रविवार, 22 मार्च 2009

शिखर की अंतरिक्ष यात्रा :अंतिम भाग: कहानी :हेम चन्द्र जोशी

जब शिखर ने पूरी बात बताई तो रजत ने उस को बताया कि इस प्रकार के बाल पेन   यहां प्रयोग नहीं किए जा सकते इसलिए उन को उपहार के रूप् में बांटने से कोई फायदा नहीं है. शिखर ने आश्चर्यचकित हो कर कहा- "क्यों ये पेन अंतरिक्ष में काम  क्यों नहीं आ सकते है. मैं ने सभी पेनों से लिखने की कोशिश की पर इन में से किसी से भी मैं  लिख न पाया. समझ में नहीं आता है कि पेन से स्याही क्यों नहीं निकल रही है?" 

इस विषय में तो मै ने कभी  कुछ सोचा ही नहीं पर हम लोग यहां विशेष प्रकार की पेंसिल से लिखते है. यह कहते  हुए रजत ने उसे एक पेंसिल ला कर दे दी. पेंसिल को देख कर  शिखर मुसकरा  उठा. घर मे उसे पेन से लिखने से सदा रोक  दिया जा था. सभी कहते थे कि उस की हस्तलिपि खराब हो जाएगी. स्कूल में भी पेन को प्रयोग मना था. उस ने अंतरिक्ष से अपना पत्र पेन से लिखने की ठानी थी.  पर यहां भी सब  कुछ गड.बड. हो गया था. पत्र लिखने के लिए उसे एक बार फिर पेंसिल मिल गई थी.  पर उसे  समझ में  नहीं आ रहा था कि जब पेंसिल से अंतरिक्ष में लिख जा सकता है तो उसका पेन यहां काम क्यों नहीं कर रहा है? 

तभी मामाजी आ गये. शिखर ने तुरंत अपनी समस्या उनके सामने रख दी. मामाजी एक बार फिर हंस पडे. उन्होने कहा कि क्या वह कुछ ही दिनों  मे सब बाते जान लेगा चाहता  है? इस विषय में वे कभी आराम से बात करेगे.

शिखर ने मचल कर कहा- "नहीं मामाजी अभी बताइए न."  

अच्छा रजत तुम यह बताओ कि यदि धरती पर हम पेन से ऐसे लिखें कि नोक वाला सिरा उपर की ओर रहें जैसे कि कागज को दीवार से सटा कर उस पर लिखने का प्रयत्न किया जाए तब क्या होगा?

"कुछ नहीं मामाजी थोडी ही देर में पेन लिखना बंद कर देगा. यदि हम पेन की नोक को नीचे की ओर कर दे तो वह फिर लिखने लगेगा पर ऐसा क्यों होता है यह मुझे पता नहीं."- रजत ने उत्तर दिया.

मामाजी ने मुस्करा कर कहा स्याही अपने भार के कारण नीचे की ओर बहती है. इसलिए वह नोक से तभी निकल पाती है जब नोक की दिशा नीचे की ओर हो. 
"मैं समझ गया मामाजी मेरे सभी पेने अंतरिक्ष में क्यों गडबडा गए है?" शिखर ने उतावलेपनसे आगे कहा- "अंतरिक्ष मं स्याही का अपना भार तो है नहीं. इसलिए पेन से वह नहीं बहती है" 

मामाजी ने खुश हो कर जोर से  शिखर की पीठ ठोंक दी तो वह खिलखिला कर बोला- "यहां तो हर बात में कोई न कोई चक्कर है."

मामाजी  के जाने के बाद शिखर ने रजत द्वारा दी हुई  पेंसिल से पत्र लिखने की ठानी. उसे लगा कि अपनी रोमांचक यात्रा के चक्कर में वह घर के बारे में बिलकुल ही भूल गया  गया है. उस ने घडी देखी  शाम के साढे   5 बज रहे थे. उस ने सोचा कि यदि वह घर पर होता तो इस समय मां उस को शाम का नाश्ता दे रही होतीं और उस का प्यारा कुत्ता ब्रूनो उस के पांवों लोट रहा होता. वह चाहे कितना भी ब्रूनों को भागाने की चेष्टा  करता पर वह उस के पांवों से न हटता. अंत में हार कर डबलरोटी या  बिस्कुट का एक टुकडा उस को जरूर देना ही पड.ता.  पिताजी अकसर उस से नाराज  होते थे. वह कहते थे कि खाते समय कुत्ते को नहीं छूना चाहिए इस से बीमारी होने की संभावना रहती है

जब भी वह घर से बाहर निकलता हो ब्रूनो  भी चलने की जिद करता. उस के सभी दोस्त भी ब्रूनो को भी साथ ले जाते.  फिर खेले के बीच बीच में ब्रूनो  आ कर उन की गेंद  मुहं से पकड लेता. सच, उसे ब्रूनो  व अपने दोस्तों की बहुत याद  आने लगी. शाम को खेलते खेलते यदि देर जो जाती  तो मां नाराज होतीं और  कहतीं शिखर अच्छे  बच्चे सदा सूरज डूबने से पहले घर चले आते हैं.

