मंगलवार, 1 जनवरी 2013

पार्वती बाई Hindi story by Hem Chandra Joshi


पार्वती बाई

कहानीः हेम चन्द्र जोशी  


आजकल पता नहीं मुझे क्या हो गया है । जाने अनजाने मेरी घर में किसी न किसी बात पर बहस हो  ही जा रही थी। ऐसा हो क्यों रहा हैं? मुझे स्वयं भी समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु एक बात मैं भली  भांति  जानता था कि मेरा पक्ष सदैव ही सही होता था। पर घर के लोग मेरी बातें अनसुनी कर दे रहे थे। तो क्या छोटों की सही बातें भी  बड़ो  ने नहीं सुननी चाहिये ? ऐसा अक्सर मेरे मन में विचार आता रहता था और मैं मन ही मन शायद खीझ सा जाता था।

एक दिन  मैंने मम्मी को पापा से बातें करते हुये सुना । मम्मी कह रही थीं- ‘‘अतुल आजकल बड़ा हो रहा है। उस पर ध्यान देने की  आवश्कता  है। आप कुछ समय अतुल को भी दिया करें।“
पापा ने धीरे से हामी भरी और बोले- ”क्या करूँ। चाहते हुये भी बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाता हूँ।  कोशिश  करूँगा।“

फिर बात आयी-गयी हो गयी क्यों कि पापा के पास तो आफिस के कामों से ही फुर्सत नहीं थी। अक्सर उनको टूर में जाना पड़ता था। फिर वे आफिस से आते भी काफी देरी से थे। ऐसे में पापा से बहुत ज्यादा बातचीत करना संभव ही न था। पर एक दिन पापा ने मुझको बुलाया और पूछा- ”अतुल आजकल तुम्हारी  पढाई  कैसी चल रही है? घर में तो तुम ज्यादा पढ़ाई करते दिखते नहीं हो।“
”ठीक चल रही है पापा । आप तो टीचर-पेरेन्टस मीटिंग में कालेज आते नहीं । नहीं तो आप मेरी टैस्ट की कापियाँ खुद देख लेते। “ -मैंने कहा।
”यह बात तो सही है।“- पापा ने हामी भरते हुये पूछा-”फिर भी कैसे हुये तुम्हारे टैस्ट । तुमने तो कुछ बताया ही नहीं।“
”बहुत अच्छे हुये पापा। टीचर कर रही थी कि यह लड़का इस बार कक्षा मे प्रथम आ सकता है। सभी बच्चों ने ऐसा ही काम करना चाहिये।“- मैंने उत्तर दिया।
”गुड, वेरी गुड।“ - पापा ने मुस्कराते हुये कहा और पूछा-”दोस्तों के साथ कैसा चल रहा है?“
”बढि़या चल रहा है। अनुज आजकल खेलने नहीं आ रहा है। उसके दादाजी बीमार हैं। ज्यादातर बच्चे आने वाली परीक्षाओं को देखते हुये खेलने कम ही आ रहें हैं।“- मैंने उत्तर दिया।
”भाई तुम भी खेलना कम करों और दूसरों की तरह पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दो।“-पापा ने कहा।

”पापा ये सभी लोग अपना काम समय पर नहीं किया करते हैं इसलिये अब आखिरी समय पर उछल-कूद मचा रहे हैं। मैं तो अपने कार्य नियमित रूप से करता  हूँ । इसी लिये मेरे ऊपर परीक्षाओं का कोई दबाव नहीं है।“- मैंने कहा।
पापा ने मुझे बडे़ गौर से देखा और मेरे  आत्मविश्वाश  को देखते हुये उनके चेहरे पर एक चमक सी आ गयी । वे प्रसन्न थे।
 मैंने मौका ठीक जान कर मन ही मन सोचा कि क्यों न अपने मन की बात पापा से कह  दूँ । अतः मैंने कहा- ”पापा एक बात पूछूँ?“
”हाँ हाँ क्यों नहीं“-पापा ने कहा।
”क्या छोटों की बात को बड़ों ने ध्यान नहीं देना चाहियें ?“- मैंने कहा।
क्यों   क्या बात हुयी ?“- पापा ने  चौंक  कर पूछा।
”पापा मैंनें जाने कितने समय से घर  में  सब से कह रहा हूँ कि यह हमारी काम वाली बर्तन ठीक से साफ नहीं कर रही है पर कोई ध्यान ही नहीं देता । मुझे रोज कुछ न कुछ गन्दा मिलता है। कभी गिलास, कभी चम्मच तो कभी थाली। पर कोई पार्वती बाई से कोई कुछ कहता ही नहीं है और पार्वती बाई मेरे कहे पर सिर्फ हँस देतीं  है । मेरी बात पर कोई ध्यान देती ही नहीं है।“- मैं एक साँस में पूरी की पूरी बात कह बैठा।
पापा कुछ नहीं बोले। तब मैंने फिर कहा- ”पापा आप काम वाली को बदल क्यों नहीं देते?“
”बेटे, पार्वती हमारे वहाँ तुम्हारे पैदा होने से पहले से काम कर रही है। उसको एकाएक तो हम ऐसे निकाल नहीं सकते। फिर भी मैं  उससे बात करूँगा।“- पापा ने कहा।
”पापा आप उसको डाटियेगा जरूर।“-मैंने खुश होकर कहा।
”ठीक है।“ -कह कर पापा अन्दर चले गये।

दो चार दिन बीत गये। मुझे लगा कि पापा भूल गये होंगे। इसलिये मैंने  मौंका  देखकर पार्वती बाई के साफ किये वे बर्तन दिखाये जिन पर किसी पर साबुन लगा रह गया था या जो ठीक से साफ नहीं हुये थे। पापा ने मेरी बात को ध्यान से सुना और फिर रविवार के दिन पार्वती बाई को समझाते हुये कहा-”पार्वती, आजकल बर्तन ठीक से साफ नहीं हो रहे हैं। कभी-कभी तो इनमें साबुन लगा रह जा रहा है। आप थोड़ी ध्यान से सफाई किया करो।“

”जी साहब।“- पार्वती ने कहा और बोली- ”साहब छोटे भय्या भी शिकायत कर रहे थे। क्या  करूँ  साहब यह बुढ़ापे की वजह से सब गड़बड़ हो जाती है। मैं छोटे भय्या की शिकायत के बाद से ही काफी ध्यान दे रही हूँ।“

बात आयी और गयी । पार्वती बाई के बर्तनों में अब पहले से कम शिकायत थी। फिर भी यदा-कदा गड़बड़ हो ही जाती थी। जो मुझको परेशान करती थी। मुझे ऐसा लगने लगा कि घर वाले और पार्वती बाई भी मेरी बातों में कोई विशेष महत्व नहीं दे रहे हैं।

फिर छुटिटयों में मेरे बड़े भय्या आ गये। मैंने फिर अपना दुखड़ा उनके सामने रोया तो उन्होने मुझसे कहा-”अतुल, पार्वती बाई हमारे घर  में  सालों से काम कर रही है। इस बुढ़ापे में उनको काम से निकालना उचित नहीं है। मैं फिर भी कुछ न कुछ करता हूँ।“
 फिर मैंने एक दिन देखा कि भय्या और पार्वती बाई बहुत देर तक आपस में बातें करते रहे और फिर बाई ने सहमति से दो तीन बार सिर हिला कर हाँ कहा। फिर अगले दिन शाम को जब मैं खेलकर लौटा तो मैंने पाया कि पार्वती बाई भाई साहब के स्कूटर से नीचे उतर रही थी।

तीन चार दिन बाद भाई साहब वापस लौट गये पर एक बात बड़ी विचित्र  हुयी । भाई साहब के जाने के बाद से पार्वती बाई के बर्तनों में अब कोई कमी मैं नहीं  पकड़  सका। बर्तन अब चकाचक साफ मिलते थे। मैं अब बाई के काम से प्रसन्न था। पर यह चमत्कार कैसे हो गया मैं समझ नहीं पाया।
एक सप्ताह बीता और फिर धीरे धीरे पन्द्रह दिन भी बीत गये पर अब पार्वती बाई के काम में कोई कमी नहीं थी। तब मेरे से रहा नहीं गया। मैंने बाई से कहा -” बाई मैंने कहा, पिताजी ने कहा, मम्मी ने कहा पर आपने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। पर अब भय्या ने तुमसे ऐसा क्या कह दिया कि तुम ठीक से बर्तन साफ करने लगी हो।“

पार्वती बाई खिलखिला के हँस दी और काफी देर तक हँसती रहीं । मुझे समझ में नहीं आया कि इसमें हँसने की क्या बात थी। उनको इतनी हँसी आयी कि नाक से उनका चश्मा नीचे निकल सा पड़ा। जब पार्वती बाई ने चश्मा ऊपर को किया तो एकाएक मुझे याद आया कि पार्वती बाई तो चश्मा पहनती ही नहीं है। आज यह चश्मा एकाएक उनकी नाक में कहाँ से आ गया?

”बाई आप ने यह चश्मा लगाना कब से शुरू कर दिया?“- मैंने एकाएक पूछा।

“यह ही तो तुम्हारे भय्या का कमाल है।”- पार्वती बाई बोली-“भय्या, मुझे आंखो के डाक्टर के पास ले गये और मुझे यह चश्मा बनवा कर दे दिया। बस हो गया तुम्हारी समस्या का समाधान । मैं अब अच्छी तरह देख सकी हूँ अतः बर्तन गन्दे छूटने का तो अब कोई सवाल ही नहीं है।”

मैं ठगा सा रह गया। मैं जान गया कि भय्या कितने होशियार हैं कि  उन्होंने  एक ही क्षण में हम सब की समस्या का समाधान कर दिया। पर मैं अब भी फुर्सत के क्षणों में सोचता हूँ कि इस बात की अक्ल मुझे क्यों नहीं आयी?



हिंदी कहानी पार्वती बाई

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

अनुभूति Hindi story by Hem Chandra Joshi

अनुभूति


 

            मैं कक्षा चार में पढ़ती थी और मेरे छोटे भाई ने अभी स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था। पता नहीं मां को क्या हो गया था। वह अक्सर बीमार हो जाती थीं। हमारे घर अक्सर डाक्टर अंकल आते थे। तीन चार दिन दवा खाने के बाद मां कुछ ठीक हो जाती थीं और वे एक बार फिर रोजाना के कामों में व्यस्त हो जाती थीं। बागवानी से मां का विशेष शौक था।  तरह-तरह के फूल, फल व सब्जियों को उगाना उनके जीवन का एक हिस्सा था। पिताजी उनको काम करता देखकर अक्सर नाराज होते थे। पर मैं या तो उनको चारपाई पर बीमार देखती थी या फिर कड़ी मेहनत करते हुये। पिताजी को अक्सर आफिस के काम से बाहर ही रहना पड़ता था।

                        एक दिन पिताजी ने मां से बातचीत की। उनका मानना था कि मेरी देखभाल घर में ठीक-ठाक नहीं हो पा रही है क्योंकि मां का स्वास्थ ठीक नही रहता था। वह भी बच्चों को घर में ज्यादा समय नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि उनको अक्सर आफिस के काम से बाहर रहना पड़ता है। इस कारण से मां के ऊपर बच्चों का बोझ पड़ जाता है। यही उनका मानना था। इसलिए उन्होंने हम दोनों को नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में भेजने का फैसला कर लिया था ताकि मां के ऊपर कुछ बोझ हल्का हो सके। किन्तु मां इसके लिये तैयार नहीं थी। उनका कहना था कि बच्चों  को अभी मां-बाप की बहुत जरूरत है। फिर बिटटू तो अभी बहुत छोटा है। बहुत देर तक दोनों आपस में बातें करते रहे और अन्ततः केवल मुझे नैनीताल भेजने का निर्णय ले लिया गया। मां की इच्छा न होते हुये भी पिताजी एक सुबह मुझे लेकर चल दिये। मां उस दिन भी बीमार थी। मेरे विछोह ने मां का चेहरा और भी क्लान्त कर दिया। मैं बहुत रोई। मुझे घर छोड़ने की तनिक भी इच्छा न थी । मैंने अपनी डबडबायी आंखों से मां के पीले चेहरे को देखा । मां अशक्त थी। पर मां के क्लान्त चेहरे पर आयी वेदना को मैं मन ही मन समझ गयी। मां की आंखे कह रही थी जा बेटी, खूब मेहनत करना। मेरे वश में अब कुछ नहीं है। पिताजी शायद तेरे भले के लिए ही यह सब कर रहे हैं।मैंने रोते हुये मां से पूछा-मां तुम मुझसे मिलने कब आओगी, आओगी न? "मां" कुछ नहीं बोली। उसने डबडबायी आंखों से स्वीकृति के साथ सिर हिला दिया। पर उनके मन में स्वयं ही शायद एक प्रन था। क्या ऐसा दिन वास्तव में कभी आयेगा ईवर?

