मंगलवार, 6 जून 2017

*झूठ*
झूठ के पाँव नहीं होते
झूठ की यादाश्त भी नहीं
बहुत देर तक झूठ 
ग्रहण की तरह कभी
ठहर पाता भी नहीं
झूठ तो बर्फ है
पिघलना तो इसकी फितरत है
सच तो पानी है
बर्फ की जो हकीकत है
झूठ की खपच्चियों क्या कभी
क्या सच की
बल्लियां बन सकी हैं?
और इन बल्लियों पर
क्या विश्वास की कभी
हरी भरी बेल चढ़ी है?
झूठ की जीत नहीं होती
जीत कर भी
हारा होता है
अहम बहल सकता है
कुछ क्षण
पर सच ही प्यारा होता है
झूठ की औलाद भी
झूठ ही होती है
किसी ने सच ही कहा है
जीवन में जैसी बुवाई
वैसी ही कटौती है
झूठ को तो होती है
फिर और झूठ के
सहारे की जरुरत
लिखो कुछ भी रेत में
शाश्वत रह सकती क्या
विश्वास की कभी कोई इबारत ?

कोई टिप्पणी नहीं: