सब क्या है मेरे बेटे ? कालीचरन ने उदास आंखों से मेरी ओर देखा । मेरे स्नेह वचन सुनकर वह भावुक हो उठा । फिर कुछ रूक कर बोला- ‘सर, आपने मेरी इज्जत बचा ली । यदि सबके सामने आप तलाशी लेते तो मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रहता ।
‘पर यह सब क्या है? मैंने फिर पूछा ।
कालीचरन बोला- ‘सर, यह गरीबी हैं। मैंने यह सामान अपने छोटे भाई-बहनों के लिए इकट्ठा करा है । सर, मैं कैम्प में पेट भर कैसे खा सकता हूं? पता नहीं मेरे भाई-बहन घर में आधा पेट भोजन भी कर पाते होंगे कि नहीं? आधा पेट खाने की आदत है न हमको। फिर मिठाई, बिस्कुट व मक्खन तो हमारे लिए दुर्लभ खाना है, सर ।’ वह रूआंसा हो उठा।
मैं ठगा सा खड़ा देखता रहा । ‘मुझे माफ करना बेटे। मैं सिर्फ यही बुदबुदा सका । कालीचरन बक्सा उठाए अपनी टैन्ट की ओर चला गया ।
वर्षों बीत गए हैं। तब से आज तक, मुझे कई मौकों में ऐसा लगता है कि मैं आज भी कालीचरन के कटघरे में खड़ा हूंॅॅॅ । पता नहीं कालीचरन अब कहां होगा ? क्या वास्तव में उसने मुझे माफ कर दिया है ?



कैंचियों से मत डराओ तुम हमें
हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं
PURCHASE MY BOOK:
कितना सच? कितना झूठ?? at:
http://pothi.com/pothi/node/79

1 टिप्पणी:

Dr Ramesh Chandra Joshi ने कहा…

Excellent story. Please keep it up!!!!!!