            पिताजी मेरा नैनीताल में एडमीशन कर के चले गये। मैं बहुत रोई व गिड़गिड़ा़यी। पर पिताजी का हृदय न पसीजा। पिताजी इतने कठोर हो सकते हैं, मैंने कभी सोचा भी न था। मेरे उन उदास दिनों में मेरा साथ दिया उमा दीदी ने। उमा दीदी हास्टल में हमारे कमरों की मानीटर थीं। वे मुझसे पांच-छह वर्ष  बड़ी होंगी। मुझे रोता देखकर वे मुझे समझाने मेरे पास आ जाती थीं। एक दिन मेरी मां की बीमारी की बात सुनकर वे दुखी हो गयीं। उन्होंने बताया कि उनकी मां नहीं है। इसलिये पिताजी ने उन्हें हाॅस्टल में भेज दिया है। जब मैं मां के बारे में बात करती तो वे बड़े चाव से सुनती। मुझे लगता था कि जैसे बातें सुनकर उमा दीदी अपनी मां की यादों में खो जाती हैं और कुछ पल वे अपनी मां के सानिध्य में बिताने का आनन्द प्राप्त कर लेती हैं । बस सदैव उनके मुंह से मेरी बातें सुनकर एक ही बोल फूटता था- हां, बस ऐसी ही मेरी मां भी थी । उनकी बातें सुन कर मैं सोचती थी कि क्या सभी मांऐ एक जैसी ही होती हैं? कैसी होंगी उनकी मां ? क्या बिल्कुल मेरी मम्मी की तरह?

            समय बीतता गया। मैं जाड़ों की लम्बी छुटिटयों में इस आशा से घर आयी कि मां ठीक हो गयीं होगी। अब मुझे वापस हास्टल नहीं जाना पड़ेगा। पर नियति कुछ और ही थी। मुझे सदैव ही मां को छोड़कर वापस नैनीताल जाना पड़ता था। मां मेरे लिये ढेर सारे शकर-पारे, लड्डू व मठरियां बना कर भेजती थीं। उमा दीदी और मैं अक्सर साथ-साथ बैठ कर उन्हें खाते और मां की बातों करते थे। तीन-चार वर्ष बीत गये। उमा दीदी ने मुझे पहाड़ी नीबू की फूट चाट बनाना सिखा दिया। मैं अब ढेर सारे पहाड़ी नीबू लेकर छुट्टीयों में घर आती थी । जब मैंने पहली बार पहाड़ी नीबू की चाट बनाते वक्त नीबू में मूली, दही, नमक, चीनी व मसाला सब एक साथ मिलाया तो मेरी मां चैंक पड़ी । उन्होंने कहा कि यह सब मिलकर जो जहर बन जायेगा। पर पहाड़ी नीबू के इस जहर का अपना ही स्वाद था। एक बार जो खा ले वह चटकारे लेते ही रह जाता था। मां समझ गयी कि मुझे यह चाट बहुत पसन्द है । छुटिटया बिता कर मैं फिर वापस चली गयी। मां ने मेरे लाये नीबूओं के बीज क्यारी में बो दिये। जब मैं दोबारा छुटिटयों में घर आयी तो ये बीज छोटे-छोटे पौधों की शक्ल ले चुके थे।

            मैं जब भी छुटिटयों घर आती तो उमा दीदी एक ही रट लागाती थीं। इस बार तुम जरूर मां  को नैनीताल लेकर आना। वे एक दो दिन यहां रूक कर अंकल के साथ वापस चली जायेंगी। मेरी बहुत इच्छा है कि मैं उनके दर्शन करूं। मैं सदा हामी भर देती थी। मुझे सदैव यही आशा रहती थी कि मां  इस बार ठीक हो गयी होंगी। जब मैं वापस लौटती तो मैं उमा दीदी से यही कहती थी कि मां अभी ठीक नहीं है। अब वे अगली बार आयेंगी। तब उमा दीदी मां के दर्शन के लिये अगली बार की प्रतीक्षा में लग जातीं।

            पर यह अगली बार कभी नहीं आया। फिर एक बार घर से एकाएक मेरे चाचा जी नैनीताल पहुंचे। कभी भी छुटटी न देने वाली सिस्टर ने मुझे छुटटी दे दी। मैं मां से मिलने के लिये खुशी खुशी चाचा जी के साथ चल दी। चाचा जी ने रास्ते मे बताया कि मां की तबीयत ठीक नहीं है। इसीलिये पापा ने मुझे  बुलवाया है। मैं घर पहुंची तो मुझे  कुछ समझ नहीं आया। घर मे ढेर सारे रिश्तेदार थे। ड्राईगरूम में मां की एक बडी सी तस्वीर लगी हुयी थी। ऐसा लगता था कि मां मेरे स्वागत के लिये खड़ी है और अपना स्नेह भरा हाथ मेरे सिर में रखने ही वाली हैं। थोड़ी ही देर में मुझे पता लग गया। मां अब नहीं थी। मात्र उनकी फोटो रह गयी थी और कुछ यादें । मैं उदास हो गयी। चैथे दिन नैनीताल से मुझे उमा दीदी का पत्र मिला । मेरी छुटटी के प्रार्थना पत्र में मेरी मां  देहावसान की सूचना दी गयी थी। सारे स्कूल को मेरी मां की मृत्यु की सूचना मिल गयी थी । एक मैं ही थी जिसे इस बात की जानकारी घर पहुंच कर हुयी । उमा दीदी ने लिखा थाः-

प्यारी सुरूचि,

            तुम्हारी मां की मृत्यु का समाचार सुनकर हम सभी दोस्त व्यथित हैं। किसी भी स्नेही का विछोह हमारे लिये दुखदायी होता है। किन्तु  माता के विछोह का दुख तो अकल्पनीय है। मैं इसको भली भांति समझ सकती हूं। किन्तु  क्रूर समय की यह नजाकत है कि वह किसी को भी नहीं छोड़ती है। हम सभी नश्वर हैं। ऐसे मौकों एक ही बात रह जाती हैं कि हम अपनी सहनशक्ति को और गहरायी तक खोजें तथा भगवान की इच्छा के सामने नत-मस्तक हो जायें। सचमुच, इस दुनिया में मां का कोई पर्याय नहीं है। मुझे सदैव इस बात का अफसोस रहेगा कि कि मैं उनके दर्शन न कर सकी। तू यह मत समझना कि मां तुम्हारे साथ नहीं हैं । वे आज भी किसी न किसी रूप में हमारे साथ जीवित हैं। उनकी बातों को याद रखना। तुम पाओगी कि हर जरूरत के मौके पर वे सदैव तुम्हारे आस पास ही होंगी। सच, वे आज भी हमारे साथ हैं

