मंगलवार, 6 जून 2017

सच
तुम तो सयाने हो
बात देखकर बदल देते हो
झूठ के आँगन को भी
बनावट से सहेज लेते हो
पर सच छिपता है कहीं?
किसी कोने में
नजर आ ही जाता है
झाड़ू सा
खुदबखुद कहीं
बातों में टपक जाता है
और एक हम भी तो हैं
नासमझ
पर पहले से नहीं !
थोड़ा खेल
वख्त हमें भी सिखा बैठा है
हर दिखावट का जवाब
अच्छा अभिनय ही तो है
यह बता बैठा है
इसलिये वजूद के लिये
किरदार निभा रहा हूँ
न जाने कितनी बार
अपने मन को मार रहा हूँ
फुरसत के क्षणों में
जब बातों की तस्वीर
मन में उकेरता हूँ
तुम नजर आते हो
खिलखिलाते से
एक अच्छे यार की तरह
पर मेरी कामयाबियों पर
तेरे साथियों के चेहरे का अवसाद
कोने में खड़ी झाड़ू की तरह
क्यों सच को है जता जाता !
पर रिश्तों की
मजबूरियों हीं तो हैं
मैं भी अपनी हँसी लिये
सबके गले लग जाता हूँ।

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