रविवार, 19 अप्रैल 2009

कुन्नू :कहानी: हेम चन्द्र जोशी

घर में मैं सबसे बड़ा हूं पर पिताजी सदा कुन्नू की ही तरफदारी करते हैं। यह कुन्नू की बच्ची घर में सबसे छोटी है पर है सबकी नानी। पिताजी को घर की एक-एक बात की खबर देती है। किसने पढ़ाई की और किसने नहीं। किसने मां का कहना नहीं माना। यह कुछ भी नहीं भूलती है। जासूसों की तरह हम सबकी टोह लेती है और फिर हमारी शिकायत करती है।
मुझे सिनेमा जाने का शौक लगा था। उस दिन मैं स्कूल से जल्दी घर चला गया। मां से मैंने झूठ बोल दिया कि स्कूल में खेल-कूद की वजह से छुट्टी हो गयी है। ठीक ढाई बजे मेरा दोस्त वीरेन्द्र साइकिल लेकर घर पर पहुंचा। वह टिकट खरीद लाया था। मैं जल्दी उससे बातें करके मां के पास पहुंचा और फिर वीरेन्द्र के साथ निकल गया। पर इस कुन्नू की बच्ची ने पता नहीं कब मेरी व वीरेन्द्र की बातें सुन लीं। फिर शाम को पिताजी के घर आने पर मेरी पोल खोल दी। बस, पिताजी ने इतना डांटा कि मेरी आत्मा कांप उठी।
मुझे लगता था कि घर में सब लोग मुझे अभी बच्चा ही समझते हैं। उस दिन पिताजी बहुत देर तक मुझको समझाते रहे। वे दुःखी थे कि वे मेरे अन्य दोस्तों के माता-पिता की भांति मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते हैं। मैं उनसे पिछले कई दिन से स्कूल ड्रेस की नई पैण्ट सिलवाने के लिए आग्रह कर रहा था। पुरानी पैण्ट अब बहुत खराब हो चुकी थी। उन्होंने मुझसे पिछले महीने वादा किया था। वादे के अनुसार इस महीने मेरी नई पैण्ट सिलनी थी। पर अब पिताजी ने इरादा बदल दिया क्योंकि कुन्नू का जन्मदिन नजदीक था।
रात को मेरा मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगा। पढ़ते समय कुन्नू मेरे पास आई। उसने मुझे एक बढि़या सा पेन दिया जो उसको आज ही स्कूल में इनाम में मिला था। वह चाहती थी कि मैं उसके पेन से बोर्ड की परीक्षायें दूं। मैंने पिताजी पर आया गुस्सा कुन्नू पर निकाल दिया। उसे जोर से डांट कर भगा दिया। 
अब मैं सोच रहा था कि मैंने कुन्नू को क्यों डांटा ? वह तो अपना इनाम का पेन मुझे देने आई थी। क्या मेरा व्यवहार उचित था ? क्या मैं कुन्नू की सफलता को देखकर खीझ उठता हूँ ? उसे घर में पिताजी अच्छा मानते हैं और स्कूल में शिक्षक व विद्यार्थी। बेचारी कितने प्यार से अपना पेन देने मुझे आई थी। शायद मैं ऐसे पेन को किसी को न दे पाता। इतना सुन्दर पेन था वह । सोई हुई मासूम कुन्नू के चेहरे को देखकर मैं समझ नहीं पाता कि यह मेरी शिकायत क्यों करती है।
कुन्नू ने अपने जन्म दिन पर फ्राॅक न बनवाने का निश्चय किया। अतः पिताजी ने मेरी पैण्ट सिलने को दे दी। जन्म दिन पर कुन्नू ने अपनी सहेलियों  को भी नहीं बुलाया। मुझे समझ में नहीं आता इस कुन्नू को हो क्या गया है। यह दिन पर दिन बदलती जा रही थी। ज्यादातर समय किताबों में ही खोयी रहती थी।
मैंने तब एक नया तरीका निकाला। जब पढ़ाई का मन न हो तो कहानी की किताब पढ़ ली जाए। कहानी की किताब एक बार पढ़ना शुरू करो तो छोड़ने का ही मन नहीं चाहता। काश, मेरा इतना मन कोर्स की किताबों में लग पाता। शायद मां की इच्छा पूरी हो जाती। मैं प्रथम श्रेणी से तो पास हो ही जाता और शायद किसी इंजीनियरिंग कालेज में भी दाखिला मिल जाता । 
पिताजी को जब पता लगा कि मैं आजकल कहानी की किताबें ज्यादा ही पढ़ने लगा हूं तो वे बहुत नाराज हुए। फिर उन्होंने घर में सभी से कहा कि कोई भी मुझे पढ़ने को न कहे। शायद उन्होंने हार मान ली है। अब मेरे भाग्य में जो बनना होगा वही मैं बनूंगा। मेरे पीछे प्रयत्न करना बेकार है। यही पिताजी का अन्तिम मत है। मैं बहुत दुःखी हुआ। मैंने जी लगाकर पढ़ने का निश्चय कर लिया।
