सोमवार, 22 दिसंबर 2008

अब नहीं बाबूजी


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अब नहीं बाबूजी


शहर के मुख्य चैराहे पर स्थित उस हनुमान मंदिर से मेरी बहुत सी भूली बिसरी बातें जुड़ी हुई हैं। मैं बचपन में पिताजी के साथ अक्सर हर मंगलवार को मंदिर जाया करता था।
मेरे मन में सदा यही लालच रहता था कि मंदिर जाने पर ढेर सारा प्रसाद खाने को मिलेगा। आंखे बंद किए भगवान के सामने खड़े पिताजी को देखकर मैं अक्सर सोचता था कि वो आखिर भगवान से मांगते क्या हैं ? ऐसे मौकों पर मैं प्रसाद की थैली पर आंखे गड़ाए रखता था। पुजारी जी जब टीका व चरणामृत देने के बाद प्रसाद की थैली से मिठाई निकालते तो मुझे ऐसा लगता था कि मानो कोई मेरे हिस्से की मिठाई ले रहा हो।
फिर मैं धीरे धीरे कुछ बड़ा हो गया। मुझे अच्छे व बुरे काम में फर्क समझ में आने लगा। अब मैं अपनी छोटी बहन की चाकलेट भी कभी.कभी मौका मिलने पर चुपके से निकाल कर खाने लगा था। जब बहन रो-रो कर सारे घर को सिर पर उठा लेती थी तो मुझे अपनी शैतानी पर बड़ा मजा आता था। 
आखिर चोरी के बाद पकड़े जाने से बचने का अपना ही सुख था। पर जब बहन भगवान को साक्षी मानकर चोर को दण्ड देने की प्रार्थना करती तो मैं मन ही मन घबरा जाता था। मैं हनुमान जी से अक्सर माफी मांग कर बहन के शाप से मुक्त होने की कोशिश करता था।
मंदिर जाने का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कभी टूटा ही नहीं। मंदिर के आसपास इकट्ठे होने वाले एक.एक भिखारी प्रसाद मांगने वाले लड़कों व ठेले वालों को मैं पहचानने लगा। यदि कहीं उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता तो मेरी आंखे दूर तक उसको ढूंढती सी नजर आती। कुछ ऐसी ही हालत मेरे बारे में भी थी। मंदिर के आसपास के सभी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे। प्रसाद के छोटे.छोटे टुकड़ों को ठेलम-ठेल के बीच चारों ओर से लपकते हुए हाथों में बांटकर मुझे पुण्य लूटने की संतुष्टि होती थी।
मैं नियमित रूप से एक विशेष मिठाई के ठेले से ही प्रसाद खरीदता था। इसी ठेले वाले के साथ एक लड़का मुझे हमेशा काम करता दिखाई देता था। मैंने मन ही मन उसका नाम कालू रख छोड़ा था। ग्राहकों के चप्पल जूतों का ध्यान रखनाए उनके हाथण्पैर धुलवाना उसका काम था। इसी सुविधा के कारण उस ठेले पर ग्राहकों की कुछ ज्यादा ही भीड़ रहा करती थी।
मंदिर से लौटते समय मैं प्रसाद का एक छोटा सा टुकड़ा कालू को भी देता था। वह मुस्कुरा कर उसको मुंह में डाल लेता था। मेरे नियमित रूप से मंदिर आने पर कालू बहुत प्रभावित था। मेरे लिए उसके मन में अपार श्रध्दा थी। उसकी बातों से पता चलता था कि उसकी हनुमान जी के प्रति असीम आस्था है। वह मुझे हमेशा संतुष्ट दिखाई देता था।
मैं कभी.कभी सोचता था कि मिठाई वाले ने क्यों अपने लड़के को इस काम में लगा रखा है ? वह क्यों नहीं उसको पढ़ाता-लिखाता है।
एक दिन मुझे मालूम चला कि वह मिठाई वाले का बेटा न होकर उसका नौकर है। कालू के पिता नहीं थे और उसकी मां उसकी देखरेख करती थी। कालू स्कूल भी जाता था और इधर-उधर काम करके अपना स्कूल का खर्चा भी चलाता था। मुझे कालू से थोड़ी हमदर्दी सी हो गई लेकिन मात्र मेरी हमदर्दी से कालू का पेट तो भर नहीं सकता था। कालू हमेशा मुझे काम करता मिलता था। पर मैं उसको कभी कुछ दे नहीं सका। वह तो मात्र प्रसाद के एक छोटे से टुकड़े को पाकर ही मेरे ऊपर निछावर था।
एक दिन मैने देखा कि कालू दुकान से दूर खड़ा है। मुझे दुकान वाले ने बताया कि उसने कालू को निकाल दिया है क्योंकि उसने दुकान में चोरी करने की कोशिश की है।
कालू ने उसकी बातों का प्रतिकार करते हुए कहा”बाबू जी यह झूठ बोल रहे हैं। मैंने आज तक चोरी नहीं की है। ये मेरे काम के पैसे नहीं देना चाहते हैं इसीलिए ऐसा कह रहे है। आप मेरे पैसे दिलवा दीजिए नहीं तो मैं स्कूल की फीस नहीं जमा करवा पाऊँगा।“ उसने कातर दृष्टि से बहुत सी उम्मीद के साथ मुझसे कहा।
पता नहीं क्यों कालू की कातर वाणी भी मुझे भेद नहीं पाई। मुझे मन ही मन लगा कि कालू ने जरूर चोरी की होगी। मुझे कालू के भोलेपन में उसकी चालाकी दिखाई देने लगी। मैने धीरे से मिठाई वाले से कहा” सच भाई! आज के जमाने में किस पर विश्वास किया जाए कुछ समझ मे नहीं आता है।“
