सोमवार, 26 जनवरी 2009

कहानी: पहली सीढ़ी: हेम चन्द्र जोशी



पहली सीढ़ी


हम लोगों की गर्मियों की छुट्रटीयां चल रहीं थीं।विचार मेरे मन में आ रहा था। इसके अलावा सड़ी गर्मी में न जाने कितनी बार कस्बे की बिजली गुल हो जाएगी ? इसका कुछ अता पता ही नहीं था। पिछली बार जब हम नाना जी के घर गये थे तो गर्मी के प्रकोप को देखकर हम सबने यही कसम खाई थी कि अब दोबारा गर्मियों में नाना जी के घर नहीं आयेंगे। पर आज फिर नाना जी के घर जाने की तैयारी हो रही थी।

पिताजी एक दिन रूकने के बाद वापस चले गये। जाते समय उन्होंने मुझे आगाह किया - ”अनन्त, जब मैं वापस आऊं तो कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए अन्यथा सजा मिलेगी। मॆने मन ही मन सोचा, सजा तो मुझे पूरी गर्मियों की छुट्टियों की मिल ही चुकी है। अब और कितनी सजा मिलेगी ?

नाना जी के घर में सब कुछ व्यवस्थित था। यदि थोड़ी सी भी कहीं छेड़छाड़ की जाती तो तुरन्त नाना को पता चल जाता था। दिन भर मैं घर में इधर उधर घूमता था। सुबह शाम मैं नानाजी के आम के बगीचों में घूमने निकल जाता था। दोपहर में हम बच्चों को जबरदस्ती एक कमरे में सुला दिया जाता था। यदि बिजली चली जाती तो शरबती बुआ को आदेश था कि वह हाथ का पंखा बच्चों के ऊपर झलती रहे।

शरबती बुआ बेचारी अंधी थी। उनकी हालत पर तरस खाकर नानी जी उनको अपने घर ले आई थी। शरबती बुआ कुछ काम तो कर नहीं पाती थी पर फिर भी सब्जी काटना, बच्चों को नहलाना, कपड़े धोना आदि कार्यो में वह सदा नानी की सहायता करती रहती थीं। जब पंखा झलने का काम उनको मिला तो हम लोगों की बुआ से ज्यादा निकटता हो गई। मैं उनके अंधेपन के दर्द को कुछ हद तक समझने लगा। बुआ अक्सर हमको तरह-तरह के किस्से व कहानियां सुनाया करती थीं।

अभी तीन चार दिन ही बीते थे कि मेरी नाना जी के बागों की रखवाली करने वाले चैकीदार के बच्चों से दोस्ती हो गयी। मैंने उन बच्चों के पास घास फूस में छिपाकर रखा हुआ क्रिकेट का देशी बल्ला व कपडे. की बनी गेंद देख ली। पर मैं चैकीदार के बच्चों के साथ खेलता कैसे ? हमारे बीच में नाना जी का अनुशासन जो खड़ा था।

अन्ततः मैंने तरकीब निकाल ही ली। जून की भरी दोपहरी में जब सारी दुनिया आराम कर रही होती है उस समय मैंने खेलने का निर्णय लिया। पर शरबती बुआ तो पंखा करने के साथ चैकीदारी भी किया करती थी। बिस्तर से गायब होना थोड़ा मुश्किल था। मैंने अपने छोटे भाई के साथ पूरी योजना बना ली। बुआ से बातें करते करते हम सोने का बहाना कर लेते थे और फिर थोड़ी देर में चुपके से घर से बाहर निकल पड़ते थे। बेचारी बुआ पता ही नहीं चलता था कि कब हम भाग गये और वे खाली बिस्तर में यों ही पंखा झलते रह जाती थीं। बुआ के अंधेपन का फायदा उठाना मुझे दिल से कभी भी अच्छा नहीं लगता था। पर क्रिकेट खेलने की बेहिसाब इच्छा के सामने मैं मजबूर था।

कुछ दिन तो ठीक ठाक चलता रहा। एक दिन खेलते खेलते काफी देर हो गयी। हम भागते भागते घर पहुचे। पसीने से लथपथ हम बिस्तर में लेटे ही थे कि पता नहीं कहीं से नाना जी वहां आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि हम पसीने से लथपथ हैं। उन्होंने शरबती बुआ को जोर से डांट लगायी, ”शरबती, तुम अंधी होने के साथ साथ अब आलसी भी हो गयी हो। देखो, बच्चे पसीने से नहा रहे हैं और तुम पंखा भी नहीं झल सकती हो। तुमको शर्म आनी चाहिए। यदि दोबारा ऐसा हुआ तो मैं तुमको नौकरी से निकाल दूंॅगा।“