तुम्हारी दीदी
उमा
            सच, उमा दीदी का पत्र पढ़कर दुख की उस बेला में मुझे असीम शक्ति व शान्ति प्राप्ति हुयी। मैं ने शाम तक उस पत्र को कई बार पढ़ा।

            दिन बीतने लगे। जीवन की दिनचर्या फिर वापस चलने लगी। धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार भी चले गये। दुख कुछ कम हो गया और यादें रह गयीं । सच, समय जिसने इतना क्रूर आघात किया था अब वह मलहम बनकर मेरे साथ था। जीवन की यह कैसी विडम्बना थी? मैं कभी समझ नहीं पायी।

            फिर आगे का समय कुछ ऐसा कटा कि मैं छुटिटयों में घर वापस ही न आ पायी।  मां के जाने के बाद घर घर नहीं रह गया था । बिट्टू भी मेरे साथ हास्टल आ गया था। घर आने को कोई कारण भी न था। हम दोनों को सदैव मां की याद आती थी। फिर एक जाड़ो की छुट्टियों में मैं और बिट्टू घर वापस आये। रात भर मुझे मां की याद आयी। सुबह जब मैं आंगन में टहलने को आयी तो मैंने देखा कि अमरूद के पेड़ से ढेर सारे तोते मेरी आहट सुनकर फुर्र से आकाश में उड़ चले थे। तोतों के खाये ढेर सारे अमरूद नीचे बिखरे पड़े थे। मुझे एकाएक मां की याद आ गयी । तेज बरसात के बीच मां ने यह अमरूद का पेड़ रोपा था। पिताजी मां पर बहुत नाराज हुये थे क्योंकि मां भीग गयी थीं। उन्होंने कहा था कि वह क्यों नाहक यह पेड़ लगा रहीं हैं। दीवार के किनारे का यह पेड़ जब बड़ा हो जायेगा तो आसपास के बच्चे अमरूद तोड़ ले जायेंगे। हम लोगों को एक भी अमरूद प्राप्त नहीं होगा। मां कुछ नहीं बोली । फिर उन्होंने कहा-ठीक है, कुछ फल आसपास के बच्चे खायेंगे और कुछ तोते । एक आध फल तो हमको भी जरूर मिल जाया करेगा। फिर ढेर सारी छाया तो यह पेड़ जरूर हम ही को देगा। मैं तो बच्चों की किलकारियों और तोतों की आवाज से ही अपना पेट भर लूंगी। आखिर हमारे आंगन में सदा जीवन तो रहेगा।तब पिताजी ने नाराज होकर कोई उत्तर न दिया था। तभी हवा के झोंको ने मां के लगाये नीबू के पेड़ कों हिला दिया। उसकी एक डाल ने हौले से मेरे माथे को सहला सा दिया । मैंने ऊपर की ओर देख। पहाड़ी नीबू  के छोटे-छोटे दाने नीबू के पेड़ पर हिल रहे थे। डाल का स्पर्श मां के ममतामयी स्पर्श के भांति ही था। मुझे लगा कि मां की ममता आज भी मेरे साथ है। मां आंगन में लगे अमरूद, नीबू, अनार व आढू  आदि के पेड़ों के रूप में आज भी हमारे साथ जीवित हैं। मुझे एक बार फिर उमा दीदी की याद आ गयी। उन्होंने अपने  पत्र में लिखा था कि मां सदैव हमारे साथ ही रहेंगी। सच, उन्होंने सच ही लिखा था। आज मां मेरे पास नहीं हैं पर उसकी भावनाओं को मैं इन पेड़ो के रूप  में स्पष्ट रूप से देख रही हूं। आज भी मुझे  अपने पास मां की अनुभूति हो रही है। ऐसा लग रहा है जैसे वह अद्र्श्य रूप से मेरे आस पास ही है।
हिंदी कहानी अनुभूति

शनिवार, 14 अगस्त 2010

Hindi Story: एक नम्बर

एक नम्बर 
कहानी : अनीता जोशी

 

हाईस्कूल में जब मैं कालेज में प्रथम आया तो एकाएक मैं सब की नजर मे आ गया। मेरा आत्म विश्वास बढ.ने के साथ  एक और चीज में भी बढ़ोत्तरी हो गयी । वह था मेरा घमण्ड। अब मैं अपने को कुछ अलग सा समझने लगा था। यह एकाएक कैसे हो गया मुझे पता ही नहीं हुआ। ग्यारहवीं कक्षा में पहुँचने पर सब कुछ बदल सा गया था। कक्षा के बदलने के साथ ही हमारे टीचर भी बदल गये। उन्होंने हमको इससे पहले नहीं पढ़ाया था। किताबें भी काफी मोटी हो गयी थी और विय  काफी कठिन।

पहले ही दिन टीचरों ने कक्षा में हम लोगों के नाम पूछने के साथ-साथ हाईस्कूल में प्राप्त अंको के बारे में भी पूछा। मैंने सभी को बड़े ही गर्व से बताया। मेरे हाव भाव पर किसी ने गौर किया कि नहीं, मैं जान नहीं पाया। पर अंग्रेजी के टीचर राना सर ने शायद मेरी अदा को कुछ अन्यथा ही  लिया। वह बोल पड़े,- “बेटा बहुत ही खुशी  की बात है कि तुमने कालेज में टौप किया है पर कालेज में हाईस्कूल में बच्चे ही कितने थे ? मुश्किल से मात्र दो सौ । अब तुम्हारा मुकाबला उन लाखों बच्चों से होगा  जो मेडिकल एवं इन्जीनियरिंग की परीक्षाओं में बैठेगें। तब पता चलेगा कि ऊँट कितने पानी में है।


