शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

अन्धे हो क्या


अन्धेहो क्या?


कहानी
हेम चन्द्र जोशी



            कम्प्यूटर में विडियो गेम खेलते-खेलते पता नहीं कब मेरी आंखे कमजोर हो गयी यह पता ही नहीं चला। बस अक्सर सिर में दर्द रहने लगा था और वह भी खास कर किताबें पढ़ने पर। कक्षा में जब ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ कुछ धुधंला सा दिखायी देने लगा तो मैंने इस बात को पापा से कहा। फिर पापा मुझे आँखों के डाक्टर के पास ले गये फिर क्या था डाक्टर ने मेरी आंखे टैस्ट की और बताया कि आंखे कमजोर हो गयी हैं। इसके बाद उन्होंने कुछ आँखों की कसरतें बतायी और चश्मा लगाने के लिये कह दिया। वह दिन है और आज का दिन है कि चश्मे ने मेरा पीछा ही नहीं छोड़ा।  इस घटना को लगभग पांच साल बीत गये हैं। यहाँ  तक कि हाईस्कूल तक मेरे पहुँचते पहुँचते मेरे साथियों ने मुझे चश्मुद्दीन कह कर चिढ़ाना भी छोड़ दिया। क्यों कि कक्षा में अब मेरे जैसे चश्मे वाले मेरे और भी कई साथी हो गये थे।
           
            सभी बच्चे मानते थे कि हाईस्कूल की कक्षा विशेष हो जाती है। क्यों कि तब हमको बोर्ड की परीक्षा देनी होती है और हम अपने को कुछ बड़ा  समझने  लगते हैं। तभी तो चश्मा अब मेरे फैशन  का हिस्सा बन गया था। मैंने  स्टाईलिस चश्मा खरीद रखा था जो नजर के साथ धूप के चश्मे का काम भी करता था। आखिर धूप को देखकर रंग हल्का गाढ़ा करने वाले इन फोटोक्रोमेटिक लैन्सों का कक्षा में रौब ही कुछ अलग था। और फिर इस फैशन की आंधी में, मैं कुछ उद्दंड सा हो चला था। अब किसी भी बात का सीधा उत्तर देना मुझे भाता ही नहीं था। क्लास में भी यदा कदा मौका देखकर मैं शरारतें कर ही जाता था।

            उस दिन मोहल्ले में साईकिल में एक गाँव वाला व्यक्ति घूम रहा था। उसको एक पते की तलाश थी  पर उसको घर नहीं मिल पा रहा था। उसने मुझे रोक कर कहा- ”बाबू जी क्या आप यह पता बता देंगे। मैं बहुत देर से ढूंढ़ रहा हूँ।कहकर उसने एक हिन्दी में लिखा पता मेरी ओर बढ़ा दिया।
            मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। दरअसल में मुझे उसका बाबू जी कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर मेरे जैसे अपटूडेट लड़के को उसने  साहब या सर कह कर पुकारना चाहिये था। मैंने  तिरछी निगाहों से परचे को देखा और पढ़ा। पता मुझे मालूम नहीं था।  पर- ”मुझे मालूम नहीं है।कहना मुझे ठीक नहीं लगा। मुझे  लगा कि इससे मेरा रौब कुछ कम हो जायेगा। अतः मैंने  अपना चश्मा ठीक करते हुये रौब से कहा-” भय्या यह पर्चा तो हिन्दी में लिखा है। यदि अंग्रेजी में लिखवा कर लाओ तो शायद बता सकूँ।

             गाँव वाला आवाक् सा मुझे देख कर आगे बढ़ गया। उसे कोई बात समझ में नहीं आयी पर मैं अपने मद में चूर आगे बढ़ गया। मुझको  लगा था कि मैंने एक बहुत बेहतरीन उत्तर दिया था। बस ऐसे ही ऊट पटांग बातों पर मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

