बैसाखियाँ
हमारी कक्षा आठ की क्लास टीचर स्कूल छोड़ कर चली गयी थीं। उनकी जगह आई नई क्लास टीचर बहुत ही सख्त थीं। निगाहें इतनी तेज थीं कि उपस्थिति लेते लेते भी समझ जाती थीं कि कक्षा के किस कोने में क्या गड़बड़ चल रही है। उनकी यह तीसरी आंख कहां थी ? हम सबके लिए यह एक विचारणीय प्रश्न था।
कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।
मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।
फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“
मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।
मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।
छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।
मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हू। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“
पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“
पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“
मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।
फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।
एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कर्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।
मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती हू कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं।
कक्षा में पहले दिन आते ही उन्होंने हमसे कहा, ”मेरे लिए यह कक्षा एक परिवार के समान है। अच्छा और बुरा, होशियार व कमजोर तथा अमीर या गरीब, सभी छात्रा मेरे लिए एक समान हैं। मैं चाहूंगी कि सब बच्चे कक्षा में मेलजोल से रहें और एक दूसरे की सहायता करें। गलती करने वाले को मैं दस बार माफ कर सकती हूं बशर्ते उसको अपनी गलती का अहसास हो।“ इसके बाद उन्होंने हमारी कापी किताबें, नाखून व जूतों का निरीक्षण किया और आवश्यक बातें कहीं।
मुझको अपनी नई अध्यापिका पंत मैंडम बहुत अच्छी लगी। पर मुझे मन ही मन शंकायें भी हो उठीं। मुझे लगा कि उनके सामने मेरे बहाने अब नहीं चल पायेंगे। किन्तु मुझे अपने पिताजी के ओहदे पर पूरा विश्वास था। मुझको मालूम था कि उनके रहते मेरा इस स्कूल में विशिष्ट स्थान ही रहेगा। जब पंत मैडम को पता चलेगा कि मैं श्री सहाय की बेटी हूं तो वे स्वयं ही मेरे प्रति नरम हो जायेंगी।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारी कक्षा पंत मैडम को प्यार करने लगी थी ओर मुझको उनके नाम से भी घबराहट होती थी। मैं आये दिन घर में अपने पिताजी से मैडम की शिकायतें करती थीं। मंैने पिताजी के मन में यह विचार भी भर दिया था कि नई मैडम को गणित व विज्ञान पढ़ाना बिल्कुल भी नहीं आता है। टैस्टों में आये दिन मेरे खराब नम्बर आते थे पर मैंने कभी भी इसका खुलासा नहीं किया। मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि मैडम को पिताजी के पद के बारे में पता नहीं चला है इसलिए वे मुझे नम्बर नहीं दे रही हैं।
फिर एक दिन कक्षा में गणित के टैस्ट की कापियां दिखायी गयी। मुझे टैस्टों में शून्य अंक प्राप्त हुआ था। मैडम ने खासतौर पर मुझे अपनी मेज पर बुलाया और धीरे से कहा, ”प्रकृति तुम्हें अपने पिताजी के सम्मान का भी ध्यान नहीं, शहर के इतने बड़े आदमी की लड़की फेल होगी तो लोग क्या कहेंगे ? मुझे अफसोस है कि तुम्हारी जैसी होशियार व सुविधा सम्पन्न छात्रा का शून्य अंक आया है। जाओ और मेहनत करो। यदि आवश्यकता हो तो तुम मेरी सहायता ले सकती हो।“
मैंने सिर झुकाये उनकी बात सुनी और कापी लेकर वापस अपनी सीट पर चली आई। कक्षा में मैडम ने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा शून्य अंक आया है। मैंने भी शून्य के आगे एक डंडा खींच कर उसे दस बना दिया। मेरे आसपास के छात्रों ने यही समझा कि मेरे पूरे दस में से दस अंक आये हैं। अब मैं समझ गयी थी कि पंत मैडम को पता है कि मैं सहाय साहब की बेटी हूं। फिर भी उन्होंने मुझे अच्छे नम्बर नहीं दिये थे ? शायद उनकी न्याय की तराजू में सिफारिश का बाट नहीं था।