मैं भगवान के दर्शन कर पुण्य लूटता हुआ घर वापस चला आया। इसके बाद कई मंगलवारों को मुझे कालू नजर नहीं आया। फिर महीनों बाद एक दिन कालू मुझे मंदिर के बाहर खड़ा मिला। मुझे देखते ही वह मेरी ओर चला आया। वह शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने उदास आंखो से कहाण्”बाबूजी मेरी मां बहुत बीमार है। कुछ रूपये उधार दे दीजिए। मैं आपका रूपया जरूर वापस कर दूंगा। आप तो भक्त है। सदा ईश्वर पर विश्वास करते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपको पैसा अवश्य वापस कर दूंगा।“
मैंने कालू को देखा। मुझे लगा वह सच बोल रहा है। मुझे चुप देखकर उसने कहा ”साहब आप पता नहीं कितने रूपये व मिठाई भगवान पर चढ़ा जाते हैं। ढेर सारा पेट्रेIल मंदिर आने के लिए खर्च कर डालते है। एक पचास का नोट मुझे भी उधार दे दीजिए। साहब मेरी मां बच जाएगी।“ उसने व्याकुल आवाज में कहा। उसकी रोनी सी आवाज ने मुझे आहत तो कर दिया किन्तु उस पर पचास रुपया खर्च करने का औचित्य मेरा मन नहीं समझ सका। मैंने उसकी बात का कोई भी जवाब नहीं दिया। मैं आगे बढ़ने लगा तो वह मेरे पैरों में गिर पड़ा और बोला ”बाबूजी मेरी मां मर जाएगी। मैं अनाथ हो जाऊँगा। मेरे ऊपर कृपा करिये बाबूजी। मेरी माँ को बचा लीजिए।“
मैंने टालने के लिए मजबूर होकर कहा ण् ”मेरे पास रुपए नहीं हैं।“
”बाबूजी प्रसाद चढ़ाने के रुपए ही मुझे उधार दे दीजिए। यह मेरे लिए दान के समान होगा।
मैंने उसकी बातें अनसुनी सी कर दीं। मैं एक रूढिवादी की तरह भगवान के दर्शन करने चला गया। जब मैं वापस आया तो वह प्रसाद का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वहां पर उपस्थित नहीं था। मेरा मन खिन्नता से भर गया। मुझे लगा कि मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए था। उसकी सहायता करनी चाहिए थी। आज प्रसाद चढ़ाकर अवश्य ही भगवान प्रसन्न नहीं हुए होंगे। भगवान तो सदा दुखियों के साथ ही रहते हैं।
कालू की सहायता न करने का मुझे बेहद अफसोस था। कालू की पीड़ा मेरे मन में घर कर गई। हर मंगलवार को मैं अब मंदिर के आसपास कालू को ढूंढा करता था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने उसकी सहायता नहीं की। उसके असीम विश्वास को मैंने ठेस पहुंचाई थी। अब मैं कालू की सहायता करके प्रायश्चित करना चाहता था।
फिर एक दिन जब मैं यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट खरीदकर मैं चाय पीने के लिए एक ठेले पर खड़ा था कि तभी किसी की आवाज आई ”बाबूजी नमस्कार! कैसे हैं आप ?“
मैंने देखा कि हंसता हुआ कालू मेरे सामने खड़ा है। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत नहीं थी। मुझे लगा कि वह एकाएक काफी सयाना हो गया है। एक छोटा सा बच्चा इतनी कम उम्र में इतना परिपक्व कैसे बन जाता है ? मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। इससे पहले कि मैं कालू से कुछ पूछता उसने जाने की इजाजत मांगी। मैंने प्रायश्चित के कारण बटुवे से सौ रुपए का एक नोट कालू को देना चाहा पर कालू ने बड़ी ही गंभीरता से कहा ”बाबूजी मुझे अब रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मैं भीख भी नहीं लेता। आज मैं अनाथ हूं। इस दुनिया में अकेला। उस दिन आपने मुझे रुपए नहीं दिए पर किसी और को भी मेरे ऊपर दया नहीं आई। थोड़े से पैसों के कारण मेरी मां चली गई। जब मनुष्य के दुख को मनुष्य नहीं समझ सकता है तो आप कैसे मान लेते हैं कि ऐसे मनुष्यों की पुकार को ईश्वर सुनता होगा“
”माफ करना मुझे।“ मैंने प्रायश्चित की अग्नि में जलते हुए सौ रुपए का नोट पकड़ाने का प्रयास किया।
”अब नहीं बाबूजी। यह नोट मेरी मां को अब वापस नहीं ला सकता।“ कालू ने सिर हिलाते हुए कहा और फिर वह धीरे से वापस मुड़ गया। मैंने डबडबाई आंखों से देखा कि कालू के कंधे पर आज स्कूल के बस्ते के स्थान पर पालिश वाला झोला लटका हुआ था। उसकी इस हालत के लिए मैं भी एक हद तक जिम्मेदार था। इस पीड़ा से विमुक्त होने का मेरे पास कोई मौका नहीं था।

2 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

जोशी जी, यदि यह कहानी है तो बेहद सशक्त कहानी है और यदि आपबीती है तो बहुत विचलित करने वाली है। यदि आपबीती है तो इसका दंश आज भी कम नहीं हुआ होगा।
पढ़कर यही कह सकती हूँ कि कई बार धोखा खाकर भी मैं संतुष्ट हूँ कि मैं ऐसे अनुभव और पश्चात्ताप से बची रही हूँ।
घुघूती बासूती

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत अच्‍छी सीख भरी कहानी लिखी है आपने....धर्म की सही परिभाषा भी नहीं समझ पाए हैं अभी तक हमलोग ....उसकी सही जगह आने पर मुंह मोड लेते हैं हमलोग।