मैंने पिताजी को प्रथम श्रेणी में पास होकर दिखा दिया। इंजीनियरिंग कालेज में मेरा दाखिला भी हो गया। मां- पिताजी बहुत खुश हुए। पर उनको एक ही चिंता थी कि पढ़ाई का खर्चा कैसे चलेगा। घर में मेरे जाने की तैयारियां चल रही थीं। पिताजी इधर-उधर से रुपयो का इंतजाम कर रहे थे। आखिर इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाना कोई आसान काम तो था नहीं। आखिर पैसों का इंतजाम करके मुझे इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने भेज दिया गया।
मैं छुट्टी में घर आया। पिताजी और मां बहुत खुश थे। कुन्नू दौड़ कर मेरे पास आई। अतुल, राकेश व कविता भी आ गई। सभी कालेज के बारे में पूछने लगे। मैंने उनको कालेज की ट्रेनिंग के किस्से एक-एक करके सुनाए।
रात को मैंने पिताजी से बातचीत की। उनको बताया कि उनका दिया खर्चा कम पड़ रहा है। महीने के आखिर में तो खाना खाने के लाले पड़ सकते हैं। कापी, किताबें, हास्टल का खर्चा, चाय-नाश्ता और खाना सभी कुछ महंगा है। मैंने पिताजी से कहा कि पिताजी क्या करूं? ऐसा न हो कि मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़े। पिताजी ने मुझे ढांढस बंधाया। चिंता न करने की सलाह दी। कहा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा।
अतुल ने मुझे बताया कि कुन्नू के पास घर में सबसे ज्यादा रुपए हैं। वह समय-समय पर मिले रुपए जोड़ती रहती है।  
शाम को पिताजी घर आए। उन्होंने कुन्नू को बताया कि एक अच्छी साइकिल मिल रही है। यदि वह अपने पास से पांच सौ रुपए दे दे तो वे कल ही उसके लिए साइकिल ले आएंगे। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुन्नू ने पिताजी को रुपए देने के लिए मना कर दिया। जबकि वह पिछले चार महीने से साइकिल की जिद कर रही थी। 
उसने पिताजी से कहा कि वह अपने छह सौ दस रुपए की पूंजी से मात्रा एक सौ दस रुपए उनको दे सकती है। पिताजी ने उसको बहुत समझाया पर उसने एक न सुनी। मैं भी उसकी जिद को नहीं समझ पा रहा था। पिताजी व कुन्नू बहस कर रहे थे। मैं सोने चला गया। अगले दिन सुबह मुझे वापिस जाना था।
फिर हास्टल में एक दिन मैंने सुबह नाश्ता नहीं किया। सिर्फ खाना खाया। चाय भी एक बार ही पी। चार-पांच तारीख तक पिताजी का मनीआर्डर आएगा। पता नहीं तब तक कैसे काम चलेगा यह ही मन मैं विचार था। कालेज में पढ़ाई जोर शोर से चल रही थी। पिताजी के दिए रुपये समाप्त होने जा रहे थे। घर से मनीआॅर्डर आने में भी कुछ दिन बाकी थे।
उस दिन मैंने जैसे  ही अपनी किताब का एक पन्ना खोला मैं हक्का बक्का रह गया। किताब में एक पांच सौ का नोट बड़े ही ढंग से चिपका हुआ था। कुन्नू ने नीचे लिखा था कि शायद मेरे रुपए समाप्त हो चुके होंगे। मुझे इन रुपयों की जरूरत होगी। मैं इस महीने इन रुपयों से काम चला लूं। अगले महीने जरूर कोई दूसरा इंतजाम हो जाएगा। उसकी लिखी बात पढ़कर मेरी आंखे नम हो गई। सच, कुन्नू तुम कितनी समझदार हो गई थी। यह बात तो मैं कभी समझ ही नहीं पाया।
अब मुझे समझ में आ गया कि उसने पिताजी को साइकिल खरीदने के लिए रुपए क्यों नहीं दिए थे। कुन्नू ने मेरी आने वाली परेशानी को सोचकर अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग कर दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह कि उसने मेरे और पिताजी के बीच हुई अंतरंग बात को कितनी सफाई से सुनकर किसी को जाहिर नहीं होने दिया और मेरी समस्या का समाधान कितनी सफाई से कर डाला। 
मैं बहुत शर्मिन्दा हो  गया। मैंने सदा उसे बहुत छोटा समझा। उसकी शिकायतों से सदा नाराज रहा। मैं कभी यह समझ ही नहीं पाया कि वह भी बड़ों की तरह मुझे इतना प्यार करती है। मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं उसके सामने बहुत अदना हूं।


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