उसे याद आया कि उसे सूरज को धीरे धीर आसमान में डूबता देखे हुए कई दिन  हो गए हें. उदास हो कर उस ने पेंसिल को कागज में चलाना शुरू  किया और लिखाः

प्यारी मां,

सादर चरण स्पर्श

मुझेस आप सब कि बहुत याद आ रहीं है. पिछले  कई दिनों से मै  इस आश्चर्यजनक  विक्रम साराभाई  अंतरिक्ष नगर में खो  सा गया हूं.   मैं मिलने पर यहां  की ढेर सारी घटनाएं  आप को बताउंगा . इन बातो को पत्र में लिखना संभब नहीं है.

पर मां, यहां न तो यहां सुबह होती है आर न शाम.   न तो पूर्व से सूर्य उगता नजर आता है है और ना ही पश्चिम से डूबता हुआ. सब कुछ दिशाहीन और स्थिर है. न पूर्व है न पश्चिम, न उत्तर है न दक्षिण. हर समय चमकता हुआ सूरज  है और चारों और दोपहर का वातावरण, सब कुछ यांत्रिक सा है. सुबह उठने पर न तो आसमान में सूरज की लालिमा दिखाई देती है और न ही चिडि.यों की चहचहाहट. आसमान में बादल भी नहीं है. रंगबिरंगी पतंगे भी नहीं  उड.तीं. ना कही मुर्गे की बांग की आवाज सुनाई देती है और न हीं ठंडी  हवा के झोंके. सब कुद चमकदार होते हुए भी  बेजान सा है 

सच मां, सब कुछ निर्जीव सा है. जब पेड ही नहीं है  तो फिर पक्षियों के घोंसले कहां से आएंगें? जमीन पर फैली न तो हरी हरी घास है और न ही रंगबिरंगे फूल. न ही रंगबिरंगी तितलियों हैं. कुछ भी  हिलताडुलता भी नहीं, हिलेगा भी कैसे  जब कि हवा के झोंके ही नहीं है. एक मजेदार बात है यहां कपडे. भी गंदे नहीं होते क्योंकि न कहीं धूल है और न ही कालाकाला धुआं है.

सारा का सारा अंतरिक्ष  नगर इतना ज्यादा साफासुथरा है कि मैं वर्णन भी नहीं कर सकता पर समझ में नहीं आता कि मुझे अच्छा क्यों नहीं लग रहा है लिखने को तो ढेर सारी बातें है पर बाकी मिलने पर बताउंगा।

आप का बेटा,

शिखर ने पत्र पूरा ही किया था कि मामाजी घर पहुंच गए उन्होंने उस से कहा  कि वे अगले दिन किसी काम से पृथ्वी पर जा रहे हैं. वह चाहे तो वापस घर चल सकता है।
मामाजी की बात सुन कर शिखर की उदासी दूर हो गई उस का चेहरा खुशी से खिल उठा. उस ने फटाफ़ट चलने की तैयारी करनी शुरू  कर दी. मामी ने उस से कुछ और दिन रूकने को कहा, पर शिखर न माना वह अगले ही पल अपने ्घर पहुंचना चाहता था.

मामाजी ने कहा शिखर तुम सामान कम ही रखना अन्यथा पृथ्वी  पर पहंुच पहुंचते सूटकेस इतना भारी हो जाएगा कि तुम उठा भी न पाओंगे.
शिखर ने सहमति  में सिर हिला दिया दुसरे दिन वह मामाजी के साथ सकुशल पृथ्वी पर पहुंच गया. अंतरिक्ष स्टे्शन पर उस ने अपनी अटैची उठाने की कोशिश की पर उससे टस से मस भी न कर सका. मामाजी ने मुस्करा कर कहा- "बेटा मैं ने कहा था न कि कम सामान रखना. यहां आ कर अटैची का भार बहुत बढ. गया है इसलिए इस उठाना अब संभव नहीं है मैं अभी कुली बुला कर लाता हूं.
अपनी भारीभ्ररकम अटैची ले कर वह ्जब घर पहुंचा तो उस की मां घर के बाहर खडी थीं. शिखर को एकाएक आया देख कर उन्होंने उस को गले लगा कर ढेर सारा प्यार किया.

मामाजी व उस की मां को लगा कि शिखर अपनी कुछ ही दिनों की यात्रा के दौरान बहुत ही समझदार हा गया है. वह अपने दोस्तों से कह रहा था, अंतरिक्ष नगर में न तो इतना ढेर सा पानी है कि हम जितना चाहें बहा सकें और न इतना खाना कि थालियों में छोड. सकें. अंतरिक्ष नगर में पता चलता है कि पानी हमारे जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण हैं.

वहीं मुझे अनुभव हुआ कि हमारी धरती कितरी सुंदर और सरल है. तरह तरह के रसीले फल, रंगबिरंगे फूल, तितलियां, भौरे, जानवर नीले आकाश में उड.ते पक्षी.... सभी प्रकृति की अद्भुत कृतियां है. आकाश में ढेर सारे ग्रह, उपग्रह व तारे दूर से चमक के कारण सभी बहुत सुंदर  दिखाई देते है. पर कोई भी इतना प्यारा नहीं जितना हमारी प्यारी धरती .....

शिखर की बातों को सुन कर उस की मां मन ही मन मुसकरा दीं।........................

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