मुझे राना सर की बात कतई पसन्द नहीं आयी। मुझे लगा कि उनको मेरे अंको को देख कर शायद कुछ  जलन सी हो गयी । पर क्यों ? मैं समझ नहीं पाया । मैने पाया कि उनका व्यवहार अन्य छात्रों  के प्रति भी कुछ ऐसा ही था। वे बार बार आगाह कर रहे थे कि हाईस्कूल के अंको पर घमण्ड करने की कोई वजह नहीं है।

धीरे-धीरे ग्यारहवीं कक्षा को भी हम पास करे गये। पर राना सर के व्यवहार में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ । वे यदा कदा हम लोगों को धमकाते ही रहते थे। हम लोगों की भी अब उनसे डाँट खाने की आदत सी पड़ गयी।
12वीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते हम लोगों के कुछ पर से निकल आये। हम कुछ उद्दण्ड  भी हो चले । कभी-कभी मौका निकाल कर हम स्कूल की दीवार फ़ाँद कर स्कूल से भाग भी जाया करते थे।

उस दिन फिजिक्स का प्रैक्टिकल था । मैं घर से पढ़ कर  नहीं आया था। इसलिये मेरे लिये प्रैक्टिकल  को समझ कर करना संभव नहीं था। अतः मैंने स्कूल से दीवार फ़ाँद कर भागने की सोच रखी थी। जैसे ही छठे पीरियड के समाप्त होने की घण्टी बजी, मैं चट से दीवार फ़ाँद कर बाहर कूदने को दौड़ा। अभी मैं दीवार पर आधा ही चढ़ा था कि किसी ने पीछे से मुझे नीचे खींच लिया । मैं ने  मुड़ कर देखा तो पाया कि राना सर खडे़ थे। उन्होंने डाँटते हुये मुझसे पूछा  बेटा  कहाँ भाग रहे थे? ”

मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरे मुॅह से आवाज नहीं निकल रही थी कि क्या उत्तर दूँ। घबराहट में मैंं बोल पड़ा-कहीं भी तो नहीं। मैं तो खाली ऐसे ही प्रैक्टिस कर रहा था।


तो फिर यह बस्ता तुम्हारे पीछे क्यों टॅगा है। क्या यह भी प्रैक्टिस कर रहा है तुम्हारे साथ । ” -राना सर ने घूर कर पूछा।

अब मैं निरुत्तर था। तब राना सर ने दोबारा पूछा- किस चीज की क्लास है अब तुम्हारी?“

जी, फिजिक्स का प्रैक्टिकल है। मैंने सिर झुका कर कहा।

पढ़ के नहीं आये थे प्रैक्टिकल इसीलिये भाग  रहे हो क्या ?“ राना सर ने कहा-आ जाओ, मेरे साथ चलो आफिस में।

 मैं समझ गया कि अब मेरी प्रिन्सिपल के सामने पेशी  होने वाली है। मैं सिर झुकाये उनके पीछे चल दिया और मन ही मन  सोचने लगा- इस राना के बच्चे को फिजिक्स की क्या समझ है जो नाहक मेरे पीछे पड़ा है।

 पर वह मुझे लेकर अपने आफिस पहुँच गये और बोले- कौन सा प्रैक्टिकल  था तुम्हारा आजमुझे किताब खोल कर दिखाओ ।” 
आप को क्या समझ मैं आयेगा प्रैक्टिकल?“ -मैंने खीझ कर उनसे कहा।


राना सर मुस्करा दिये। मैंने भी बड़ी बेरूखी से किताब खोल कर उनकी ओर बढ़ा दी ।

राना सर ने पता नहीं सरसरी निगाह से क्या देखा और फिर उस प्रयोग से संबन्धित चार प्रश्नॊ में निशान लगा कर मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा- अब तुम बैठकर इस पाठ को पढ़ो और निशान लगाये चार प्रश्नॊ का मुझे उत्तर दो। इसके बाद मैं तुम्हें छोड़ दुँगा अन्यथा मैं तुम्हें प्रिन्सिपल के पास ले जाऊँगा। जानते हो यह पाठ बहुत महत्वपूर्ण है।
 मैंने मन ही मन राना सर को कोसा और सोचा- अंग्रेजी का टीचर अब हमें फिजिक्स पढ़ायेगा। यही होना तो अब बाकी है।और फिर मन मसोस कर पाठ को पढ़ने लगा और बहुत देर तक पढ़ता रहा। जब तक सब समझ में नहीं आ गया। पढ़ने के बाद मैंने उनसे प्रश्न सुन लेने के लिये  कहा।

तब राना सर ने कहा- अब समय हो गया है किसी और दिन सुनुँगा। पर बताओ तुमको  सब याद हो गया कि नहीं ?“

मैंने सहमति से सिर हिलाया और मन ही मन कहा- बच्चू, तुम क्या समझोगे फिजिक्स के प्रश्न-उत्तर।

समय बीतता गया और राना सर यदा-कदा मुझे उस घटना की याद दिलाते हुये कहते रहते थे कि एक  दिन वे प्रन-उत्तर जरूर सुनेंगे। मैं सहमति से हामी भरते हुये मन ही मन कहता- सर, यह अंग्रेजी का पाठ थोड़ी है जो समझ लेंगे। यह तो फिजिक्स है फिजिक्स।

फिर इण्टरमीडियेट बोर्ड की परीक्षायें हुयीं और मैंने पाया कि उसमें तीन नम्बर का सवाल उसी पाठ से आया था जो राना सर ने मुझसे जबरदस्ती  पढ.वाया था। इससे ज्यादा आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मैंने पाया कि प्री-इन्जीनियरिंग की परीक्षा में भी एक छोटा सा सवाल उसी पाठ से आया था जिसे मैं आसानी से कर गया।

इण्टरमीडियेट का रिजल्ट आया और मैं अच्छे नम्बरों से पास हो गया । प्री-इन्जीनियरिंग  की परीक्षा में भी मैं पास हो गया। जब मैं एडमिन हेतु इन्जीनियरिंग  की काउन्सिलिंग में गया तो मेरा  एडमिन कम्प्यूटर साइन्स में हो गया और वह भी एक अच्छे कालेज में। काउन्सिलिंग में बैठ एक प्रोफेसर ने मुझसे कहा- बेटे तुम बहुत भाग्यशाली हो। यदि तुम्हारा एक नम्बर भी फिजिक्स में कम होता  तो तुमको यह ब्रान्च नहीं मिलती । यह आखिरी सीट थी।

मैंने उनको धन्यवाद  कहा और एकाएक मुझे राना सर की याद आ गयी । काउन्सिलिंग से वापस लौटने के अगले दिन मैं सीधे अपने स्कूल पहुँचा और मैंनें राना सर के पैर छूते हुये सारी बातें बताई और कहा- सर आज मुझे आपके कारण अपनी मन पसन्द ब्रान्च मिल पायी है। पर सर आपको कैसे मालूम चला कि वह  पाठ इतना महत्वपूर्ण है?“

राना सर जोर से हॅस पडे.। फिर अपनी बचपन की बात को याद करते हुये कुछ रुसे हो कर बोले-बेटे, मैं ने भी इण्टरमीडियेट तक साइन्स पढ़ी  है। इन्जीनियरिंग परीक्षा में एक नम्बर कम आने से मेरा एडमिन नहीं हो पाया और मैं इन्जीनियर नहीं बन सका। जानते हो मेरी परीक्षा में इसी पाठ से पॉच नम्बर का सवाल आया था पर मैं ठीक से  पढा न होने के कारण गलती कर गया था।“  मैंने देखा कि उनकी आँखें कुछ नम हो गयी थीं। उन्हें आज भी अपने समय से पढाई न करने की वजह से हुयी चूक से हुयी अपूर्णीय क्षति के लिये दिल के किसी कौने में गहरी टीस थी।
Hindi Story : एक नंबर

शनिवार, 15 मई 2010

Hindi Story: कुन्नू


कुन्नू



घर में मैं सबसे बड़ा हूं पर पिताजी सदा कुन्नू की ही तरफदारी करते हैं। यह कुन्नू की बच्ची घर में सबसे छोटी है पर है सबकी नानी। पिताजी को घर की एक-एक बात की खबर देती है। किसने पढ़ाई की और किसने नहीं। किसने मां का कहना नहीं माना। यह कुछ भी नहीं भूलती है। जासूसों की तरह हम सबकी टोह लेती है और फिर हमारी शिकायत करती है।
मुझे सिनेमा जाने का शौक लगा था। उस दिन मैं स्कूल से जल्दी घर चला गया। मां से मैंने झूठ बोल दिया कि स्कूल में खेल-कूद की वजह से छुट्टी हो गयी है। ठीक ढाई बजे मेरा दोस्त वीरेन्द्र साइकिल लेकर घर पर पहुंचा। वह टिकट खरीद लाया था। मैं जल्दी उससे बातंे करके मां के पास पहुंचा और फिर वीरेन्द्र के साथ निकल गया। पर इस कुन्नू की बच्ची ने पता नहीं कब मेरी व वीरेन्द्र की बातें सुन लीं। फिर शाम को पिताजी के घर आने पर मेरी पोल खोल दी। बस, पिताजी ने इतना डांटा कि मेरी आत्मा कांप उठी।
मुझे लगता था कि घर में सब लोग मुझे अभी बच्चा ही समझते हैं। उस दिन पिताजी बहुत देर तक मुझको समझाते रहे। वे दुःखी थे कि वे मेरे अन्य दोस्तों के माता-पिता की भांति मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते हैं। मैं उनसे पिछले कई दिन से स्कूल ड्रेस की नई पैण्ट सिलवाने के लिए आग्रह कर रहा था। पुरानी पैण्ट अब बहुत खराब हो चुकी थी। उन्होंनेे मुझसे पिछले महीने वादा किया था। वादे के अनुसार इस महीने मेरी नई पैण्ट सिलनी थी। पर अब पिताजी ने इरादा बदल दिया क्योंकि कुéू का जन्मदिन नजदीक था।
रात को मेरा मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगा। पढ़ते समय कुéू मेरे पास आई। उसने मुझे एक बढि़या सा पेन दिया जो उसको आज ही स्कूल में इनाम में मिला था। वह चाहती थी कि मैं उसके पेन से बोर्ड की परीक्षायें दूं। मैंने पिताजी पर आया गुस्सा कुन्नू पर निकाल दिया। उसे जोर से डांट कर भगा दिया। अब मैं सोच रहा था कि मैंने कुन्नू को क्यों डांटा ? वह तो अपना इनाम का पेन मुझे देने आई थी। क्या मेरा व्यवहार उचित था ? क्या मैं कुन्नू की सफलता को देखकर खीझ उठता हूँ ? उसे घर में पिताजी अच्छा मानते हैं और स्कूल में शिक्षक व विद्यार्थी। बेचारी कितने प्यार से अपना पेन देने मुझे आई थी। शायद मैं ऐसे पेन को किसी को न दे पाता। इतना सुन्दर पेन था वह। सोई हुई मासूम कुन्नू के चेहरे को देखकर मैं समझ नहीं पाता कि यह मेरी शिकायत क्यों करती है।
कुन्नू ने अपने जन्म दिन पर फ्राॅक न बनवाने का निश्चय किया। अतः पिताजी ने मेरी पैण्ट सिलने को दे दी। जन्म दिन पर कुन्नू ने अपनी सहेलियों को भी नहीं बुलाया। मुझे समझ में नहीं आता इस कुन्नू को हो क्या गया है। यह दिन पर दिन बदलती जा रही थी। ज्यादातर समय किताबों में ही खोयी रहती थी।