नाना जी लाल पीले होकर चले गये। मैंने देखा बुआ ने अपने हाथों से मेरे पैरों, हाथों व माथे को स्पर्श करके बहुत देर तक सोचती रही। उनको समझ में नहीं आ रहा था कि लगातार पंखा करने के बाद भी बच्चों को इतना पसीना आखिर कैसे आ गया था। मुझे बुआ की मनःस्थिति को देखकर मन ही मन बहुत अफसोस हुआ। मैंने निर्णय किया कि मैं अगले दिन क्रिकेट खेलने नहीं जाउगा।“
पर मेरा प्रण अगले दिन तक टिक नहीं पाया। अगले दिन बाग से सीटी की आवाज आई। यह संकेत था खेल शुरू होने का, हम दोनों भाई मौका देखकर फिर घर से भाग निकले। दो तीन दिन ही बीते थे कि नाना जी फिर हमारे कमरे में आये। हम दोनों भाई उस दिन भी पसीने से भीगे हुए थे। उस दिन भी हमको वापस पहुंचे बहुत थोड़ा समय बीता था। नाना जी ने हमारी हालत को देखा तो एक बार फिर शरबती बुआ पर बिगड़े - ”शरबती कल सुबह तुम अपने घर चली जाओ। यहां अब तुम्हारे लिए कोई काम नहीं बचा है। मैं तुम्हारे घरवालों को संदेशा भिजवा दूंगा।“
शरबती बुआ पंखा झलती रही और उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस बीच मुझको नींद आ गयी। फिर जब मैं उठा तो बिजली का पंखा चल रहा था। ग्लानिवश मैं उठा और बुआ को ढॅढने लगा। मैंने देखा कि बुआ की कोठरी से खटपट की आवाजें आ रही थीं। पर मेरे पास इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं बुआ की अंधी आंखों का भी सामना कर सकूं।

इधर उधर की बातों में मैं दिन की घटना को भूल गया। अगली सुबह जब मैं घर से बाहर निकला तो मैंने देखा कि शरबती बुआ नहा धोकर तैयार हैं। उन्होंने एक साफ सुथरी धोती पहन रखी है और साथ में उनका पुराना संदूक भी है। मैंने बुआ से पूछा, ”बुआ आज कहां जाने की तैयारी हो रही है ?“

बुआ ने मुझको पास बुलाया। मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा। मेरे चेहरे को चूमा और मेरे हाथ में पाच रूपये का एक करारा नोट रखकर कहा, ”बेटा मैं वापस अपने गांव जा रही हू। मैं अंधी तो थी ही पर अब आलसी भी हो गयी हूं। मैं ठीक से काम नहीं कर पाती हॅू। इसलिए वापस जा रही हूं। पर बेटा, तुम शैतानी मत करना। खूब मन लगाकर पढ़ना और कहना मानना। जब तुम पढ़ लिखकर बड़े हो जाओ तो मुझसे मिलने मेरे गांॅव जरूर आना।“ कहते कहते बुआ की आवाज भर्रा गयी। मैंने देखा कि बुआ की अंधी आंॅखों से आॅसू बह रहे थे।
मैं पश्चाताप की अग्नि में जल उठा। मेरी शैतानी के कारण बुआ को आलसी व कामचोर का खिताब मिला था। मैं एक अंधी लाचार, बूढ़ी औरत को धोखा देने वाला कुपात्रा बन चुका था। मेरा हृदय मुझे रह रह कर धिक्कार रहा था। मैंने कहा ”बुआ यह सब झूठ है। आप कामचोर व आलसी नहीं हो। यह सब मेरी शैतानी का फल है। मैं रोज भरी दोपहरी में क्रिकेट खेलकर वापस आता था। इसलिए मुझे पसीना तो आता ही। तुम तो खाली बिस्तर में हवा करती रहती थीं। बुआ आप कहीं नहीं जाओगी। मैं सब कुछ सच सच नाना जी को बता दूंगा। चाहे नाना जी मुझको 

कितना ही डांटे व फटकारे। आप चलिये अंदर। मैंने बुआ का हाथ अंदर ले जाने के लिए पकड़ लिया।
तब बुआ ने हौले से कहा, ”अनन्त मुझे मालूम है कि तुम दिन में बाहर चले जाते हो। पहले दिन की घटना के बाद मैं चक्कर में पड़ गयी थी। पर उस दिन के बाद मैं हमेशा तुम्हारे बिस्तर को टटोल कर तुम्हारे जाने का पता लगाती रही। किन्तु मैं तुम्हारे नाना जी का स्वभाव जानती हूं। इसलिए मैंने यह बात तुम्हारे नाना जी से नहीं कही। पर तुम्हारी नानी यह अच्छी तरह जानती हैं। अब बहुत देर हो चुकी है। थोड़ी देर में मेरा तांगा आता ही होगा। मैं सदा के लिए चली जाऊॅंगी। वादा करो कि तुम एक बहुत नेक व अच्छे आदमी बनोगे।“

”बुआ, अच्छा और नेक आदमी बनने की पहली सीढ़ी आज ही तो है। मैं इस मौके को नहीं छोड़ना चाहता हूं। मैं नानाजी के सामने अपनी गलतियों को मानकर प्रायश्चित जरूर करूंॅगा । यदि आप चली गयी तो मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।“ मैंने डबडबाई आंॅखों के साथ कहा। बुआ को लेकर मैं ज्यों ही वापस मुड़ा तो मैंने देखा कि रोबीली मूंछों वाले कठोर नानाजी हमारी बातों को सुन रहे थे। उनकी आॅंखों के किनारे नम थे। वे बोले - ”आओ अनन्त मैं तुमसे बहुत खुश हूं। आखिर तुम जीवन के प्रथम सोपान में खरे उतरे हो। तुम्हारा सच बोलने का साहस देखकर मैं बहुत प्रसन्न हु। मैं झठ से बुआ के गले जा लगा।

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4 टिप्‍पणियां:

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

अच्छी पोस्ट और गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई

Dr Ramesh Chandra Joshi ने कहा…

भाव प्रद कहा्नी के लिये बधाई.

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत अच्‍छा.....गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

बेनामी ने कहा…
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