            फिर एक दिन मैं अपनी नयी स्कूटी में ऐसे ही इधर से उधर के चक्कर मार रहा था कि घर के मोड़ पर एक लाठी वाले व्यक्ति के एकाएक स्कूटी के सामने आने से मैं गिर पड़ा मुझे  एकाएक  जोर को ब्रेक लगाना पड़ा था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति को बचाने के लिये मैं जमीन में गिर पड़ा  था उस व्यक्ति के पास इतना शिष्टाचार भी था कि वह कर मुझे सहारा दे दे।

            मुझे मन ही मन क्रोध गया। मैंने गुस्से में चिल्लाकर कहा- ”सड़क में देख कर नहीं चल सकते यह कहते हुये मैं कपड़ो की मिट्रटी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।

            ”बाबू जी, अन्धा हूँ तभी तो इस लाठी के सहारे चलता हूँ जरा मेरी लाठी उठाकर मुझको दे दीजिये।उसने दीनता से आग्रह किया।

            ”दिखता नहीं तो मैं क्या करूँ ? सड़क  पर चलते क्यों हो? बेकार में मुझको चोट लगवा दी। अन्धे कहीं के।कह कर मैंने अपनी स्कूटी उठा ली पर उसका डण्डा उठाकर उसको नहीं दिया। मेरा आपा गुस्से में चढ़ गया था।  मेरा विवेक मेरा साथ नहीं दे रहा था कि मैं इतना समझ सकता कि एक अंधा अपने डण्डे को कैसे ढूंढ़  कर उठायेगा।

            तभी दो-चार आदमी वहां पर गये और उन्होंने उसका डण्डा उठाकर उस व्यक्ति को दे दिया। उस व्यक्ति  ने धन्यवाद कहा और फिर आगे बढ़ गया। पर मैं मन ही मन बडबड़ाता रहा कि आखिरी ये अन्धे लोग सड़क पर घूमते क्यों हैं। इनकी वजह से मुझे फोकट में चोट लग गयी थी। इनको तो बन्द करके रखना चाहिये।


            शाम को ताऊ जी को रेलवे स्टेशन जाना था। वे यात्रा में कहीं बाहर जा रहे थे। मैंने मौका अच्छा पाकर कहा- ”ताऊ जी, मैं आपको स्टेशन छोड़ आऊँगा।दरअसल में अपनी स्कूटी चलाना चाहता था। ताऊ जी ने हामि भर दी। फिर मैं शाम तक इस बात का इन्तजार करता रहा। रात के नौ बजे की गाड़ी थी मैं ताऊ जी को लेकर  जल्दी ही स्टेशन में पहुँच गया। असली में मुझे स्कूटी चलाने की बहुत जल्दी थी। ताऊ जी भी थोड़ी जल्दी ही स्टेशन पहुँचना चाहते थे क्यों कि उनका आरक्षण कन्फर्म नहीं हुआ था।

            स्टेशन पहुँच कर ताऊ जी अपने परिचित किसी व्यक्ति को ढूंढ़ने के लिये चले गये और उन्होंने मुझसे कहा- ”जाओ, जरा रिजर्वेशन चार्ट को देखकर आओ। क्या पता वेटिंग लिस्ट में नाम हो।

            मैं रिजर्वेशन बोर्ड को ढूंढ़ने आगे निकल गया। एक जगह लोगों की भीड़ लगी थी। लोग अपना नाम देखने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी भीड़ में घुस गया। आरक्षण चार्ट के पास पहुँचने पर मैंने  पाया कि मैं कुछ पढ़ नहीं पा रहा हूँ। दरअसल में मैं जल्दी के कारण अपना चश्मा लाना भूल गया था। मैंने बहुत कोशिश  की पर कुछ भी नहीं पढ़ पाया। पीछे से लोग जोर लगा रहे थे। सभी को जल्दी थी कि वे ट्रेन में जल्दी से जल्दी बैठें।