मैंने तब एक नया तरीका निकाला। जब पढ़ाई का मन न हो तो कहानी की किताब पढ़ ली जाए। कहानी की किताब एक बार पढ़ना शुरू करो तो छोड़ने का ही मन नहीं चाहता। काश, मेरा इतना मन कोर्स की किताबों में लग पाता। शायद मां की इच्छा पूरी हो जाती। मैं प्रथम श्रेणी से तो पास हो ही जाता और शायद किसी इंजीनियरिंग कालेज में भी दाखिला मिल जाता। पिताजी को जब पता लगा कि मैं आजकल कहानी की किताबें ज्यादा ही पढ़ने लगा हूं तो वे बहुत नाराज हुए। फिर उन्होंने घर में सभी से कहा कि कोई भी मुझे पढ़ने को न कहे। शायद उन्होंने हार मान ली है। अब मेरे भाग्य में जो बनना होगा वही मैं बनूंगा। मेरे पीछे प्रयत्न करना बेकार है। यही पिताजी का अन्तिम मत है। मैं बहुत दुःखी हुआ। मैंने जी लगाकर पढ़ने का निश्चय कर लिया।
मैंने पिताजी को प्रथम श्रेणी में पास होकर दिखा दिया। इंजीनियरिंग कालेज में मेरा दाखिला भी हो गया। मां- पिताजी बहुत खुश हुए। पर उनको एक ही चिंता थी कि पढ़ाई का खर्चा कैसे चलेगा। घर में मेरे जाने की तैयारियां चल रही थीं। पिताजी इधर-उधर से रुपयो का इंतजाम कर रहे थे। आखिर इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाना कोई आसान काम तो था नहीं। आखिर पैसों का इंतजाम करके मुझे इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने भेज दिया गया।
मैं छुट्टी में घर आया। पिताजी और मां बहुत खुश थे। कुन्नू दौड़ कर मेरे पास आई। अतुल, राकेश व कविता भी आ गई। सभी कालेज के बारे में पूछने लगे। मैंने उनको कालेज की ट्रेनिंग के किस्से एक-एक करके सुनाए।
रात को मैंने पिताजी से बातचीत की। उनको बताया कि उनका दिया खर्चा कम पड़ रहा है। महीने के आखिर में तो खाना खाने के लाले पड़ सकते हैं। कापी, किताबें, हाॅस्टल का खर्चा, चाय-नाश्ता और खाना सभी कुछ महंगा है। मैंने पिताजी से कहा कि पिताजी क्या करूं? ऐसा न हो कि मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़े। पिताजी ने मुझे ढांढस बंधाया। चिंता न करने की सलाह दी। कहा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा।
अतुल ने मुझे बताया कि कुन्नू के पास घर में सबसे ज्यादा रुपए हैं। वह समय-समय पर मिले रुपए जोड़ती रहती है।
शाम को पिताजी घर आए। उन्होंने कुन्नू को बताया कि एक अच्छी साइकिल मिल रही है। यदि वह अपने पास से दौ सौ रुपए दे दे तो वे कल ही उसके लिए साइकिल ले आएंगे। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुन्नू ने पिताजी को रुपए देने के लिए मना कर दिया। जबकि वह पिछले चार महीने से साइकिल की जिद कर रही थी। उसने पिताजी से कहा कि वह अपने दो सौ दस रुपए की पूंजी से मात्रा एक सौ दस रुपए उनको दे सकती है। पिताजी ने उसको बहुत समझाया पर उसने एक न सुनी। मैं भी उसकी जिद को नहीं समझ पा रहा था। पिताजी व कुन्नू बहस कर रहे थे। मैं सोने चला गया। अगले दिन सुबह मुझे वापिस जाना था।
हाॅस्टल में एक दिन मैंने सुबह नाश्ता नहीं किया। सिर्फ खाना खाया। चाय भी एक बार ही पी। चार-पांच तारीख तक पिताजी का मनीआर्डर आएगा। पता नहीं तब तक कैसे काम चलेगा। कालेज में पढ़ाई जोर शोर से चल रही थी। पिताजी के दिए रुपये समाप्त होने जा रहे थे। घर से मनीआॅर्डर आने में भी कुछ दिन बाकी थे।
उस दिन मैंने जैसे ही अपनी किताब का एक पन्ना खोला मैं हक्का बक्का रह गया। किताब में एक सौ का नोट बड़े ही ढंग से चिपका हुआ था। कुन्नू ने नीचे लिखा था कि शायद मेरे रुपए समाप्त हो चुके होंगे। मुझे इन रुपयों की जरूरत होगी। मैं इस महीने इन रुपयों से चला लूं। अगले महीने जरूर कोई दूसरा इंतजाम हो जाएगा। उसकी लिखी बात पढ़कर मेरी आंखे नम हो गई। सच, कुन्नू तुम कितनी समझदार हो। यह बात तो मैं कभी समझ ही नहीं पाया।
अब मुझे समझ में आ गया कि उसने पिताजी को साइकिल खरीदने के लिए रुपए क्यों नहीं दिए थे। कुन्नू ने मेरी आने वाली परेशानी को सोचकर अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग कर दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह कि उसने मेरे और पिताजी के बीच हुई अंतरंग बात को कितनी सफाई से सुनकर किसी को जाहिर नहीं होने दिया और मेरी समस्या का समाधान कितनी सफाई से कर डाला। मैं बहुत शर्मिन्दा हो गया। मैंने सदा उसे बहुत छोटा समझा। उसकी शिकायतों से सदा नाराज रहा। मैं कभी यह समझ ही नहीं पाया कि वह भी बड़ों की तरह मुझे इतना प्यार करती है। मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं उसके सामने बहुत अदना हूं।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