मेरे लिए एक नया अनुभव था। आज तक मैंने पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझी थी। स्कूूल की सभी शिक्षिकायें मुझे जानती थीं और स्वयं ही मेरा ध्यान रखा करती थीं। किसी भी शिक्षक ने कभी भी मुझे यों पंत मैडम की तरह बौना नहीं बनाया था। स्कूल में सभी जानते थे कि फेल होने पर मेरे पिताजी आकर मेरी सिफारिश करेंगे। अतः मेरे मन में सदा एक ही बात रहती थी कि अंत भला तो सब भला। मुझे पूर्ण विश्वास था कि सारे टैस्टों और परीक्षाओं के अंकों को दरकिनार कर मुझे अगली कक्षा में अवश्य ही चढा़ दिया जाएगा।
छमाही की परीक्षा में मेरे अच्छे अंक नहीं आए ओर फिर वार्षिक परीक्षायें भी गड़बड़ा गयी। मैंने मां को बताया कि मैं इस बार अवश्य ही फेल हो जाउंगी। मां ने पिताजी से कहा कि स्कूल जाकर मेरा रिजल्ट देख लें। पहले तो पिताजी नाराज हुए फिर किसी तरह उन्होंने स्कूल जाने के लिए हामी भर ही ली।
मैं पिताजी के साथ घमण्ड से स्कूल गयी जैसे कि मुझे इसी दिन का इंतजार हो। मैं मैडम को दिखा देना चाहती थी कि मैं क्या चीज हू। मैं मुस्कराते हुए जब मैडम के पास पहुंची तो उन्होंने देखते ही पिताजी से कहा - ”सहाय साहब, आज आपको समय मिल गया है अपनी बच्ची के बारे में सोचने का। आप तो बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने साल में एक भी बार यह जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी बच्ची स्कूल में क्या कर रही है ? अब आप क्यों आए हैं ?“
पिताजी को शायद इन अप्रत्याशित प्रश्नों की आशा न थी। फिर भी सकुचाते हुए उन्होंने अपने मन की बात पंत मैडम से कह दी । पंत मैडम के व्यक्तित्व के सामने मेरे पिताजी छोटे पड़ रहे थे। यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया। अंत में पिताजी ने मैडम से कहा - ”मैडम, प्रकृति का पूरा एक साल खराब हो जाएगा। आप कृपा कर इसको पास कर दीजिए।“
पंत मैडम का चेहरा नाराजगी से भर उठा और उन्होंने कहा, ”अगर मुझे पास ही करना होगा तो मैं उस गरीब लड़के को करूंगी जो प्रकृति से अधिक नम्बर लाया है। जिसकी कोई सिफारिश नहीं है। एक सुविधा सम्पन्न लड़की को नहीं, जिसने जानबूझ कर साल भर पढ़ाई नहीं की। मैं जानती हूं आपकी लड़की एक कुशाग्र बुद्वि की छात्रा है। पर आपके अंधे लाड़ प्यार ने इसको कमजोर बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता है कि आने वाले समय में आप कब तक इसको अपनी सिफारिशों का सहारा देते रहेंगे ? सहाय साहब, अपने पद की बैसाखियों के सहारे अपनी अच्छी खासी बेटी को अपाहिज बनाने की कोशिश मत करिये। यही मेरा निवेदन है।“
मेरे पिताजी निरुत्तर थे। मुझे भी अपने ऊपर अत्यधिक लज्जा आने लगी। जब हम वापस मुड़ने को हुए तो मैडम ने कहा, ”बेटी अब यदि तुम अगले साल तिमाही परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक ले आई तो मैं तुम्हें अगली कक्षा में भेजने की कोशिश करूगी।“ मेरा सारा जोश समाप्त हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं वास्तव में पिताजी की बैसाखियों के सहारे ही खड़ी थी।
फिर जब तिमाही परीक्षा में मेरे पिचहत्तर प्रतिशत अंक आये पंत मैडम ने कहा कि अभी भी तुम्हारे अंक तुम्हारी योग्यता के हिसाब से कम हैं। फिर मुझे अगली कक्षा में बैठा दिया गया। पिताजी अत्यन्त प्रसन्न थे। वे मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम को देने आये तब मैडम ने कहा, ”सहाय साहब, मैं तो कक्षा मे हमेशा एक सा ही पढ़ाती आई हूंॅ मेहनत तो आपकी बच्ची ने की है। मिठाई की हकदार तो प्रकृति है।“ उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा लेकर डिब्बा वापस कर दिया।
एक दो वर्ष बाद पंत मैडम स्कूल छोड़ कर चली गयी। पर वे मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों के दिलों में कर्तव्य व लगन की ऐसी ज्योति जला गई कि जो समय के साथ और ज्यादा प्रज्जवलित होती जा रही है।
मैंने मेडिकल कालेज में पंत मैडम के आशीर्वाद से दाखिला ले लिया है। अब बार बार ईश्वर से प्रार्थना करती हू कि वे मुझको इतनी शक्ति दें कि मैं भी पंत मैडम की भांति दूसरों को उनकी बैसाखियों से छुट्टी दिलवा सकूं।
हम परों से नहीं होसलों से उड़ा करते हैं
PURCHASE MY BOOK:
कितना सच? कितना झूठ?? at:
http://pothi.com/pothi/node/79
1 टिप्पणी:
बहुत शानदार एवं प्रेरणा देने वाली कहानी। बधाई
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