            मेरे लिये बड़ी मुश्किल थी। चश्मे के बिना में पढ़ा लिखा अनपढ़ बन कर रह गया था। मुझे  महसूस हुआ कि आंखे कमजोर होना जब इतना परेशानी भरा है तो अन्धा होना कितना बड़ा श्राप है। इन मुश्किल क्षणों में मैंने बगल में खडे़ अपने हमउम्र लड़के से फरियाद की- ”भाई, जरा एल0 एम0 त्रिपाठी का रिजर्वेशन देख दीजिये।

            उसने मुझे झिड़कते हुये कहा-  ”अन्धे हो क्या ? खुद क्यों नहीं देख लेते।फिर वह बड़बड़ाता हुआ भीड़ से बाहर चला गया।
            मैं चश्मा साथ होने के कारण कितनी बेइज्जती झेल रहा था। मैंने मन ही मन सोचा कि यदि मैं अंधा होता तो क्या होता। मुझे सुबह मेरी स्कूटी से टकराये अन्धे की याद गयी मैंने भी उसको कितना भला बुरा कहा था।हे ईश्वर , मुझको माफ करना। मैं बहुत खराब आदमी हूँ अब मैं कभी ऐसे काम करूँ मैंने मन ही मन  प्रार्थना की। मुझे अपनी सभी बद्तमीजियाँ  एक एक करके याद रही थीं और पछतावा हो रहा था।

            ”आओ, मेरा रिजर्वेशन हो गया है।“  पीछे से ताऊ जी ने आवाज दी। पछतावे के साथ मैं धीरे-धीरे ताऊ जी के पीछे चल दिया।
            ”भगवान किसी की आंखे खराब मत करना।ऐसे भाव अब मेरे मन में उठ रहे थे।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

पार्वती बाई Hindi story by Hem Chandra Joshi


पार्वती बाई

कहानीः हेम चन्द्र जोशी  


आजकल पता नहीं मुझे क्या हो गया है । जाने अनजाने मेरी घर में किसी न किसी बात पर बहस हो  ही जा रही थी। ऐसा हो क्यों रहा हैं? मुझे स्वयं भी समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु एक बात मैं भली  भांति  जानता था कि मेरा पक्ष सदैव ही सही होता था। पर घर के लोग मेरी बातें अनसुनी कर दे रहे थे। तो क्या छोटों की सही बातें भी  बड़ो  ने नहीं सुननी चाहिये ? ऐसा अक्सर मेरे मन में विचार आता रहता था और मैं मन ही मन शायद खीझ सा जाता था।

एक दिन  मैंने मम्मी को पापा से बातें करते हुये सुना । मम्मी कह रही थीं- ‘‘अतुल आजकल बड़ा हो रहा है। उस पर ध्यान देने की  आवश्कता  है। आप कुछ समय अतुल को भी दिया करें।“
पापा ने धीरे से हामी भरी और बोले- ”क्या करूँ। चाहते हुये भी बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाता हूँ।  कोशिश  करूँगा।“

फिर बात आयी-गयी हो गयी क्यों कि पापा के पास तो आफिस के कामों से ही फुर्सत नहीं थी। अक्सर उनको टूर में जाना पड़ता था। फिर वे आफिस से आते भी काफी देरी से थे। ऐसे में पापा से बहुत ज्यादा बातचीत करना संभव ही न था। पर एक दिन पापा ने मुझको बुलाया और पूछा- ”अतुल आजकल तुम्हारी  पढाई  कैसी चल रही है? घर में तो तुम ज्यादा पढ़ाई करते दिखते नहीं हो।“
”ठीक चल रही है पापा । आप तो टीचर-पेरेन्टस मीटिंग में कालेज आते नहीं । नहीं तो आप मेरी टैस्ट की कापियाँ खुद देख लेते। “ -मैंने कहा।
”यह बात तो सही है।“- पापा ने हामी भरते हुये पूछा-”फिर भी कैसे हुये तुम्हारे टैस्ट । तुमने तो कुछ बताया ही नहीं।“
”बहुत अच्छे हुये पापा। टीचर कर रही थी कि यह लड़का इस बार कक्षा मे प्रथम आ सकता है। सभी बच्चों ने ऐसा ही काम करना चाहिये।“- मैंने उत्तर दिया।
”गुड, वेरी गुड।“ - पापा ने मुस्कराते हुये कहा और पूछा-”दोस्तों के साथ कैसा चल रहा है?“
”बढि़या चल रहा है। अनुज आजकल खेलने नहीं आ रहा है। उसके दादाजी बीमार हैं। ज्यादातर बच्चे आने वाली परीक्षाओं को देखते हुये खेलने कम ही आ रहें हैं।“- मैंने उत्तर दिया।
”भाई तुम भी खेलना कम करों और दूसरों की तरह पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दो।“-पापा ने कहा।

”पापा ये सभी लोग अपना काम समय पर नहीं किया करते हैं इसलिये अब आखिरी समय पर उछल-कूद मचा रहे हैं। मैं तो अपने कार्य नियमित रूप से करता  हूँ । इसी लिये मेरे ऊपर परीक्षाओं का कोई दबाव नहीं है।“- मैंने कहा।
पापा ने मुझे बडे़ गौर से देखा और मेरे  आत्मविश्वाश  को देखते हुये उनके चेहरे पर एक चमक सी आ गयी । वे प्रसन्न थे।
 मैंने मौका ठीक जान कर मन ही मन सोचा कि क्यों न अपने मन की बात पापा से कह  दूँ । अतः मैंने कहा- ”पापा एक बात पूछूँ?“
”हाँ हाँ क्यों नहीं“-पापा ने कहा।
”क्या छोटों की बात को बड़ों ने ध्यान नहीं देना चाहियें ?“- मैंने कहा।
क्यों   क्या बात हुयी ?“- पापा ने  चौंक  कर पूछा।
”पापा मैंनें जाने कितने समय से घर  में  सब से कह रहा हूँ कि यह हमारी काम वाली बर्तन ठीक से साफ नहीं कर रही है पर कोई ध्यान ही नहीं देता । मुझे रोज कुछ न कुछ गन्दा मिलता है। कभी गिलास, कभी चम्मच तो कभी थाली। पर कोई पार्वती बाई से कोई कुछ कहता ही नहीं है और पार्वती बाई मेरे कहे पर सिर्फ हँस देतीं  है । मेरी बात पर कोई ध्यान देती ही नहीं है।“- मैं एक साँस में पूरी की पूरी बात कह बैठा।
पापा कुछ नहीं बोले। तब मैंने फिर कहा- ”पापा आप काम वाली को बदल क्यों नहीं देते?“
”बेटे, पार्वती हमारे वहाँ तुम्हारे पैदा होने से पहले से काम कर रही है। उसको एकाएक तो हम ऐसे निकाल नहीं सकते। फिर भी मैं  उससे बात करूँगा।“- पापा ने कहा।
”पापा आप उसको डाटियेगा जरूर।“-मैंने खुश होकर कहा।
”ठीक है।“ -कह कर पापा अन्दर चले गये।

दो चार दिन बीत गये। मुझे लगा कि पापा भूल गये होंगे। इसलिये मैंने  मौंका  देखकर पार्वती बाई के साफ किये वे बर्तन दिखाये जिन पर किसी पर साबुन लगा रह गया था या जो ठीक से साफ नहीं हुये थे। पापा ने मेरी बात को ध्यान से सुना और फिर रविवार के दिन पार्वती बाई को समझाते हुये कहा-”पार्वती, आजकल बर्तन ठीक से साफ नहीं हो रहे हैं। कभी-कभी तो इनमें साबुन लगा रह जा रहा है। आप थोड़ी ध्यान से सफाई किया करो।“