Hindi Story: अप्पू की नाराजगी

अप्पू की नाराजगी
अप्पू एक बहुत ही प्यारा बच्चा है। मोहल्ले के नुक्कड़ पर उसके पिताजी की किराना की दुकान है. मैं सालो पहले जब इस मोहल्ले में आयी तो अप्पू छोटा सा बच्चा था। तब वह ठीक से बोल भी नहीं पाता था। उसके पिताजी अक्सर उसको दुकान पर ले आते थे। मैं सुबह शाम जब भी स्कूल से पढ़ाकर लौटती तो मेरी आंखे बरबस दुकान की ओर चली जाती थी। शायद इसका कारण अप्पू का आकर्षण था। मुझे देखकर वह शर्माकर अपनी आंॅखे नीची कर लेता था मैं जब कभी दुकान पर जाती तो अप्पू से बातचीत की कोशिश जरूर करती।
धीरे-धीरे हमारे बीच एक मधुर संबध स्थापित हो गया। वह कुछ बड. भी हो गया। वह अब मुझे देखते ही नमस्ते करने लगा। दुकान के कार्यो में वह अपने पिताजी का हाथ भी बंटाने लगा। दुकान से चीजें वह फटाफट ढूॅंढ कर लाता और थैलियों में भरकर तौलने की भी कोशिश करता। शिक्षक होने के नाते मुझे यह सदैव लगता था कि वह कुशाग्र बुद्वि बालक है। एकदिन मैंने उसके पिताजी से कहा कि वह अप्पू का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करवा दे। अप्पू बड़े ध्यान से मेरी बातें सुनता रहा फिर बाल सुलभता से बोला-”आंटी, मैं आपके ही स्कूल में पढॅ़ूंगा. मुझे आप पढ़ायेंगी ? बड़े होकर मैं भी आपकी तरह बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाऊॅंगा मैंने धीमे से हामी भर ली पर मैं जानती थी कि अप्पू को मेरी क्लास में आने में अभी कई वर्ष लगेंगे। फिर एकदिन उसके पिताजी ने अप्पू का दाखिला सचमुच हमारे स्कूल में करा दिया। साल पर साल बीतते गये। अप्पू सदा मुझसे पूछता कि मैं उसको कब पढ़ाऊंगी? मैं उसकेे भोलेपन पर मुस्करा देती।
फिर एकदिन वह वक्त भी गया जिसकी अप्पू सालों सक प्रतीक्षा कर रहा था। अब वह मेरी ही कक्षा मंे था। वह बहुत खुश था। उसकी वर्षो की मनोकामना पूरी हो गयी थी। मुझे भी मन ही मन अप्पू की इच्छा पूरी होने की खुशी थी। आखिर उसने इस बात का वर्षो तक इंतजार किया था। अप्पू क्लास के सभी बच्चों और अपने दोस्तों के बीच मेरी बहुत की तारीफ किया करता था। मेरी थोड़ी सी भी बुराई सुनने को वह तैयार था। कभी कभी तो वह इस बात पर कक्षा में झगड़ा भी कर डालता था। अद्र्ववार्षिक परीक्षायें हुई। मेरे विषय संस्कृत में अप्पू के बहुत अच्छे नंबर आये थे। किन्तु उसका कक्षा के सबसे अच्छे विद्यार्थी से एक नंबर कम था। अतः वह अपनी कापी लेकर मेरे पास आया और उसने बड़े ही अपनेपन से मुझसे कहा-”मैडम, मेरा एक नंबर बढ़ा दीजिए।
क्यों अप्पू? तुम्हारे तो बहुत अच्छे नंबर आयें हैं मैंने आश्चर्य से पूछा। वह कुछ नहीं बोला। उसक पूरी आशा थी कि मैं उसका नंबर बढ़ा दॅूंगी। काफी देर बाद उसने मुझसे अपने मन की बात बताई। मैं खिलखिलाकर हंॅस दी और फिर उसे समझाया-”अप्पू, तुम्हें और ज्यादा मेहनत करनी चाहिए। मात्रा कक्षा में सबसे ज्यादा अंक जाने से कोई फायदा नहीं हैं। तुम्हारा मुकाबला तो ढेर से अन्य विद्याथिर्यो से भी हैं जिनको तुम जानते भी नहीं हो।
तब अप्पू ने रोआंसा होकर कहा-”मैडम, बस एक अंक की तो बात है। बढ़ा दीजिए न।उसकी बात सुनकर मैैंने उसे फिर समझाया कि प्रश्न एक अंक का नहीं है। असल में बात सिद्वान्त की है और इसलिए मैं अंक नहीं बढ़ा पाऊंगी। तब अप्पू ने जिद छोड़ दी और वह कापी जमा करके अपनी सीट में बैठ गया। मुझे लगा कि उसको मेरी बात समझ में गयी है। रिजल्ट निकले सात आठ दिन बीत गये। अप्पू कक्षा में प्रथम आया किन्तु रिजल्ट के बाद एक दिन मुझे महसूस हुआ कि अप्पू अब मेरे सामने नहीं आता है। वह कक्षा में मुझसे निगाहें भी नहीं मिलाता है। उसने मुझे नमस्ते भी करनी छोड़ दी है। उसमें आये परिवर्तन के लिए मैं हैरान थी। मैं समझ नहीं पा रही थी अप्पू इस प्रकार का व्यवहार क्यों करने लगा है। उसने हमारे घर भी आना छेाड़ दिया। हमारे घर के अन्य लोग जब उसको दिखाई देते तो वह उनको भी अभिवादन कर देखा अनदेखा करने लगा। अप्पू में आये इस बदलाव को देखकर मैं चक्कर में पड़ गयी। उसे पता नहीं क्या हो गया था। क्लास में वह खोया-खोया सा दिखाई पड़ता था। उसके व्यवहार में इतना बड. परिवर्तन कैसे गया? यह मेरी उत्सुकता का विषय था।
फिर उस रात जाने मेरे मन में कैसे एक विचार आया। मुझे लगा मैंने अप्पू की उदासी का कारण जान लिया है। मैंने फिर चैन की नींद ली। दूसरे दिन शाम को अप्पू अपने पिताजी के साथ दुकान में बैठा था। मैं थैला लेकर उसकी दुकान में पहुंॅची। मैंने अप्पू से एक किलो चीनी देने को कहा। अप्पू जब चीनी तौल चुका तो मैने अप्पू से कहा-”अप्पू, मेरी थैली में थोड़ी ज्यादा चीनी भरो। मुझे लग रहा है कि चीनी कम है।
तब अप्पू बोला-”नहीं मैडम चीनी तो पूरी है। मैंने कम नहीं तौली है।
पर अपनी जान-पहचान वालों को तो तुम्हें कुछ ज्यादा तौलना चाहिए।मैंने उसे समझाते हुए कहा।
पर मैडम, हमारी दुकान में तो सब जान पहचान वाले ही ग्राहक आते हैं। यदि मैं ज्यादा चीजें तौला करूंगा तो हमको कुछ समय में ही घाटा हो जाएगा। हम सभी को पूरा और अच्छा सामान बेचते हैंै।उसने बड़े ही आत्म-विश्वास से कहा। बिल्कुल ठीक अप्पू। तुम तो बहुत समझदार हो। पर अब तुम यह बताओ कि जब तुम अपनी दुकान में किसी को भी ज्यादा चीज तौल कर नहीं देते हो तो तुम यह उम्मीद कैसे करते हो कि शिक्षक अपने छात्रोंा को उचित से ज्यादा नम्बर दे दे? तुम मुझसे इसीलिए नाराज हो कि मैंने तुम्हारा एक अंक नहीं बढ़ाया था?“ मैंने अप्पू से प्रश्न किया।
अप्पू ने शर्म से अपनी आंॅखे नीचे कर ली। फिर उसेने आंॅख झुकाए हुए कहा - ”मैडम, मुझे अपनी गलती समझ में गई है। सच, आपने मेरी आंॅखे खोल दी हैं।फिर उसने अपनी पलके उठाकर मुझे देखा। अपनी पुरानी मुस्कराहट से साथ। अब उसके मन में कोई शंका या नाराजगी थी। दूसरे दिन से अप्पू पहले की भांति ही प्रफुल्लित था।

Hindi Story: अप्पू की नाराजगी


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