”जी साहब।“- पार्वती ने कहा और बोली- ”साहब छोटे भय्या भी शिकायत कर रहे थे। क्या  करूँ  साहब यह बुढ़ापे की वजह से सब गड़बड़ हो जाती है। मैं छोटे भय्या की शिकायत के बाद से ही काफी ध्यान दे रही हूँ।“

बात आयी और गयी । पार्वती बाई के बर्तनों में अब पहले से कम शिकायत थी। फिर भी यदा-कदा गड़बड़ हो ही जाती थी। जो मुझको परेशान करती थी। मुझे ऐसा लगने लगा कि घर वाले और पार्वती बाई भी मेरी बातों में कोई विशेष महत्व नहीं दे रहे हैं।

फिर छुटिटयों में मेरे बड़े भय्या आ गये। मैंने फिर अपना दुखड़ा उनके सामने रोया तो उन्होने मुझसे कहा-”अतुल, पार्वती बाई हमारे घर  में  सालों से काम कर रही है। इस बुढ़ापे में उनको काम से निकालना उचित नहीं है। मैं फिर भी कुछ न कुछ करता हूँ।“
 फिर मैंने एक दिन देखा कि भय्या और पार्वती बाई बहुत देर तक आपस में बातें करते रहे और फिर बाई ने सहमति से दो तीन बार सिर हिला कर हाँ कहा। फिर अगले दिन शाम को जब मैं खेलकर लौटा तो मैंने पाया कि पार्वती बाई भाई साहब के स्कूटर से नीचे उतर रही थी।

तीन चार दिन बाद भाई साहब वापस लौट गये पर एक बात बड़ी विचित्र  हुयी । भाई साहब के जाने के बाद से पार्वती बाई के बर्तनों में अब कोई कमी मैं नहीं  पकड़  सका। बर्तन अब चकाचक साफ मिलते थे। मैं अब बाई के काम से प्रसन्न था। पर यह चमत्कार कैसे हो गया मैं समझ नहीं पाया।
एक सप्ताह बीता और फिर धीरे धीरे पन्द्रह दिन भी बीत गये पर अब पार्वती बाई के काम में कोई कमी नहीं थी। तब मेरे से रहा नहीं गया। मैंने बाई से कहा -” बाई मैंने कहा, पिताजी ने कहा, मम्मी ने कहा पर आपने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। पर अब भय्या ने तुमसे ऐसा क्या कह दिया कि तुम ठीक से बर्तन साफ करने लगी हो।“

पार्वती बाई खिलखिला के हँस दी और काफी देर तक हँसती रहीं । मुझे समझ में नहीं आया कि इसमें हँसने की क्या बात थी। उनको इतनी हँसी आयी कि नाक से उनका चश्मा नीचे निकल सा पड़ा। जब पार्वती बाई ने चश्मा ऊपर को किया तो एकाएक मुझे याद आया कि पार्वती बाई तो चश्मा पहनती ही नहीं है। आज यह चश्मा एकाएक उनकी नाक में कहाँ से आ गया?

”बाई आप ने यह चश्मा लगाना कब से शुरू कर दिया?“- मैंने एकाएक पूछा।

“यह ही तो तुम्हारे भय्या का कमाल है।”- पार्वती बाई बोली-“भय्या, मुझे आंखो के डाक्टर के पास ले गये और मुझे यह चश्मा बनवा कर दे दिया। बस हो गया तुम्हारी समस्या का समाधान । मैं अब अच्छी तरह देख सकी हूँ अतः बर्तन गन्दे छूटने का तो अब कोई सवाल ही नहीं है।”

मैं ठगा सा रह गया। मैं जान गया कि भय्या कितने होशियार हैं कि  उन्होंने  एक ही क्षण में हम सब की समस्या का समाधान कर दिया। पर मैं अब भी फुर्सत के क्षणों में सोचता हूँ कि इस बात की अक्ल मुझे क्यों नहीं आयी?



हिंदी कहानी पार्वती बाई